“शैक्षणिक शुल्क में अर्थहीन वृद्धि पर न्यायालय की प्रतिरक्षा: KSLU शुल्क वृद्धि पर Karnataka HC का निर्णय”
प्रस्तावना
शिक्षा की महत्ता आज के समय में जितनी है, उतनी ही उसकी पहुँच, लागत एवं नियमन भी सवालों के घेरे में हैं। जब किसी विश्वविद्यालय द्वारा छात्र-छात्राओं से शुल्क बढ़ाने की पहल की जाती है, तो यह देखने की आवश्यकता होती है कि क्या उस वृद्धि का आधार कानूनन पूरक है, क्या प्रक्रिया उचित हुई है, और क्या इससे छात्र-छात्राओं के अधिकारों पर आघात नहीं हो रहा। इस संदर्भ में जुलाई 2025 में KSLU द्वारा जारी ऐसा ही एक परिपत्र सुर्खियों में आया जिसमें अगले शैक्षणिक वर्ष (2025-26) हेतु शुल्क में वृद्धि की गई थी। इस पर वरिष्ठ छात्रों द्वारा प्रतिवादी व अन्य के रूप में याचिकाएँ दाखिल की गईं जो इस वृद्धि को विधि विरुद्ध बताते थे। अंततः Karnataka HC ने उस परिपत्र को रद्द कर दिया। इस लेख में हम उस निर्णय का विवरण, कारण-कारण, विधिक विश्लेषण और इसके सामाजिक-शैक्षणिक प्रभावों पर चर्चा करेंगे।
पृष्ठभूमि
द्वितीय-श्रेणी विश्वविद्यालयों और विधि-शिक्षा संस्थानों में शुल्क निर्धारण की प्रक्रिया अक्सर विवादित रही है। छात्र, अभिभावक और शिक्षक यह प्रश्न उठाते रहे हैं: विश्वविद्यालयों या महाविद्यालयों को शुल्क बढ़ाने का कितना अधिकार है? यदि अनुमति है, तो प्रक्रिया क्या होनी चाहिए? और यदि वह प्रक्रिया अनुपालन में नहीं है, तो क्या छात्र कानूनी रूप से चुनौती दे सकते हैं? इन प्रश्नों का समाधान इस प्रकार हुआ कि उच्च न्यायालयों ने बार-बार यह कहा है कि शुल्क किसी भी प्रकार से मनमाना नहीं हो सकता — उसे वैधानिक आधार, उचित प्रक्रिया, औचित्य और “वाज़िब सेवा-प्रदायगी” यानी quid pro quo (उचित प्रतिफल) का संबंध होना चाहिए।
KSLU, जिसमें राज्य-स्तर के कई कॉलेज और विधि-संस्थान संघबद्ध हैं, ने 2 जुलाई 2025 को एक परिपत्र (Circular No. KSLU/REG/ACAD/ADMN-FEE/2025-26/720) जारी किया जिसमें 2025-26 के लिए पंजीकरण एवं अन्य शुल्कों में उल्लेखनीय वृद्धि की गई थी। आगत शैक्षणिक वर्ष में पहले इस विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं से लगभग ₹3,700 शुल्क लिया जाता था। उक्त परिपत्र के बाद यह शुल्क धीरे-धीरे ₹ 8,580 कर दिया गया, अर्थात् करीब 128.8% की वृद्धि। इस वृद्धि पर छात्रों ने याचिका दाखिल की जिसमें कहा गया कि यह वृद्धि न केवल अचानक है, बल्कि बिना उपयुक्त वैधानिक ढाँचे के है, इसलिए अवैधानिक है।
मुद्दा
इस मामले का मूल प्रश्न है — क्या KSLU को इस तरह की शुल्क वृद्धि का अधिकार था, और यदि था भी, तो क्या उसने वह अधिकार विधि द्वारा पूर्व निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप उपयोग किया? अर्थात्:
- क्या विश्वविद्यालय के अधिनियम (Karnataka State Law University Act, 2009) में शुल्क वृद्धि का अधिकार स्पष्ट रूप से दिया गया था?
- यदि दिया गया था, तो क्या विश्वविद्यालय ने उसाधिकार का उपयोग करने से पूर्व ‘Statutes / Regulations / Ordinances’ बनाये थे, जैसा अधिनियम के अनुरूप होना चाहिए?
- क्या वृद्धि का प्रमाण है कि वह सेवा-प्रदायगी (quid pro quo) के अनुरूप थी — अर्थात् शुल्क वृद्धि से छात्रों को कौन-सी अतिरिक्त सुविधा/सेवा मिली?
- क्या फीस वृद्धि प्रक्रिया सार्वजनिक रूप से घोषित/संवादित की गई और छात्रों को समय दिया गया था?
- क्या विश्वविद्यालय ने फीस वृद्धि के पूर्व छात्रों को सूचना, विकल्प, सहमति या पुनरावलोकन का अवसर दिया था?
विधिक विश्लेषण
अधिनियम और कानूनी अधिकार
अधिनियम की धारा 5 में विश्वविद्यालय को ‘fees and other charges’ मांगने व प्राप्त करने का अधिकार दी गई है। लेकिन महत्वपूर्ण शर्त यह है कि यह अधिकार “subject to the provisions of the Act and such conditions as may be prescribed by the Statutes, Regulations and Ordinances.” अर्थात् केवल अधिनियम के आधार पर शुल्क नहीं लाये जा सकते — उन्हें अधिनियम द्वारा या उसके अंतर्गत बने नियम-विनियमों द्वारा संचालित होना चाहिए।
इसमें निम्न बिंदु स्पष्ट हैं:
- अधिकार तो अधिनियम ने दिया है, लेकिन उस अधिकार का उपयोग स्थानांतरण-निर्माण (delegation) के द्वारा नहीं बल्कि Statutes/Regulations/Ordinances द्वारा होना चाहिए।
- यदि विश्वविद्यालय ने समय-पूर्व कोई Statute/Regulation/Ordinance नहीं बनाया है जो शुल्क वृद्धि का प्रावधान करता हो, तो वह कार्रवाई अधिनियम के दायरे से बाहर मानी जाएगी।
- इस तरह यह मामला केवल “कानून है क्या?” के प्रश्न तक नहीं है बल्कि “क्या प्रक्रिया कानूनी ढाँचे के अनुरूप हुई?” वाला प्रश्न भी है।
शुल्क-वृद्धि और Article 265 का संबंध
भारतीय संविधान की धारा 265 के अंतर्गत कहा गया है कि “No tax shall be levied or collected except by authority of law.” हालांकि यह प्रावधान सीधे शुल्क-वृद्धि पर नहीं लिखा गया, न्यायालयों ने यह स्पष्ट किया है कि यदि किसी छात्र से शुल्क के रूप में धन लेना है, तो वह भी ‘कानूनी प्राधिकरण’ द्वारा होना चाहिए — अर्थात् शुल्क का लगाया जाना, वृद्धि या नया शुल्क निर्धारित होना, सिर्फ एक परिपत्र द्वारा किया जाना पर्याप्त नहीं है।
“Quid pro quo” सिद्धांत
शिक्षा-संस्थान द्वारा शुल्क वसूली के दौरान यह भी देखा जाता है कि क्या छात्रों को प्रति-मूल्य (consideration) के रूप में सेवा दी गयी है? यदि शुल्क में वृद्धि की गयी है, तो क्या उस सेवा-स्तर में समानुपातिक परिवर्तन किया गया? इस मामले में अदालत ने पाया कि परिपत्र में कोई विवरण नहीं था कि शुल्क वृद्धि के बदले छात्रों को कौन-सी अतिरिक्त सुविधा मिली, या किस प्रकार का सुधार हुआ।
न्यायाधीश के तर्क
न्यायमूर्ति आर. देवदास की पीठ ने सुनवाई के बाद निर्णय दिया कि:
- विश्वविद्यालय ने यह साबित नहीं किया कि उसने Statutes/Regulations/Ordinances बनाये हैं जो इस शुल्क वृद्धि को वैधानिक रूप से स्थापित करते हों।
- अधिनियम द्वारा प्रत्यक्ष रूप से शुल्क वृद्धि का अधिकार तो दिया गया है, लेकिन “ऐसे शुल्क या राशि जिसे कि may be prescribed by the Statutes” के प्रावधान को विश्वविद्यालय ने पूरा नहीं किया।
- इस तरह परिपत्र द्वारा अप्रत्याशित रूप से शुल्क वृद्धि करना, छात्रों पर अतिरिक्त बोझ डालना तथा बिना वैध ढाँचे के ऐसा करना — यह नियम-विरुद्ध एवं दुर्व्यवहारी है।
- इसलिए विश्वविद्यालय का 2 जुलाई 2025 का परिपत्र खारिज किया जाता है।
- अदालत ने यह निर्देश भी दिया कि छात्रों से वह राशि जो पुराने स्तर से अधिक वसूली गयी है, उसे वापस किया जाए — “excess fee collected … shall be refunded … within two months”.
निर्णय और उसके प्रमुख अंग
- परिपत्र दिनांक 02.07.2025 (Circular No. KSLU/REG/ACAD/ADMN-FEE/2025-26/720) खारिज किया गया।
- विश्वविद्यालय को निर्देश मिला कि पुराने शेष राशि से ऊपर वसूली गयी राशि को छात्रों को लौटाया जाए, भले ही वे याचिकाकर्ता न हों।
- विश्वविद्यालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि भविष्य में किसी भी शुल्क वृद्धि के लिए वैधानिक नियम (Statutes/Regulations/Ordinances) बनाये जाएँ और प्रक्रिया पारदर्शी हो।
- फैसला छात्रों के अधिकार की रक्षा का एक उदाहरण बन गया — यह स्पष्ट संकेत है कि शिक्षा-संस्थान भी कानून के दायरे में हैं और अधिनियम व नियम-विनियम को ताक में लेकर ही कार्य कर सकते हैं।
सामाजिक-शैक्षणिक प्रभाव
छात्रों व अभिभावकों के लिए राहत
इस निर्णय से Karnataka में KSLU-संघबद्ध कॉलेजों के छात्रों को बड़ी राहत मिली है। अचानक हुई शुल्क वृद्धि नवप्रवेशियों और चालू छात्रों के लिए वित्तीय बोझ का स्रोत बन रही थी। अब उन्हें पता चल गया कि यदि शुल्क में वृद्धि होने वाली है, तो उस पर कानूनी चेक मौजूद है।
विश्वविद्यालयों के लिए चेतावनी
यह निर्णय उन विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों के लिए आगाहि है जहाँ अक्सर शुल्क वृद्धि बिना पर्याप्त कारण या नियम-प्रक्रिया के कर दी जाती है। भविष्य में संस्थानों को:
- शुल्क तय करते समय छात्र-सेवाओं में सुधार को दर्शाना होगा (quid pro quo)
- शुल्क वृद्धि व सार्वजनिक घोषणा के लिए नियम/विनियम बनाना होंगे
- छात्रों/अभिभावकों को समय-पूर्व सूचना देनी होगी
शिक्षा-नीति व संचालन में सुधार
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में यह एक संकेत है कि शुल्क सिर्फ संस्थान की मर्जी से नहीं बढ़ाया जा सकता। नीति-निर्माताओं व नियामकों के लिए यह अवसर है कि वे “शुल्क निर्धारण, वृद्धि प्राधिकरण, छात्र-हित संरक्षण” जैसे विषयों पर अधिक स्पष्ट नीति-रेखा दें।
संभावित बहस-बिंदु एवं चिंताएं
- विश्वविद्यालय कहेंगे कि समय-गत वित्तीय चुनौतियों व संसाधन-अभाव के कारण शुल्क वृद्धि अपरिहार्य थी। हालांकि इस स्थिति में भी उन्हें नियम-अनुसार आगे बढ़ना चाहिए था।
- “Statutes/Regulations/Ordinances” बनाने में समय लगता है — क्या विश्वविद्यालय द्वारा इसे समयानुकूल नहीं बनाया गया, या इस प्रक्रिया में आलस्य दिखाया गया? यह प्रश्न उठता है।
- छात्र-सेवा में हुई वास्तविक वृद्धि (अगर थी) उसे स्पष्ट रूप से परिपत्र में दिखाना विश्वविद्यालय का दायित्व था। यदि यह नहीं किया गया, तो शुल्क वृद्धि को औचित्य देना कठिन होता है।
- अन्य विश्वविद्यालय-संस्थान इस निर्णय को देख शायद सावधानी अपनाएँगे, लेकिन यह भी अहम है कि वे पुनः प्रक्रिया-व्यवस्था तैयार करें ताकि इस तरह के विवाद भविष्य में न हों।
निष्कर्ष
शिक्षा-संस्था किसी भी शुल्क वसूल सकती है, लेकिन वह कानूनी ढाँचे और नियम-प्रक्रिया के भीतर ही होनी चाहिए। KSLU-मामले में इसे स्पष्ट रूप से नहीं किया गया — अधिनियम ने अधिकार दिया था, लेकिन उसके अंतर्गत नियम/विनियम नहीं बनाये गए थे, और शुल्क वृद्धि का समर्थन किसी सेवा-वृद्धि द्वारा नहीं दिखाया गया था। इसलिए Karnataka HC ने उस परिपत्र को रद्द कर दिया। यह निर्णय न केवल छात्रों के लिए बड़ा विजय-समय है, बल्कि सम्पूर्ण शैक्षणिक-प्रशासन के लिए अहम सीख भी।
शिक्षा-संस्थान अब यह जान गए हैं कि अन्यायपूर्ण शुल्क वृद्धि से सम्बन्धित कदम न्यायाधिकरणों द्वारा अवैध ठहर सकते हैं, और छात्रों को न्यायिक संरक्षण है। इस दृष्टि से यह मामला उच्च-शिक्षा संचालन, छात्र-हित सुरक्षा और विश्वविद्यालय-प्रशासनिक जवाबदेही के लिहाज़ से मील का पत्थर माना जा सकता है।