शीर्षक: “संविधान के दो स्तंभों के बीच टकराव: राष्ट्रपति बनाम सुप्रीम कोर्ट – संवैधानिक मर्यादाओं और अधिकार-क्षेत्र की ऐतिहासिक पड़ताल”
प्रस्तावना:
भारत के लोकतंत्र की जड़ें संविधान की गहराइयों में निहित हैं, जो तीन प्रमुख स्तंभों — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — के बीच संतुलन को बनाए रखता है। हाल ही में एक अभूतपूर्व स्थिति उभरी है जिसमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय पर सवाल खड़े किए हैं। यह विवाद विशेष रूप से अनुच्छेद 143 और अनुच्छेद 142 के दायरे, राष्ट्रपति की निर्णय प्रक्रिया, विधायी प्रक्रिया और न्यायिक सक्रियता** को लेकर है।
विवाद की पृष्ठभूमि:
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अनुच्छेद 143 का हवाला देते हुए कुछ विधायी प्रस्तावों और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली पर टिप्पणियां कीं, जिसे राष्ट्रपति भवन ने अधिकारों का अतिक्रमण बताया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा सार्वजनिक रूप से पूछे गए पांच प्रश्नों ने संवैधानिक बहस को हवा दी है। यह पहली बार है कि भारत के राष्ट्रपति ने इस प्रकार न्यायपालिका से जवाब मांगा है।
राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए प्रमुख संवैधानिक प्रश्न और उनका विश्लेषण:
1. क्या राष्ट्रपति को निर्णय लेने के लिए समयसीमा में बाध्य किया जा सकता है?
संवैधानिक विश्लेषण:
राष्ट्रपति का कार्य संचालन अनुच्छेद 74 और अनुच्छेद 77 के अधीन होता है, जहाँ वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करते हैं। संविधान में राष्ट्रपति के लिए निर्णय लेने की कोई निर्धारित समयसीमा नहीं दी गई है। हालांकि व्यावहारिक शासन व्यवस्था में विलंब से प्रशासनिक प्रभाव उत्पन्न होते हैं, फिर भी कोई न्यायिक संस्था राष्ट्रपति को बाध्य नहीं कर सकती जब तक वह निर्णय संविधान के अनुरूप न हो।
2. क्या कोर्ट किसी बिल के मसौदे (ड्राफ्ट) में बदलाव करने का अधिकार रखता है, जबकि वह अभी कानून बना ही नहीं?
संवैधानिक दृष्टिकोण:
न्यायपालिका का कार्य कानून की व्याख्या करना है, न कि उसका निर्माण। ‘Separation of Powers’ (शक्तियों का पृथक्करण) के सिद्धांत के अनुसार, कोर्ट किसी प्रस्तावित बिल में हस्तक्षेप नहीं कर सकती जब तक वह अधिनियमित कानून न बन जाए। यह विधायिका का विशेषाधिकार है।
3. क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति और राज्यपाल के आदेशों की जगह अपने विकल्प सुझा सकता है?
न्यायिक मर्यादा:
सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 32 और 226 के तहत असंवैधानिक या अलाभकारी निर्णयों को रद्द कर सकता है, लेकिन वह किसी आदेश की जगह कोई वैकल्पिक नीति या प्रशासनिक निर्णय नहीं सुझा सकता। ‘Judicial Overreach’ की संभावना यहाँ पर उत्पन्न होती है।
4. अनुच्छेद 142 का अधिकार क्षेत्र क्या है?
विस्तारपूर्वक व्याख्या:
अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति देता है कि वह “पूर्ण न्याय” करने के लिए ऐसे आदेश या निर्णय पारित कर सकता है जो आवश्यक हों। लेकिन यह शक्ति विधायिका के अधिकार क्षेत्र या संविधान के मूल ढांचे को पार नहीं कर सकती। यह न्याय की पूरक शक्ति है, प्रतिस्थापन नहीं।
5. क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 131 के अलावा राज्य और केंद्र के विवादों में हस्तक्षेप कर सकता है?
संविधानिक उत्तर:
अनुच्छेद 131 विशेष रूप से राज्य और केंद्र के बीच उत्पन्न विवादों में मूल अधिकार क्षेत्र प्रदान करता है। कोर्ट अन्य अनुच्छेदों के अंतर्गत अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप कर सकता है, जैसे कि मौलिक अधिकारों या संघीय संतुलन से जुड़े मामलों में, लेकिन प्रत्यक्ष विवाद निपटाने के लिए केवल अनुच्छेद 131 ही उपयुक्त है।
आगे की संवैधानिक प्रक्रिया:
सुप्रीम कोर्ट को इस चुनौती का उत्तर देने के लिए पांच-न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ का गठन करना होगा। यह पीठ इन प्रश्नों के उत्तर केवल संविधान की स्पष्ट व्याख्या के माध्यम से ही दे सकती है, न कि नीतिगत या राजनीतिक दलीलों के आधार पर।
अगर सुप्रीम कोर्ट जवाब नहीं देता तो क्या होगा?
- संवैधानिक संकट: संस्थाओं के बीच टकराव बढ़ सकता है, जिससे कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच असमंजस उत्पन्न होगा।
- जनमत पर असर: जनता की संविधान में आस्था डगमगा सकती है, जो लोकतंत्र के लिए घातक है।
- संवैधानिक संसोधन की माँग: यदि बार-बार शक्तियों की व्याख्या में भ्रम उत्पन्न होता है, तो संसद संविधान की धारा में स्पष्टता के लिए संशोधन कर सकती है।
- राष्ट्रपति विशेष सन्देश या अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकती हैं।
निष्कर्ष:
यह टकराव संविधान की मर्यादा, शक्तियों के संतुलन और संस्थानों की भूमिका को पुनः परिभाषित करने का अवसर है। राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट दोनों ही भारत के लोकतांत्रिक ढांचे के अभिन्न अंग हैं। इन दोनों के बीच संवाद और स्पष्टता से ही राष्ट्र को मजबूत दिशा मिल सकती है, अन्यथा यह स्थिति संवैधानिक व्यवस्था के लिए एक गंभीर चुनौती बन सकती है।