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व्यक्तिगत स्वतंत्रता और महिला की स्वायत्तता पर बॉम्बे हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय — वयस्क महिला के जीवनसाथी चुनने के अधिकार को संवैधानिक मान्यता

व्यक्तिगत स्वतंत्रता और महिला की स्वायत्तता पर बॉम्बे हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय — वयस्क महिला के जीवनसाथी चुनने के अधिकार को संवैधानिक मान्यता

प्रस्तावना:
भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। अनुच्छेद 21 इस स्वतंत्रता की आत्मा है, जिसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा के विरुद्ध जीवन जीने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण और संवेदनशील मामले में इसी संवैधानिक सिद्धांत को पुनः पुष्ट किया है। यह निर्णय न केवल महिला की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रतीक है, बल्कि समाज में प्रचलित पारिवारिक और धार्मिक दबावों के विरुद्ध न्यायपालिका की दृढ़ भूमिका को भी दर्शाता है।


मामले की पृष्ठभूमि

मामला एक 31 वर्षीय महिला से संबंधित था जिसने अपनी स्वतंत्र इच्छा से एक अन्य धर्म के व्यक्ति के साथ रहने का निर्णय लिया था। यह निर्णय उसके परिवार, विशेषकर उसके पिता, को स्वीकार्य नहीं था। पिता ने यह दावा करते हुए हैबियस कॉर्पस याचिका (Habeas Corpus Petition) दायर की कि उनकी बेटी “लापता” है और संभवतः उसे बहकाया गया है या जबरदस्ती उसके साथ रखा गया है।

मामला बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति सरंग कोतवाल और न्यायमूर्ति श्याम चंदक की खंडपीठ के समक्ष आया। प्रारंभिक सुनवाई में कोर्ट ने महिला का वीडियो बयान देखा, परंतु पिता की ओर से लगाए गए “बलपूर्वक या दबाव में होने” के आरोपों को ध्यान में रखते हुए अदालत ने पुलिस को निर्देश दिया कि महिला को व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश किया जाए, ताकि उसकी इच्छा की वास्तविकता का सत्यापन किया जा सके।


महिला का बयान और अदालत में पेशी

जब महिला अदालत के समक्ष पेश हुई, तब न्यायालय ने उससे इन-कैमरा (गोपनीय) साक्षात्कार लिया ताकि वह स्वतंत्र रूप से अपनी बात रख सके। महिला ने स्पष्ट रूप से बताया कि:

  • वह 31 वर्ष की वयस्क है,
  • संपूर्ण रूप से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर है,
  • एक निजी कंपनी में कार्यरत है और अपनी जीविका कमा रही है,
  • और उसने अपनी स्वतंत्र इच्छा से एक अन्य धर्म के पुरुष से विवाह करने का निर्णय लिया है।

महिला ने यह भी बताया कि वह तीन महीने की गर्भवती है और उसके माता-पिता उसके विवाह का विरोध कर रहे हैं। पिता ने न केवल विवाह रोकने की कोशिश की बल्कि उसे वापस घर लाने का प्रयास भी किया।


अदालत का निर्णय: व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोपरि

अदालत ने अपने निर्णय में कहा:

“वह वयस्क है। उसे अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार है। वह किसी के अधीन नहीं है और अपनी इच्छा से जीवनयापन कर सकती है।”

यह कथन केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 का जीवंत उदाहरण है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि जब कोई व्यक्ति वयस्क हो जाता है, तो उसके निर्णय—चाहे वह जीवनसाथी के चयन से संबंधित हों या निवास स्थान से—को परिवार या समाज के किसी दबाव से बाध्य नहीं किया जा सकता।


संविधानिक दृष्टिकोण

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। “जीवन” का अर्थ केवल शारीरिक अस्तित्व नहीं, बल्कि गरिमा, स्वतंत्रता और स्वायत्तता से जीने का अधिकार भी है।

इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 19(1)(d) और 19(1)(e) के तहत व्यक्ति को देश के भीतर कहीं भी आवागमन और निवास की स्वतंत्रता दी गई है। इन संवैधानिक अधिकारों को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने कहा कि किसी वयस्क महिला को यह अधिकार है कि वह अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ कहीं भी रह सके, चाहे वह व्यक्ति किसी भी धर्म, जाति या सामाजिक वर्ग से क्यों न हो।


परिवार और समाज की भूमिका पर टिप्पणी

अदालत ने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि महिला और उसके पिता के बीच संबंध अत्यंत तनावपूर्ण हो गए हैं। अदालत के समक्ष जब दोनों का सामना हुआ, तो उन्होंने एक-दूसरे को देखा लेकिन कुछ कहा नहीं। यह मौन उस भावनात्मक दूरी और सामाजिक दबाव का प्रतीक था जो अक्सर भारतीय समाज में “अंतर-धार्मिक विवाह” या “स्वतंत्र निर्णय” लेने वाली महिलाओं को झेलना पड़ता है।

अदालत ने कहा कि किसी परिवार को यह अधिकार नहीं कि वह एक वयस्क महिला की स्वतंत्रता का उल्लंघन करे, चाहे वह कितनी भी “सुरक्षा” या “सम्मान” के नाम पर क्यों न हो।


अदालत के सुरक्षा निर्देश

अदालत ने यह भी माना कि महिला और उसके परिवार के बीच hostility (विरोध) इतनी बढ़ चुकी है कि उसके लिए स्वतंत्र रूप से रहना खतरनाक हो सकता है। इस कारण न्यायालय ने आदेश दिया कि:

  • पुलिस महिला को सुरक्षा के साथ उसके वर्तमान निवास (महाराष्ट्र के बाहर) तक पहुंचाए,
  • वकोला पुलिस स्टेशन को निर्देश दिया गया कि वे स्थानीय पुलिस से संपर्क कर सुरक्षा सुनिश्चित करें,
  • और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि कोई व्यक्ति उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे परेशान या धमकाए नहीं।

यह आदेश केवल सुरक्षा का नहीं, बल्कि महिला की स्वायत्तता के संरक्षण का प्रतीक है।


समान निर्णय और न्यायिक दृष्टांत

इस मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट का दृष्टिकोण भारत के अन्य उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों से मेल खाता है। उदाहरण के लिए:

  1. लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) — सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि “दो वयस्कों को अपनी पसंद से विवाह करने का पूर्ण अधिकार है, चाहे उनका धर्म या जाति कुछ भी हो।”
  2. शक्ति वहिनी बनाम भारत संघ (2018) — अदालत ने “खाप पंचायतों” और पारिवारिक दबाव के खिलाफ सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि सम्मान के नाम पर किसी की स्वतंत्रता का हनन असंवैधानिक है।
  3. हादीया केस (Shafin Jahan v. Asokan K.M., 2018) — सुप्रीम कोर्ट ने एक केरल की महिला के मुस्लिम युवक से विवाह को वैध ठहराते हुए कहा कि “वयस्क महिला की पसंद उसका मौलिक अधिकार है।”

इन सभी फैसलों ने यह सुनिश्चित किया कि राज्य, परिवार या समाज किसी भी वयस्क व्यक्ति की जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।


महिला की स्वायत्तता बनाम सामाजिक नियंत्रण

भारतीय समाज में महिला की स्वायत्तता को लेकर दो परस्पर विरोधी धाराएं दिखाई देती हैं। एक ओर संविधान और न्यायपालिका उसे पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करते हैं, जबकि दूसरी ओर समाज और परिवार “सम्मान” और “परंपरा” के नाम पर उसके निर्णयों पर नियंत्रण रखते हैं।

यह निर्णय इस संघर्ष में एक स्पष्ट संदेश देता है — कि “व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोपरि है।”
किसी महिला का जीवन केवल उसके परिवार की इच्छाओं या सामाजिक मान्यताओं का पालन करने तक सीमित नहीं हो सकता।


न्यायपालिका की भूमिका और संवैधानिक नैतिकता

न्यायपालिका का कर्तव्य केवल कानून लागू करना नहीं, बल्कि संवैधानिक नैतिकता (Constitutional Morality) को जीवित रखना भी है। इस निर्णय में न्यायालय ने यह दिखाया कि जब परंपरा और संविधान के मूल्यों में टकराव हो, तो प्राथमिकता संविधान को ही दी जानी चाहिए।

यह फैसला उन तमाम महिलाओं के लिए प्रेरणादायक है जो अपने निर्णय स्वयं लेना चाहती हैं लेकिन सामाजिक दबाव से घबराती हैं। अदालत का यह रुख बताता है कि राज्य और न्यायपालिका उनके साथ खड़ी हैं।


निष्कर्ष: स्वतंत्रता का अर्थ केवल अधिकार नहीं, जिम्मेदारी भी है

बॉम्बे हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ता है। यह न केवल एक महिला के अधिकार की रक्षा करता है, बल्कि यह पूरे समाज को यह संदेश देता है कि स्वतंत्रता केवल पुरुषों की नहीं, बल्कि महिलाओं की भी उतनी ही मौलिक है।

एक वयस्क महिला को अपने जीवन के निर्णय लेने का पूरा अधिकार है — चाहे वह विवाह से संबंधित हो, धर्म से, या निवास स्थान से। किसी भी प्रकार का सामाजिक या पारिवारिक हस्तक्षेप उसकी स्वतंत्रता का उल्लंघन है।

यह फैसला भारत के संविधान की उस भावना को पुनर्जीवित करता है जिसमें “व्यक्ति की गरिमा” सर्वोच्च मानी गई है।
और यही इस निर्णय की सबसे बड़ी उपलब्धि है — एक ऐसी न्यायिक घोषणा जो न केवल कानून का पालन कराती है, बल्कि स्वतंत्रता की आत्मा को भी सशक्त बनाती है।