“शिक्षा का अधिकार बनाम न्यायिक दंड: सुप्रीम कोर्ट में ‘मुरली जय गणेश बनाम आंध्र प्रदेश राज्य’ मामला – हत्या के दोषी को परीक्षा देने हेतु 17 दिन की अंतरिम जमानत”
प्रस्तावना:
भारतीय न्यायपालिका का प्रमुख उद्देश्य न केवल अपराध को दंडित करना है, बल्कि संविधान में निहित मौलिक अधिकारों की रक्षा करना भी है। “मुरली जय गणेश बनाम आंध्र प्रदेश राज्य” मामला इसी संतुलन का जीवंत उदाहरण है, जिसमें आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक हत्या के दोषी को शिक्षा के अधिकार की रक्षा करते हुए उसकी अंतिम सेमेस्टर परीक्षा में भाग लेने हेतु 17 दिन की अंतरिम जमानत प्रदान की। इस निर्णय से यह प्रश्न उभरता है कि क्या शिक्षा का अधिकार दंड प्रक्रिया से ऊपर हो सकता है, और न्यायालय किन परिस्थितियों में दंड भुगत रहे कैदी को यह छूट देता है।
मामले का संक्षिप्त विवरण:
मुरली जय गणेश नामक व्यक्ति को हत्या के एक मामले में दोषी ठहराया गया और वह वर्तमान में सजा भुगत रहा है। इसके साथ ही, वह एक पांच वर्षीय बी.कॉम एल.एल.बी पाठ्यक्रम का छात्र भी है और अंतिम सेमेस्टर की परीक्षा में बैठना उसके भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसी पृष्ठभूमि में, उसने अदालत से यह अनुरोध किया कि उसे अस्थायी रूप से जेल से रिहा किया जाए ताकि वह अपनी परीक्षा दे सके।
उच्च न्यायालय का निर्णय:
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अभियुक्त को 17 दिनों की अंतरिम जमानत दी जाए, ताकि वह अपनी फाइनल सेमेस्टर की परीक्षा में सम्मिलित हो सके। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह रियायत केवल एक छात्र के शैक्षणिक हितों को ध्यान में रखते हुए दी गई है, और इसका उद्देश्य शिक्षा को प्रोत्साहित करना है, न कि दोषी को सजा से राहत देना।
कानूनी दृष्टिकोण:
1. शिक्षा का अधिकार – अनुच्छेद 21A एवं 21
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21A के अंतर्गत 6-14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को शिक्षा का मूल अधिकार दिया गया है, परंतु अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का व्यापक व्याख्या यह सुनिश्चित करता है कि शिक्षा का अधिकार एक वयस्क व्यक्ति के लिए भी मौलिक स्वतंत्रता का हिस्सा है।
सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में कहा है कि मानव गरिमा और व्यक्तिगत विकास के लिए शिक्षा आवश्यक है। एक दोषी भी जब तक सजा का पालन कर रहा है, तब तक वह शिक्षा प्राप्त करने से वंचित नहीं किया जा सकता।
2. सजा के दौरान अधिकारों की सीमाएँ:
भारतीय दंड संहिता और कारागार नियमों के अनुसार, एक सजायाफ्ता कैदी अपने कई नागरिक अधिकारों से वंचित होता है, परंतु उसे मानवाधिकार, स्वास्थ्य, न्यायिक अपील, और शिक्षा का अधिकार अब भी सुरक्षित होता है। यह विचार भी सामने आया है कि पुनर्वास (Rehabilitation) और सुधार (Reformation) ही सजा की प्रक्रिया का लक्ष्य होना चाहिए।
न्यायालय की व्यावहारिक दृष्टिकोण:
उच्च न्यायालय ने इस मामले में एक संतुलित रुख अपनाया। उसने यह नहीं कहा कि अपराधी को सजा से छूट दी जा रही है, बल्कि यह कहा कि वह अपनी परीक्षा पूरी कर सके, जिससे उसके भविष्य में पुनर्वास की संभावना बनी रहे। न्यायालय ने यह भी सुनिश्चित किया कि इस अंतरिम जमानत की अवधि सिर्फ परीक्षा तक ही सीमित हो और उस दौरान अभियुक्त किसी आपराधिक गतिविधि में लिप्त न हो।
इस निर्णय की न्यायिक विशेषताएँ:
- सुधारवादी सिद्धांत की स्वीकारोक्ति:
यह निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि भारतीय दंड व्यवस्था अब दमनात्मक नहीं, बल्कि सुधारात्मक (Reformative) दृष्टिकोण को स्वीकार कर रही है। - न्यायिक विवेक का प्रयोग:
अदालत ने अभियुक्त की परीक्षा को न केवल एक शैक्षणिक आवश्यकता माना, बल्कि भविष्य में उसके समाज में पुनः समायोजन की संभावना भी देखी। - अंतरिम राहत का सीमित उद्देश्य:
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह अंतरिम जमानत स्थायी राहत नहीं है और दोषसिद्धि पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
विरोध के संभावित तर्क:
कुछ आलोचकों का मत है कि हत्या जैसे गंभीर अपराध में दोषी को किसी भी प्रकार की छूट देना, न्याय की गंभीरता को कम करता है। यदि हर सजायाफ्ता अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर अस्थायी राहत मांगे, तो यह न्यायिक प्रक्रिया की दृढ़ता को कमजोर कर सकता है।
किन्तु, यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिक्षा के माध्यम से अपराधी में सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है, जिससे वह समाज में पुनः स्वीकार्य बन सके।
सुप्रीम कोर्ट की संभावना:
हालाँकि यह आदेश उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया है, लेकिन यह संभावना बनी हुई है कि राज्य या अन्य संबंधित पक्ष इस अंतरिम जमानत को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दें। उस स्थिति में शीर्ष न्यायालय को यह तय करना होगा कि शिक्षा का अधिकार कितनी सीमा तक सजायाफ्ता व्यक्तियों को दिया जाना चाहिए, और किन परिस्थितियों में यह न्यायसंगत है।
निष्कर्ष:
“मुरली जय गणेश बनाम आंध्र प्रदेश राज्य” का यह मामला भारतीय न्यायपालिका की संवेदनशीलता, मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता, और शिक्षा की सर्वोच्चता को रेखांकित करता है। यह निर्णय यह दिखाता है कि दंड और सुधार, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। सजायाफ्ता व्यक्ति को सुधारने और पुनर्वासित करने के लिए शिक्षा एक शक्तिशाली साधन हो सकती है।
इसलिए, जब तक यह स्पष्ट रूप से साबित न हो कि यह छूट सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरा है, तब तक शिक्षा प्राप्त करने के लिए दोषियों को अस्थायी रूप से रिहा करना भारतीय संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप है।