संदेह के आधार पर सजा नहीं: पत्नी की मृत्यु से जुड़े 22 वर्ष पुराने मामले में गुजरात हाईकोर्ट द्वारा दोषसिद्धि निरस्त State of Gujarat बनाम Ishwarji Sursanji Thakor
IPC की धारा 304 भाग-I के अंतर्गत दी गई सजा को रद्द करने का महत्वपूर्ण निर्णय
भूमिका
आपराधिक न्याय व्यवस्था का मूल सिद्धांत है—
“हज़ार अपराधी छूट जाएँ, पर एक निर्दोष को दंड न मिले।”
भारतीय दंड न्याय प्रणाली में दोषसिद्धि का आधार मज़बूत, विश्वसनीय और संदेह से परे साक्ष्य होना अनिवार्य है। विशेष रूप से तब, जब मामला पत्नी की मृत्यु जैसे संवेदनशील और भावनात्मक रूप से जटिल विषय से जुड़ा हो। ऐसे मामलों में न्यायालयों के सामने एक कठिन संतुलन होता है—एक ओर मृतका के प्रति न्याय, और दूसरी ओर अभियुक्त के मौलिक अधिकारों की रक्षा।
इसी सिद्धांत को दोहराते हुए गुजरात उच्च न्यायालय ने State of Gujarat बनाम Ishwarji Sursanji Thakor मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय दिया, जिसमें वर्ष 2002 के ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को निरस्त (set aside) कर दिया गया, जिसके द्वारा अभियुक्त को IPC की धारा 304 भाग-I (गैर-इरादतन हत्या, जो हत्या नहीं है) के अंतर्गत दोषी ठहराया गया था।
यह फैसला न केवल अपीलीय न्यायालय की भूमिका को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि अनुमानों और अपूर्ण साक्ष्य के आधार पर किसी व्यक्ति को आपराधिक दंड नहीं दिया जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
इस प्रकरण की जड़ें लगभग दो दशक से अधिक पुरानी हैं। संक्षेप में तथ्य इस प्रकार हैं—
- अभियुक्त Ishwarji Sursanji Thakor पर आरोप था कि उसकी पत्नी की मृत्यु
उसके कृत्य के कारण हुई; - अभियोजन का कहना था कि—
- पति-पत्नी के बीच विवाद हुआ,
- जिसके परिणामस्वरूप पत्नी की मृत्यु हो गई;
- ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि—
- अभियुक्त का कृत्य जानबूझकर हत्या (Section 302 IPC) नहीं था,
- परंतु वह culpable homicide not amounting to murder की श्रेणी में आता है।
फलस्वरूप, ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्त को धारा 304 भाग-I IPC के अंतर्गत दोषी ठहराया।
राज्य की अपील और पुनर्मूल्यांकन
राज्य सरकार की ओर से यह मामला उच्च न्यायालय में आया, जहाँ—
- साक्ष्यों का पुनः परीक्षण (re-appreciation of evidence) किया गया;
- अभियोजन की पूरी कहानी को गहराई से परखा गया;
- यह देखा गया कि क्या ट्रायल कोर्ट का निष्कर्ष कानून और साक्ष्यों के अनुरूप था या नहीं।
गुजरात हाईकोर्ट के समक्ष प्रमुख विधिक प्रश्न
उच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न थे—
- क्या अभियोजन यह सिद्ध करने में सफल रहा कि मृत्यु अभियुक्त के कृत्य से ही हुई?
- क्या IPC की धारा 304 भाग-I के आवश्यक तत्व (ingredients) सिद्ध किए गए थे?
- क्या ट्रायल कोर्ट ने अनुमानों और परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि की?
- क्या संदेह का लाभ अभियुक्त को दिया जाना चाहिए था?
धारा 304 भाग-I IPC: कानूनी कसौटी
धारा 304 भाग-I लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि—
- अभियुक्त का कृत्य जानबूझकर किया गया हो,
- जिससे मृत्यु होना संभाव्य (likely) हो,
- भले ही हत्या करने का स्पष्ट इरादा न हो।
अर्थात—
केवल मृत्यु होना पर्याप्त नहीं है, बल्कि अभियुक्त के मानसिक तत्व (mens rea) और कृत्य के प्रत्यक्ष संबंध को सिद्ध करना अनिवार्य है।
हाईकोर्ट की प्रमुख टिप्पणियाँ
गुजरात हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि—
- अभियोजन पक्ष के साक्ष्य—
- आपस में पूरी तरह मेल नहीं खाते,
- कई महत्वपूर्ण कड़ियाँ अनुपस्थित हैं;
- मृत्यु का कारण स्पष्ट और निर्विवाद रूप से अभियुक्त से नहीं जोड़ा जा सका;
- मेडिकल साक्ष्य और प्रत्यक्षदर्शी गवाहों के बयान अभियोजन की कहानी को पूर्ण रूप से समर्थन नहीं देते।
अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा—
“Conviction cannot rest on conjectures and surmises. The prosecution must stand on its own legs.”
परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर न्यायालय का दृष्टिकोण
हाईकोर्ट ने यह भी दोहराया कि—
- जब मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य (circumstantial evidence) पर आधारित हो,
- तब प्रत्येक कड़ी—
- पूरी तरह सिद्ध होनी चाहिए,
- और सभी कड़ियाँ मिलकर अभियुक्त की दोषसिद्धि की ओर ही संकेत करें।
यदि कोई भी वैकल्पिक संभावना (alternative hypothesis) शेष रह जाती है, तो—
संदेह का लाभ अभियुक्त को दिया जाना कानूनन अनिवार्य है।
ट्रायल कोर्ट की त्रुटियाँ
हाईकोर्ट के अनुसार ट्रायल कोर्ट ने—
- साक्ष्यों का सम्यक मूल्यांकन नहीं किया;
- कुछ तथ्यों को अनुमान के आधार पर स्वीकार किया;
- IPC की धारा 304 भाग-I के तत्वों को यांत्रिक रूप से लागू किया।
इस कारण ट्रायल कोर्ट का निर्णय कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं पाया गया।
अपीलीय न्यायालय की भूमिका
इस फैसले में अपीलीय न्यायालय की भूमिका को भी रेखांकित किया गया—
- अपील केवल औपचारिक प्रक्रिया नहीं है;
- यदि निचली अदालत का निर्णय—
- साक्ष्य के विपरीत हो,
- या गंभीर कानूनी त्रुटि से ग्रस्त हो,
तो उच्च न्यायालय का कर्तव्य है कि—
न्याय के हित में हस्तक्षेप करे।
वैवाहिक मृत्यु के मामलों में सावधानी
अदालत ने यह भी संकेत दिया कि—
- पत्नी की मृत्यु से जुड़े मामलों में भावनात्मक दबाव के कारण न्यायिक संतुलन बिगड़ना नहीं चाहिए;
- प्रत्येक वैवाहिक मृत्यु को स्वतः आपराधिक कृत्य नहीं माना जा सकता;
- अभियोजन को ठोस और विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे।
निर्णय का परिणाम
इन सभी कारणों से गुजरात हाईकोर्ट ने—
- ट्रायल कोर्ट का वर्ष 2002 का दोषसिद्धि आदेश रद्द कर दिया;
- अभियुक्त को IPC की धारा 304 भाग-I से दोषमुक्त (acquitted) कर दिया।
निर्णय का व्यापक प्रभाव
यह फैसला—
- आपराधिक मामलों में साक्ष्य के मानक को पुनः रेखांकित करता है;
- यह संदेश देता है कि—
“सिर्फ संदेह या नैतिक आक्रोश के आधार पर दंड नहीं दिया जा सकता।”
- ट्रायल कोर्ट्स को साक्ष्य के वैज्ञानिक और कानूनी मूल्यांकन के लिए सचेत करता है।
निष्कर्ष
State of Gujarat बनाम Ishwarji Sursanji Thakor में दिया गया यह निर्णय—
- भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र के मूल सिद्धांतों की पुनः पुष्टि करता है;
- यह स्थापित करता है कि दोषसिद्धि केवल ठोस प्रमाण पर ही आधारित होनी चाहिए;
- और यह याद दिलाता है कि संदेह का लाभ अभियुक्त का संवैधानिक अधिकार है।
यह फैसला आने वाले समय में IPC की धारा 304 से जुड़े मामलों में एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक नज़ीर (precedent) के रूप में उद्धृत किया जाएगा।