शीर्षक:
“विशेष निष्पादन व संपत्ति प्राप्ति का अधिकार : संशोधित वादपत्र पर कलकत्ता उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय”
प्रस्तावना:
विशेष निष्पादन (Specific Performance) से संबंधित वादों में वादपत्र (plaint) में संशोधन की अनुमति देने से संबंधित एक महत्वपूर्ण निर्णय कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा पारित किया गया, जो कि दीवानी प्रक्रिया संहिता (CPC), विशेष राहत अधिनियम (Specific Relief Act), एवं स्थानांतरण संपत्ति अधिनियम (Transfer of Property Act) की विभिन्न धाराओं की गहन व्याख्या करता है। यह निर्णय इस बात को स्पष्ट करता है कि वादपत्र में पुनः कब्ज़ा प्राप्त करने की प्रार्थना जोड़ना न तो वाद की प्रकृति को परिवर्तित करता है और न ही प्रतिवादी के अधिकारों को प्रभावित करता है।
मामले का सारांश:
वादक ने एक विशेष निष्पादन (Specific Performance) का मुकदमा दाखिल किया था, परंतु प्रारंभिक वादपत्र में संपत्ति के कब्जे की पुनर्प्राप्ति की कोई प्रार्थना नहीं की गई थी। बाद में वादक ने वादपत्र में संशोधन कर प्रॉपर्टी के कब्जे की मांग भी जोड़ने की अनुमति चाही। प्रतिवादी ने इसका विरोध करते हुए कहा कि इससे वाद का स्वरूप बदल जाएगा और उनके हक पर असर पड़ेगा।
न्यायालय का अवलोकन एवं निर्णय:
- CPC के आदेश 2 नियम 2, विशेष राहत अधिनियम की धारा 21(1) व 22, तथा TP Act की धारा 55(1) के आलोक में अदालत ने स्पष्ट किया कि:
- यदि वादक ने आरंभ में संपत्ति के कब्जे की प्रार्थना नहीं की है, तो वह बाद में ऐसी प्रार्थना जोड़ सकता है। यह कानून द्वारा वर्जित नहीं है।
- कब्जे की प्रार्थना मुख्य राहत (विशेष निष्पादन) से स्वाभाविक रूप से जुड़ी हुई है और इसका उद्देश्य मुकदमेबाज़ी की पुनरावृत्ति को रोकना है।
- संशोधन से वाद का स्वरूप नहीं बदलता:
- कोर्ट ने कहा कि कब्जे की मांग वादपत्र की अंतर्निहित भावना में निहित है।
- संशोधन से वाद भूमि पर आधारित हो सकता है, परंतु इससे वाद का मूल स्वभाव या चरित्र नहीं बदलता।
- प्रतिवादी की आपत्तियाँ अस्थिर पाई गईं:
- अदालत ने कहा कि प्रतिवादी की आपत्ति यह कहकर कि यह संशोधन उनके अधिकारों को प्रभावित करेगा या सीमावधि का उल्लंघन करेगा, निराधार है।
- आदेश 2 नियम 2 CPC के तहत अनुमति न होने से वाद असफल नहीं होता:
- कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में विशेष निष्पादन के साथ कब्जे की मांग जोड़ना न केवल अनुमेय है, बल्कि यह एक आवश्यक पूरक राहत है।
- क्षेत्राधिकार नहीं बदलता:
- चूंकि संपत्ति उसी क्षेत्राधिकार के अंतर्गत स्थित है, अतः संशोधन के बाद भी यह मुकदमा कलकत्ता उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में बना रहता है।
न्यायिक महत्त्व:
यह निर्णय भारतीय दीवानी विधि में एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है कि किस प्रकार प्रक्रिया की तकनीकीताओं को न्याय के मार्ग में बाधा नहीं बनने दिया जाना चाहिए। यह निर्णय बताता है कि वाद की तकनीकी खामियाँ न्याय की राह में रुकावट नहीं बन सकतीं, खासकर जब संशोधन न्याय की पूर्ति हेतु आवश्यक हो।
निष्कर्ष:
कलकत्ता उच्च न्यायालय का यह निर्णय न्यायिक लचीलापन और न्याय की व्यापक व्याख्या का सशक्त उदाहरण है। यह न केवल वादों में न्यायसंगत संशोधन की राह खोलता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि एक ही कारण से उपजी कई मुकदमों की अवांछनीय पुनरावृत्ति रोकी जा सके।
प्रमुख उद्धरण:
“Specific performance के लिए की गई याचिका में संपत्ति पर कब्ज़ा प्राप्त करने की मांग एक आवश्यक पूरक है — इसे जोड़ने से वाद की प्रकृति नहीं बदलती।” – कलकत्ता उच्च न्यायालय