शीर्षक: “कार्यात्मक अपंगता के लिए मुआवजा: सुप्रीम कोर्ट का व्यावहारिक एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण – कमल देव प्रसाद बनाम महेश फोर्ज”

“कार्यात्मक अपंगता के लिए मुआवजा: सुप्रीम कोर्ट का व्यावहारिक एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण – कमल देव प्रसाद बनाम महेश फोर्ज”

भूमिका:
सुप्रीम कोर्ट ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि जब कार्यात्मक अपंगता (Functional Disability) के लिए मुआवजे की गणना की जाती है, तो न्यायालयों को Employees’ Compensation Act, 1923 की अनुसूची (Schedule) तक सीमित रहने की आवश्यकता नहीं है। यह निर्णय न केवल मज़दूरों के अधिकारों को मज़बूत करता है, बल्कि एक अधिक मानवीय और व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपनाने पर भी बल देता है।


मामले की पृष्ठभूमि:
कमल देव प्रसाद एक श्रमिक थे, जो महेश फोर्ज में कार्यरत थे। एक दुर्घटना में उन्हें गंभीर चोट आई जिससे वे आंशिक रूप से कार्य करने में अक्षम हो गए। उन्होंने कार्यात्मक अपंगता के आधार पर मुआवजे की मांग की। निचली अदालतों ने Employees’ Compensation Act, 1923 की अनुसूची के अनुसार मुआवजे की सीमा निर्धारित करते हुए उनकी मांग को आंशिक रूप से मान्यता दी।


सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण और निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों की संकीर्ण व्याख्या को अस्वीकार करते हुए निम्नलिखित महत्वपूर्ण बातें स्पष्ट कीं:

1. कार्यात्मक अपंगता बनाम चिकित्सीय अपंगता:

कोर्ट ने कहा कि अपंगता के दो भिन्न पहलू होते हैं:

  • चिकित्सीय अपंगता (Medical Disability): यह शरीर के किसी हिस्से की शारीरिक क्षति को दर्शाता है।
  • कार्यात्मक अपंगता (Functional Disability): यह उस क्षति के परिणामस्वरूप व्यक्ति की कार्य-क्षमता में आई कमी को दर्शाता है।

यदि किसी कामगार की शरीर में 30% अपंगता है, लेकिन वह अब अपने पूर्ववर्ती कार्य को पूरी तरह नहीं कर सकता, तो कार्यात्मक अपंगता 100% मानी जा सकती है।


2. मुआवजे की गणना में लचीलापन आवश्यक:

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायालयों को मुआवजे की गणना करते समय अनुसूची II या अनुसूची I में दी गई प्रतिशत सीमाओं से बाध्य नहीं होना चाहिए, खासकर जब यह कार्यात्मक अपंगता की वास्तविक स्थिति को प्रतिबिंबित नहीं करता। न्यायालय को वास्तविक परिस्थितियों, काम की प्रकृति, और अपंगता के प्रभाव का समग्र मूल्यांकन करना चाहिए।


3. समानता और न्याय के सिद्धांतों पर बल:

यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) की व्याख्या के संदर्भ में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। न्यायालय ने कहा कि यदि अपंगता के चलते कोई व्यक्ति अपनी जीविका नहीं कमा सकता, तो उस व्यक्ति को सीमित मुआवजे तक सीमित करना उनके जीवन के अधिकार का हनन होगा।


न्यायिक दृष्टिकोण का महत्व:

  • यह निर्णय मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।
  • यह अदालतों को व्यावहारिक न्याय (pragmatic justice) करने का अवसर देता है न कि केवल कानून की अनुसूची तक सीमित रहने का।
  • यह निर्णय उन व्यक्तियों के लिए आशा की किरण है जो दुर्घटनाओं के कारण अपने कार्यक्षमता से वंचित हो जाते हैं, भले ही शारीरिक रूप से पूरी तरह अक्षम न हों।

निष्कर्ष:
कमल देव प्रसाद बनाम महेश फोर्ज का यह ऐतिहासिक निर्णय बताता है कि भारतीय न्यायपालिका अब मज़दूरों और श्रमिकों की वास्तविक परिस्थितियों को समझने और उनके अनुसार न्याय देने की दिशा में अग्रसर है। यह निर्णय एक सशक्त उदाहरण है कि किस प्रकार कानून की व्याख्या करते हुए न्यायालय सामाजिक यथार्थ को स्वीकार कर रही है और केवल कानूनी शब्दों की शाब्दिक व्याख्या तक सीमित नहीं रहना चाहती।

यह फैसला न केवल भारत के लाखों श्रमिकों को न्याय दिलाने में मदद करेगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा कि कोई भी व्यक्ति अपनी कार्यक्षमता खोने के बाद दोहरे नुकसान—एक आर्थिक और दूसरा कानूनी—का शिकार न हो।