शून्य विवाह में भी पत्नी को मिलेगा भरण-पोषण का अधिकार — इलाहाबाद हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय
🔹 प्रस्तावना
भारतीय समाज में विवाह केवल सामाजिक संस्था नहीं, बल्कि एक कानूनी और नैतिक बंधन भी है। परंतु जब यह संबंध किसी कारणवश वैधानिक रूप से शून्य (Void) या शून्यकरणीय (Voidable) घोषित किया जाता है, तो इससे उत्पन्न अधिकारों और कर्तव्यों को लेकर अक्सर भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। विशेषकर यह प्रश्न कि क्या ऐसी स्थिति में महिला — जिसे “पत्नी” कहा जाता है — अपने भरण-पोषण का अधिकार खो देती है या नहीं, भारतीय न्याय व्यवस्था में लंबे समय से विवाद का विषय रहा है।
इसी संदर्भ में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने Sweta Jaiswal vs State of U.P. and Another (Criminal Revision No. 3893 of 2017) में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि यदि विवाह शून्यकरणीय (Voidable) भी हो, तब भी पत्नी को भरण-पोषण से वंचित नहीं किया जा सकता। यह फैसला न केवल महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि न्यायिक दृष्टिकोण को भी अधिक मानवीय और संवेदनशील बनाता है।
🔹 प्रकरण की पृष्ठभूमि
इस मामले में याचिकाकर्ता (पत्नी) स्वेता जायसवाल ने अपने पति से धारा 125 दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code, 1973) के तहत भरण-पोषण (maintenance) की मांग की थी। पति ने अदालत में यह तर्क दिया कि विवाह शून्यकरणीय (Voidable) है और इसलिए पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है।
पति का यह तर्क था कि चूंकि विवाह विधिक रूप से वैध नहीं था, इसलिए ऐसी महिला को “पत्नी” की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इस तर्क के आधार पर उसने भरण-पोषण देने से इनकार किया।
इस विवाद ने यह महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा किया कि —
“क्या शून्य या शून्यकरणीय विवाह में भी महिला को धारा 125 Cr.P.C. के तहत भरण-पोषण का अधिकार प्राप्त है?”
🔹 न्यायालय का दृष्टिकोण
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने विस्तृत निर्णय में कहा कि —
“भले ही विवाह शून्यकरणीय (Voidable) हो, लेकिन जब तक उसे किसी सक्षम न्यायालय द्वारा शून्य घोषित नहीं किया जाता, तब तक वह विवाह वैध माना जाएगा और पत्नी भरण-पोषण की पात्र होगी।”
अदालत ने यह भी कहा कि धारा 125 Cr.P.C. का उद्देश्य केवल वैधानिक विवाहों की रक्षा करना नहीं है, बल्कि यह कानून उस महिला को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए बना है जो किसी पुरुष पर निर्भर रही हो, चाहे विवाह वैध हो या बाद में शून्य घोषित कर दिया गया हो।
🔹 धारा 125 Cr.P.C. का उद्देश्य
धारा 125 Cr.P.C. भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की एक सामाजिक कल्याणकारी धारा है। इसका मूल उद्देश्य है —
“ऐसे व्यक्ति को आर्थिक सहायता प्रदान करना जो स्वयं अपने जीवन-निर्वाह के लिए असमर्थ है।”
यह प्रावधान केवल “पत्नी” तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें बच्चों, माता-पिता, और परित्यक्ता स्त्रियों को भी शामिल किया गया है।
अदालतों ने बार-बार यह कहा है कि इस धारा की व्याख्या मानवीयता और न्याय की भावना के अनुरूप की जानी चाहिए, न कि केवल तकनीकी कानूनी व्याख्या के अनुसार।
🔹 विवाह की वैधता और भरण-पोषण का अधिकार
विवाह को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है —
- वैध (Valid Marriage): सभी कानूनी शर्तें पूरी होने पर।
- शून्य (Void Marriage): जो विवाह प्रारंभ से ही अमान्य है, जैसे किसी व्यक्ति का पहले से विवाहित होना।
- शून्यकरणीय (Voidable Marriage): जो प्रारंभ में वैध होता है, लेकिन बाद में किसी कारणवश अमान्य घोषित किया जा सकता है (जैसे सहमति में धोखा, मानसिक अक्षमता आदि)।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि जब तक विवाह को न्यायालय द्वारा शून्य घोषित नहीं किया जाता, तब तक वह कानूनी रूप से विद्यमान माना जाएगा। अतः ऐसी स्थिति में पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार नकारा नहीं जा सकता।
🔹 पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांत
इस निर्णय में हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट और अन्य उच्च न्यायालयों के कई महत्वपूर्ण निर्णयों का भी उल्लेख किया।
- Savitaben Somabhai Bhatiya v. State of Gujarat (2005) 3 SCC 636:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि धारा 125 Cr.P.C. का उद्देश्य भूख और बेघरपन से रक्षा करना है। यदि किसी महिला ने “सद्भावनापूर्वक” विवाह किया है, तो वह भरण-पोषण की हकदार होगी। - Chanmuniya v. Virendra Kumar Singh Kushwaha (2011) 1 SCC 141:
इसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि यदि एक महिला ने “वैवाहिक जीवन” में रहकर पति के साथ रहन-सहन किया है, तो भले ही विवाह विधिक रूप से पूर्ण न हो, फिर भी उसे भरण-पोषण का अधिकार मिलेगा। - Badshah v. Urmila Badshah Godse (2014) 1 SCC 188:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “कानून की व्याख्या करते समय न्यायालय को मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, न कि तकनीकी कानूनी पेचीदगियों के आधार पर।”
इन सभी मामलों का सार यही था कि —
“भरण-पोषण का अधिकार किसी महिला के अस्तित्व से जुड़ा मौलिक अधिकार है, जिसे केवल विवाह की वैधता पर निर्भर नहीं किया जा सकता।”
🔹 इलाहाबाद हाईकोर्ट का तर्क
कोर्ट ने कहा कि धारा 125 Cr.P.C. का दायरा इतना व्यापक है कि इसका उद्देश्य किसी महिला को दंडित करना नहीं, बल्कि उसकी गरिमा और जीवन के अधिकार की रक्षा करना है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि —
“भले ही विवाह शून्य या शून्यकरणीय हो, परंतु यदि महिला ने ईमानदारी और सद्भावना के साथ विवाह किया है, तो उसे भरण-पोषण का अधिकार मिलेगा। अन्यथा यह पुरुषों के लिए एक अनुचित संरक्षण बन जाएगा।”
अर्थात, यदि एक महिला ने यह विश्वास करते हुए विवाह किया कि वह वैध है, तो बाद में विवाह की वैधता पर प्रश्न उठने से उसके अधिकार समाप्त नहीं होंगे।
🔹 निर्णय का सामाजिक प्रभाव
यह निर्णय समाज में महिलाओं के अधिकारों को मजबूत करता है। भारत में अब भी बड़ी संख्या में महिलाएं ऐसी स्थिति में होती हैं जहाँ पति विवाह को शून्य घोषित कराकर उन्हें आर्थिक रूप से असहाय छोड़ देता है।
इस निर्णय से यह स्पष्ट संदेश गया है कि —
“कानून किसी महिला को उसकी सद्भावनापूर्ण गलती या किसी पुरुष की कपटपूर्ण हरकत का दंड नहीं देगा।”
यह फैसला महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा, सामाजिक गरिमा और आत्मसम्मान की दिशा में एक बड़ा कदम है।
🔹 संवैधानिक दृष्टिकोण
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का अधिकार केवल जीवित रहने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय अनुच्छेद 21 की भावना के अनुरूप है, क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि किसी महिला को केवल तकनीकी कानूनी कारणों से भरण-पोषण से वंचित न किया जाए।
इसके अलावा, अनुच्छेद 15(3) संविधान को महिलाओं और बच्चों के हित में विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति देता है। इस प्रकार धारा 125 Cr.P.C. और उसका यह न्यायिक विस्तार संविधान के इस उद्देश्य के अनुरूप है।
🔹 नारी न्यायशास्त्र की दृष्टि से विश्लेषण
नारीवादी न्यायशास्त्र (Feminist Jurisprudence) का एक प्रमुख सिद्धांत है कि कानून को केवल पुरुष दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि लिंग-संवेदनशील तरीके से देखा जाए।
इस मामले में हाईकोर्ट ने यही किया —
- उसने कानून की भाषा से अधिक उसके उद्देश्य पर ध्यान दिया,
- उसने महिला की आर्थिक निर्भरता और सामाजिक असुरक्षा को ध्यान में रखा,
- और अंततः उसने यह सुनिश्चित किया कि न्याय का पालन हो, न कि केवल विधि का।
🔹 व्यवहारिक उदाहरण
मान लीजिए, एक महिला किसी व्यक्ति से विवाह करती है, यह मानते हुए कि वह अविवाहित है। बाद में पता चलता है कि वह पहले से विवाहित था — ऐसा विवाह “शून्य” कहलाएगा।
अब यदि महिला को भरण-पोषण से वंचित कर दिया जाए, तो वह न केवल आर्थिक रूप से असहाय हो जाएगी, बल्कि यह पुरुष को अपने धोखे का लाभ देने जैसा होगा।
इसलिए, न्यायालय का यह दृष्टिकोण आवश्यक था कि ऐसे मामलों में “सद्भावनापूर्वक विवाह करने वाली” महिला को भरण-पोषण का अधिकार मिलना चाहिए।
🔹 भविष्य के लिए दिशा-निर्देश
यह फैसला भविष्य में निचली अदालतों को यह मार्गदर्शन देगा कि —
- भरण-पोषण के मामलों में कानूनी तकनीकीताओं पर नहीं, बल्कि न्याय और मानवीयता पर ध्यान दिया जाए।
- यदि महिला ने ईमानदारी से विवाह किया है, तो उसे भरण-पोषण देने से इनकार नहीं किया जा सकता।
- धारा 125 Cr.P.C. की व्याख्या संविधान की भावना और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप की जाए।
🔹 निष्कर्ष
Sweta Jaiswal vs State of U.P. and Another का निर्णय भारतीय न्यायपालिका की उस प्रगतिशील सोच का उदाहरण है जो महिलाओं के अधिकारों को केवल कानूनी औपचारिकता नहीं, बल्कि मानवाधिकार के रूप में देखती है।
यह फैसला यह संदेश देता है कि —
“भले ही विवाह शून्य या शून्यकरणीय हो, लेकिन महिला की गरिमा, आत्मसम्मान और जीवन का अधिकार सर्वोपरि है।”
धारा 125 Cr.P.C. का उद्देश्य भूख मिटाना, असहायता से बचाना और समाज में समानता स्थापित करना है। इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला इसी उद्देश्य को साकार करता है और न्याय को मानवीयता के साथ जोड़ता है।
🔸 सार रूप में कहा जाए तो —
“शून्य विवाह में भी पत्नी को मिलेगा भरण-पोषण का अधिकार, क्योंकि न्याय का उद्देश्य केवल वैधानिकता नहीं, बल्कि मानवीय गरिमा की रक्षा है।”