शीर्षक: सत्र न्यायालय में आरोप गठन की प्रक्रिया: धारा 228 CrPC बनाम धारा 251 BNSS का तुलनात्मक विश्लेषण

लेख शीर्षक: सत्र न्यायालय में आरोप गठन की प्रक्रिया: धारा 228 CrPC बनाम धारा 251 BNSS का तुलनात्मक विश्लेषण


🔷 प्रस्तावना:

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 और भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita – BNSS), 2023 दोनों में आरोप गठन (Framing of Charge) की प्रक्रिया का विस्तृत प्रावधान है। सत्र न्यायालय में आरोप गठन की प्रक्रिया विशेष रूप से गंभीर अपराधों से संबंधित होती है, जो न्याय की निष्पक्षता और आरोपी के अधिकारों की रक्षा हेतु अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।

यह लेख CrPC की धारा 228 और BNSS की धारा 251 के अंतर्गत आरोप गठन की प्रक्रिया, उनके बीच के अंतर, न्यायिक निर्णयों और व्यावहारिक दृष्टिकोण का समग्र विश्लेषण प्रस्तुत करता है।


🔷 1. सत्र न्यायालय में आरोप गठन की प्रक्रिया (Framing of Charge in Sessions Court)

📌 प्रावधान: धारा 228 CrPC / धारा 251 BNSS

मूल उद्देश्य:

सत्र न्यायालय में आरोप गठन का उद्देश्य यह निर्धारित करना है कि अभियुक्त के विरुद्ध कौन-कौन से आरोप गंभीरता से विचारणीय हैं, जिससे मुकदमा प्रारंभ किया जा सके।

प्रक्रिया:

  1. पुलिस रिपोर्ट या समन्वय जांच (Committal Proceedings) के उपरांत, यदि न्यायालय यह माने कि:
    • अपराध सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है,
    • और अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला बनता है,
  2. तब सत्र न्यायालय धारा 228 CrPC या धारा 251 BNSS के अंतर्गत आरोप निर्धारित करता है।
  3. न्यायालय दो स्थितियों में निर्णय ले सकता है:
    • यदि मामला स्पष्ट रूप से नहीं बनता, तो अभियुक्त को discharge किया जाता है।
    • यदि प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो आरोप framed किए जाते हैं और अभियुक्त से पूछताछ की जाती है कि वह दोषी है या नहीं।

🔷 2. धारा 228 CrPC और धारा 251 BNSS का तुलनात्मक विश्लेषण

बिंदु धारा 228 CrPC, 1973 धारा 251 BNSS, 2023
📜 शीर्षक सत्र न्यायालय में आरोप सत्र न्यायालय में आरोप
🔍 प्रकृति प्रक्रिया निर्धारित करता है यदि मामला सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय हो वही प्रक्रिया यथावत बनी है
📂 संरचना दो भाग: (1) discharge (2) frame of charge संरचना में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं
⚖️ कानूनी शब्द “Shall frame charge” “Shall frame charge” (शब्दावली समान)
🔄 प्रमुख बदलाव कोई बड़ा बदलाव नहीं भाषा में सरलता, डिजिटल प्रक्रिया को प्राथमिकता
📌 नोट 2023 अधिनियम ने CrPC की अधिकांश धाराओं को स्थानांतरित कर BNSS में सम्मिलित किया है CrPC धारा 228 को अब BNSS में धारा 251 के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है

👉 निष्कर्ष: CrPC 228 और BNSS 251 में तकनीकी भाषा और संरचना के अतिरिक्त कोई महत्वपूर्ण सार्थक परिवर्तन नहीं किया गया है।


🔷 3. महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय (Landmark Judgments)

Kanti Bhadra Shah v. State of West Bengal (2000) 1 SCC 722

उच्चतम न्यायालय का कथन:

आरोप गठन करते समय न्यायालय को विस्तृत कारण देने की आवश्यकता नहीं है। यदि प्रथम दृष्टया मामला बनता है तो आरोप तय किया जा सकता है।

State of Bihar v. Ramesh Singh (1977) 4 SCC 39

मूल सिद्धांत:

आरोप तय करने के लिए यह देखना है कि अभियुक्त के विरुद्ध क्या प्रथम दृष्टया मामला बनता है, न कि अभियोजन का पूरा सबूत।

Union of India v. Prafulla Kumar Samal (1979) 3 SCC 4

महत्व:

आरोप गठन का स्तर discharge से अधिक है, परंतु दोषसिद्धि के स्तर से कम।

State v. S. Bangarappa (2001) 1 SCC 369

आरोप गठन केवल इस आधार पर नहीं रोका जा सकता कि आरोपी बाद में दोषमुक्त हो सकता है।


🔷 4. व्यावहारिक दृष्टिकोण से प्रक्रिया

  1. जांच रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद मजिस्ट्रेट सत्र न्यायालय को मामला संप्रेषित करता है।
  2. सत्र न्यायालय प्रथम सुनवाई पर यह जांचता है कि आरोप तय करने की स्थिति है या discharge किया जाए।
  3. यदि आरोप तय होते हैं:
    • अभियुक्त से पूछा जाता है कि वह आरोपों को स्वीकार करता है या नहीं।
    • यदि नहीं, तो मुकदमा प्रारंभ होता है।

🔷 5. निष्कर्ष (Conclusion)

CrPC की धारा 228 और BNSS की धारा 251 दोनों ही भारतीय आपराधिक प्रक्रिया में आरोप गठन की महत्वपूर्ण विधिक व्यवस्था हैं, विशेषकर सत्र न्यायालयों में गंभीर अपराधों के विचारण हेतु।
जहाँ BNSS ने तकनीकी सुधार किए हैं, वहीं आरोप गठन का सारभूत तत्व और न्यायिक दृष्टिकोण अपरिवर्तित बना हुआ है। न्यायालयों के अनेक निर्णय इस बात पर बल देते हैं कि आरोप गठन एक प्रारंभिक मूल्यांकन है, न कि दोषसिद्धि का निर्णय।