संसद और विधायिका की भूमिका और कार्यों की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए -राजनीति शास्त्र (Political Science)

संसद और विधायिका की भूमिका और कार्यों की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए


प्रस्तावना

लोकतंत्र का मूल आधार जन-प्रतिनिधित्व और कानून का शासन है, और भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में यह कार्यभार संसद और विधायिका पर केंद्रित होता है। भारतीय संसद न केवल विधायी कार्यों की प्रभारी है, बल्कि यह सरकार को उत्तरदायी बनाने, नीति-निर्माण, सार्वजनिक धन के उपयोग की निगरानी और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा जैसे कई महत्वपूर्ण कार्यों का संचालन करती है। किंतु साथ ही साथ, आज की राजनीति में संसद की कार्यक्षमता, उसकी गुणवत्ता और जवाबदेही पर कई आलोचनात्मक प्रश्न भी उठते हैं।


भारतीय संसद की संरचना (Structure of Indian Parliament)

भारतीय संविधान के अनुसार संसद तीन भागों से मिलकर बनती है:

  1. राष्ट्रपति (President) – संवैधानिक प्रमुख
  2. लोकसभा (House of the People) – निचला सदन
  3. राज्यसभा (Council of States) – उच्च सदन

लोकसभा सीधे जनता द्वारा चुनी जाती है जबकि राज्यसभा में सदस्य राज्यों की विधानसभाओं द्वारा निर्वाचित होते हैं।


विधायिका की प्रमुख भूमिकाएं (Functions of the Legislature)

1. विधायी कार्य (Legislative Function)

  • संसद का मुख्य कार्य कानून बनाना है।
  • संसद विभिन्न विषयों पर विधेयक पारित करती है: जैसे संविधान संशोधन, दंड विधेयक, कर विधेयक, सामाजिक और आर्थिक सुधार।
  • संसद केंद्र सूची (Union List) और समवर्ती सूची (Concurrent List) के विषयों पर कानून बना सकती है।

2. कार्यपालिका पर नियंत्रण (Control over Executive)

  • संसद कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाती है।
  • संसद में प्रश्नोत्तर काल, अल्पकालिक चर्चा, स्थगन प्रस्ताव जैसे उपकरणों से सरकार की नीतियों की समीक्षा की जाती है।
  • अविश्वास प्रस्ताव (No-confidence motion) के माध्यम से सरकार को गिराया भी जा सकता है।

3. वित्तीय कार्य (Financial Function)

  • सभी करों, व्ययों और बजट की स्वीकृति संसद द्वारा दी जाती है।
  • संसद के बिना एक पैसा भी सरकारी कोष से खर्च नहीं किया जा सकता (अनुच्छेद 266)।
  • बजट पारित करने के अलावा संसद सार्वजनिक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति, और लोक लेखा समिति जैसी समितियों के माध्यम से व्ययों की निगरानी करती है।

4. संविधान संशोधन (Amendment of Constitution)

  • संसद को संविधान के संशोधन की शक्ति अनुच्छेद 368 के तहत प्राप्त है।
  • अब तक 100+ संशोधन संसद द्वारा पारित किए जा चुके हैं।

5. नीति निर्धारण और जनप्रतिनिधित्व (Policy and Representation)

  • सांसद अपने क्षेत्रों के मतदाताओं की समस्याओं को संसद में उठाते हैं।
  • यह सरकार और जनता के बीच एक सेतु का कार्य करती है।

6. न्यायिक कार्य (Judicial Functions)

  • संसद महाभियोग द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया शुरू कर सकती है।

संसद और विधायिका की आलोचनात्मक समीक्षा (Critical Evaluation)

1. घटती कार्यदक्षता (Decline in Working Days)

  • संसद के सत्र अब कम दिनों तक चलते हैं।
  • कई बार संसद स्थगन और हंगामे की भेंट चढ़ जाती है।
  • 1950-60 के दशक में संसद साल में 120-140 दिन बैठती थी, अब यह घटकर 60-70 दिन रह गई है।

2. बहस की गुणवत्ता में गिरावट

  • संसद में होने वाली बहसें अब गंभीरता से कम और राजनीति से प्रेरित अधिक होती हैं।
  • कई बार विधेयकों पर बिना पर्याप्त चर्चा के उन्हें पारित कर दिया जाता है।

3. राजनीतिक दलों का वर्चस्व

  • विधायकों की स्वतंत्रता दलगत अनुशासन (Whip) के अधीन हो चुकी है।
  • कई बार सांसद अपने मतदाताओं की बजाय पार्टी के आदेशों के अधीन कार्य करते हैं।

4. आपराधिक और भ्रष्ट प्रतिनिधियों की संख्या

  • संसद में बड़ी संख्या में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रतिनिधि चुने जा रहे हैं।
  • इससे विधायिका की नैतिकता और विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगता है।

5. महिलाओं और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व

  • संसद में महिलाओं और अन्य सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
  • महिला आरक्षण विधेयक लंबे समय से लंबित है।

6. वित्तीय निगरानी की कमजोरी

  • बजट पर चर्चा अक्सर औपचारिकता बनकर रह जाती है।
  • खर्च और योजनाओं की प्रभावशीलता पर उचित संसदीय निगरानी नहीं हो पाती।

7. विधायकों की अनुपस्थिति और उदासीनता

  • संसद में सांसदों की अनुपस्थिति और सत्रों में सक्रिय भागीदारी की कमी भी चिंता का विषय है।

संसद की प्रासंगिकता और भविष्य की दिशा (Relevance and Future Outlook)

वर्तमान समय में डिजिटल इंडिया, सोशल मीडिया और वैश्विक दबावों के बीच संसद की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए संसद को निम्नलिखित कदम उठाने होंगे:

  • संसदीय सुधार: सांसदों की योग्यता, आचरण और कार्यदक्षता पर सख्त मानक तय किए जाएं।
  • महिलाओं को प्रतिनिधित्व: महिला आरक्षण विधेयक को शीघ्र लागू किया जाए।
  • प्रश्नकाल और समितियों को मजबूत किया जाए: ताकि सरकार से उत्तरदायित्व सुनिश्चित हो सके।
  • डिजिटल संसदीय प्रणाली को अपनाना: ताकि जनता और सांसदों के बीच संवाद बढ़ाया जा सके।

निष्कर्ष

भारतीय संसद और विधायिका लोकतंत्र के संरक्षक हैं। ये संस्थाएं जनभावनाओं की अभिव्यक्ति, सरकार की निगरानी और विधिक ढांचे की आधारशिला हैं। हालांकि, इनकी वर्तमान कार्यप्रणाली में कई कमियाँ हैं जिनमें सुधार की आवश्यकता है। यदि संसद को उसकी गरिमा और कार्यकुशलता के अनुरूप सशक्त किया जाए, तो यह भारतीय लोकतंत्र को और अधिक मजबूत बना सकती है। कानून की सत्ता और जनहित का वास्तविक संरक्षण तभी संभव है जब संसद अपनी भूमिका पूरी निष्ठा और जिम्मेदारी के साथ निभाए।