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“संपत्ति विवादों में समानांतर कार्यवाही नहीं: पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय – धारा 145 CrPC की कार्यवाही सिविल वाद लंबित रहने पर अमान्य”

शीर्षक: “संपत्ति विवादों में समानांतर कार्यवाही नहीं: पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय – धारा 145 CrPC की कार्यवाही सिविल वाद लंबित रहने पर अमान्य”


🔷 भूमिका:

भारतीय न्याय प्रणाली में सिविल और आपराधिक न्यायालयों की अलग-अलग शक्तियाँ और क्षेत्राधिकार होते हैं। जब कोई भूमि या संपत्ति विवाद उत्पन्न होता है, तो अक्सर दोनों प्रकार की कार्यवाहियाँ साथ-साथ शुरू हो जाती हैं — एक सिविल कोर्ट में और दूसरी आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 145 के तहत। हाल ही में, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस विषय पर एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए स्पष्ट किया कि यदि किसी संपत्ति के स्वामित्व या कब्जे से संबंधित विषय पर सिविल वाद पहले से लंबित है, तो CrPC की धारा 145 और 146 के अंतर्गत समानांतर आपराधिक कार्यवाही नहीं चलाई जा सकती।


🔷 मामले का सार:

इस मामले में विवादित संपत्ति के स्वामित्व, कब्जा, और बिक्री विलेख (sale deed) की वैधता पर एक सिविल वाद पहले से ही अदालत में विचाराधीन था। इसी दौरान, एक पक्ष ने CrPC की धारा 145 के तहत कार्यवाही शुरू कर दी, जिसमें मजिस्ट्रेट के समक्ष “शांति भंग होने की आशंका” के आधार पर भूमि के कब्जे को लेकर आदेश मांगे गए।


🔷 हाईकोर्ट का निर्णय और तर्क:

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि:

“जब किसी संपत्ति से संबंधित स्वामित्व, कब्जे या बिक्री विलेख की वैधता का प्रश्न सिविल न्यायालय के समक्ष लंबित है, तो CrPC की धारा 145 के अंतर्गत कार्यवाही चलाना न केवल अनुचित है, बल्कि इससे परस्पर विरोधाभासी निर्णय उत्पन्न हो सकते हैं जो न्यायिक व्यवस्था की प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाते हैं।”

⚖️ प्रमुख बिंदु:

  1. सिविल कोर्ट की प्रधानता:
    हाईकोर्ट ने यह दोहराया कि जब सिविल कोर्ट किसी संपत्ति विवाद पर संज्ञान ले चुकी हो, तो वही अंतिम निर्णय देने की सक्षम प्राधिकृत संस्था है। सिविल अदालतें अधिकारों और स्वामित्व के गहन परीक्षण के लिए उपयुक्त मंच हैं।
  2. परस्पर विरोधाभासी निर्णयों की आशंका:
    आपराधिक न्यायालयों द्वारा धारा 145 के तहत दिए गए अंतरिम आदेश, यदि सिविल निर्णयों के विपरीत होते हैं, तो यह न्याय प्रशासन की एकरूपता और निष्पक्षता को खतरे में डाल सकते हैं।
  3. धारा 145 और 146 CrPC की कार्यवाही समाप्त:
    उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सिविल वाद लंबित होने की स्थिति में CrPC की धारा 145 और 146 के तहत की जा रही कार्यवाही को तुरंत समाप्त कर देना चाहिए।
  4. धारा 482 CrPC के तहत हस्तक्षेप:
    अदालत ने अपनी अंतःक्षेप शक्ति (inherent power) के तहत धारा 482 CrPC का प्रयोग करते हुए आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।

🔷 न्यायिक दृष्टिकोण और कानूनी महत्व:

यह निर्णय न्यायिक अनुशासन, न्यायालयों के क्षेत्राधिकार और परिपक्व न्यायिक नीति का परिचायक है। हाईकोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि:

  • सिविल अदालत का क्षेत्राधिकार सर्वोपरि बना रहे।
  • पक्षकारों को दोहरी कार्यवाहियों से बचाया जाए।
  • न्यायालयों में समानान्तर चल रही कार्यवाहियों से उत्पन्न होने वाले द्वंद्व से बचा जाए।

यह फैसला विशेष रूप से उन मामलों में दिशा-निर्देशक बन सकता है जहाँ भूमिसंबंधी विवादों में सिविल और आपराधिक दोनों तरह की कार्यवाहियाँ शुरू की जाती हैं।


🔷 निष्कर्ष:

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में एक सकारात्मक और स्पष्ट मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत करता है। यह निर्णय बताता है कि संपत्ति विवादों में सिविल अदालतों की प्रधानता सर्वोच्च है, और आपराधिक कार्यवाहियों को केवल तभी स्थान मिलना चाहिए जब कोई सिविल विवाद लंबित न हो। इस निर्णय से “न्याय में समरूपता” और “प्रक्रियात्मक अनुशासन” जैसे सिद्धांतों को बल मिला है।