वैवाहिक विवादों में गिरफ्तारी पर सुप्रीम कोर्ट की रोक: सुलह-संवाद को बढ़ावा देने की संवैधानिक पहल

शीर्षक: वैवाहिक विवादों में गिरफ्तारी पर सुप्रीम कोर्ट की रोक: सुलह-संवाद को बढ़ावा देने की संवैधानिक पहल

परिचय
भारत में वैवाहिक विवादों के मामले वर्षों से न्यायिक प्रणाली पर बोझ बने हुए हैं। ऐसे मामलों में अकसर यह देखा गया है कि पति या ससुराल पक्ष के खिलाफ तुरंत एफआईआर दर्ज कर दी जाती है और पुलिस द्वारा बिना प्राथमिक जांच के गिरफ्तारी कर ली जाती है। इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया यह हालिया निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाला है।

सुप्रीम कोर्ट का आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान निर्देश दिया कि वैवाहिक विवादों में एफआईआर या शिकायत दर्ज होने के दो महीने तक किसी भी पक्ष की गिरफ्तारी नहीं की जाएगी। इस अवधि के दौरान दोनों पक्षों को बातचीत और सुलह का अवसर दिया जाएगा। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह व्यवस्था पूर्व में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों के अनुरूप जारी रहेगी।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की गाइडलाइंस
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक निर्णय में कहा था कि वैवाहिक मामलों में एफआईआर दर्ज होने के पश्चात तुरंत गिरफ्तारी की जगह, पहले पुलिस और संबंधित प्राधिकरणों द्वारा सुलह और समाधान की प्रक्रिया को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यह दिशा-निर्देश अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समर्थन प्राप्त कर चुके हैं।

फैसले का उद्देश्य और महत्व
इस निर्णय का प्रमुख उद्देश्य है–

  1. ग़लत गिरफ्तारी को रोकना – कई बार वैवाहिक मामलों में भावनात्मक आवेश में आकर झूठी शिकायतें दर्ज होती हैं, जिससे निर्दोष व्यक्तियों की गिरफ्तारी हो जाती है।
  2. सुलह की संभावनाओं को अवसर देना – वैवाहिक संबंध एक संवेदनशील सामाजिक संस्था है, जिसे बचाने के हरसंभव प्रयास होने चाहिए।
  3. न्यायपालिका पर बोझ कम करना – लंबित मामलों की संख्या कम करने में यह दिशा-निर्देश सहायक हो सकते हैं।

संबंधित कानूनी दृष्टिकोण
भारतीय दंड संहिता की धारा 498A, घरेलू हिंसा अधिनियम और दहेज निषेध अधिनियम जैसे प्रावधानों के अंतर्गत विवाहेतर विवादों में शिकायतें दर्ज की जाती हैं। किंतु इनका दुरुपयोग रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश न्यायसंगत और संतुलित कदम कहा जा सकता है।

संभावित प्रभाव और निष्कर्ष
इस आदेश से महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के साथ-साथ पुरुषों और उनके परिवार की प्रतिष्ठा की रक्षा भी सुनिश्चित होगी। यह निर्णय न्यायपालिका के उस दृष्टिकोण को दर्शाता है जो सजा की बजाय समाधान और पुनर्स्थापन पर बल देता है।

निष्कर्षतः, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश न केवल न्यायिक विवेक का परिचायक है बल्कि यह एक संवेदनशील सामाजिक मुद्दे को न्यायोचित तरीके से सुलझाने की दिशा में मील का पत्थर भी है। न्यायालय की यह पहल समाज में विवाह संस्था की गरिमा बनाए रखने और फर्जी मुकदमों से बचाव करने का संतुलित प्रयास है।