“शून्य या शून्यकरणीय विवाहों में भी वैवाहिक भरण-पोषण की अनुमति: सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 25 हिन्दू विवाह अधिनियम की विवेकाधीन शक्ति की पुनः पुष्टि”

शीर्षक: “शून्य या शून्यकरणीय विवाहों में भी वैवाहिक भरण-पोषण की अनुमति: सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 25 हिन्दू विवाह अधिनियम की विवेकाधीन शक्ति की पुनः पुष्टि”


परिचय:

सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में दिए गए एक ऐतिहासिक निर्णय में यह स्पष्ट किया गया है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25 के अंतर्गत स्थायी भरण-पोषण (permanent alimony) का दावा शून्य (void) या शून्यकरणीय (voidable) विवाह में भी किया जा सकता है। यह निर्णय विवाह के वैधानिक वैधता से परे जाकर नैतिक और समतामूलक सिद्धांतों को मान्यता देता है और विशेषकर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है।


मामले की पृष्ठभूमि:

  • याचिकाकर्ता ने स्थायी भरण-पोषण की मांग की थी, जबकि विवाह को अदालत ने शून्य घोषित कर दिया था (Section 11 of Hindu Marriage Act के अंतर्गत)।
  • निचली अदालतों में यह विवाद रहा कि क्या जब विवाह विधिक रूप से अमान्य है, तब भी भरण-पोषण की मांग वैध मानी जा सकती है।
  • मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, जहां हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25, संविधान के अनुच्छेद 15(3) और 21, तथा भरण-पोषण से संबंधित अन्य कानूनों (जैसे CrPC की धारा 125) के आलोक में इस पर विस्तृत विचार किया गया।

सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण:

  1. धारा 25 की विवेकाधीन प्रकृति:
    • कोर्ट ने दोहराया कि धारा 25 के तहत स्थायी भरण-पोषण का अनुदान न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति है और यह मात्र विवाह की वैधता पर आधारित नहीं है
    • यदि विवाह शून्य या शून्यकरणीय हो, तब भी, यदि न्यायिक और नैतिक आवश्यकताएं पूरी होती हैं, तो भरण-पोषण प्रदान किया जा सकता है।
  2. संवैधानिक और नैतिक सिद्धांतों की भूमिका:
    • अनुच्छेद 15(3) (राज्य द्वारा महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान की अनुमति) तथा अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का हवाला देते हुए कोर्ट ने माना कि न्यायिक संरक्षण और समानता के सिद्धांत ऐसे मामलों में लागू होते हैं।
    • विवाह चाहे वैध न रहा हो, परंतु यदि कोई पक्षकार उस रिश्ते में आश्रित रहा है, तो उन्हें असुरक्षित नहीं छोड़ा जा सकता।
  3. न्यायिक संतुलन एवं विवेक का उपयोग:
    • कोर्ट ने स्पष्ट किया कि प्रत्येक मामला उसके तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर तय किया जाएगा।
    • भरण-पोषण का दावा करते समय, दावा करने वाले पक्ष की आचरण और परिस्थितियाँ न्यायालय के विवेक पर निर्णायक प्रभाव डालेंगी।
  4. भरण-पोषण का उद्देश्य:
    • यह निर्णय धारा 24 (pendente lite maintenance) और CrPC की धारा 125 से जुड़ी समान अवधारणाओं को भी स्वीकार करता है, जहाँ विवाह की वैधता से इतर भी जीवन निर्वाह हेतु सहायता देने का उद्देश्य प्रमुख है।

प्रभाव और महत्व:

  • यह निर्णय महिलाओं की सुरक्षा और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में मील का पत्थर है, विशेषकर उन परिस्थितियों में जहां महिलाएं धोखे या अन्यायपूर्ण विवाह में फंस जाती हैं।
  • यह एक स्पष्ट संदेश देता है कि विधिक तकनीकीताओं के माध्यम से न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता
  • साथ ही, यह न्यायालयों को यह अधिकार देता है कि वे नैतिक और समतामूलक सिद्धांतों के आधार पर न्यायसंगत आदेश दे सकें

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता और विधिक संवेदनशीलता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह स्थापित करता है कि न्याय केवल कानूनी वैधता तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि उसमें नैतिक दायित्व और मानवीय दृष्टिकोण को भी समाहित किया जाना चाहिए। यह फैसला भविष्य में ऐसे अनेक मामलों में मार्गदर्शन करेगा जहां विवाह भले ही शून्य घोषित हो जाए, परंतु उसमें आश्रित व्यक्ति को न्याय की पूर्ण प्राप्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए।