शीर्षक:
विवाह के शून्य या निरस्त स्वरूप से जन्मे बच्चों के उत्तराधिकार अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय – Revanasiddappa बनाम Mallikarjun (2023 INSC 783)
भूमिका:
भारत में विवाह, उत्तराधिकार और पारिवारिक संपत्ति से संबंधित कानूनों की व्याख्या समय-समय पर न्यायपालिका द्वारा की जाती रही है। हिंदू विधि के तहत, विशेषकर संयुक्त परिवार और पैतृक संपत्ति के संदर्भ में, यह निर्धारित करना कि कौन उत्तराधिकारी है और किसे संपत्ति का अधिकार प्राप्त होगा, एक जटिल प्रश्न रहा है। विशेषकर उन बच्चों की स्थिति जो शून्य (void) या निरस्त (voidable) विवाहों से जन्मे हैं, लंबे समय से विवाद का विषय रही है।
2023 में सुप्रीम कोर्ट ने Revanasiddappa बनाम Mallikarjun [2023 INSC 783] में एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए यह स्पष्ट किया कि ऐसे बच्चे भी अपने माता-पिता की पैतृक संपत्ति में अधिकार रखते हैं। यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सामाजिक न्याय, समानता और मानव गरिमा की दिशा में एक सशक्त कदम भी है।
मामले की पृष्ठभूमि:
Revanasiddappa बनाम Mallikarjun मामले में प्रश्न यह था कि क्या शून्य या निरस्त विवाहों से उत्पन्न संतानें अपने माता-पिता की पैतृक (ancestral) संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त कर सकती हैं? पहले के कई फैसलों जैसे Jinia Keotin बनाम Kumar Sitaram Sahu (2003) में यह कहा गया था कि ऐसे बच्चे केवल माता-पिता की स्वअर्जित संपत्ति (self-acquired property) में ही अधिकार प्राप्त कर सकते हैं, न कि संयुक्त हिंदू परिवार की पैतृक संपत्ति में।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय:
1. वैधता और उत्तराधिकार का संबंध:
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को मान्यता दी कि विवाह की वैधता या अवैधता का प्रभाव संतान के अधिकारों पर नहीं पड़ना चाहिए। धारा 16, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 को प्रमुख आधार मानते हुए न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि यदि कोई बच्चा शून्य या निरस्त विवाह से जन्मा है, तो वह ‘वैध संतान’ मानी जाएगी और उसे माता-पिता की संपत्ति में अधिकार मिलेगा।
2. संयुक्त परिवार और पैतृक संपत्ति में अधिकार:
हालांकि ऐसे बच्चे ‘कॉपार्सनर’ (coparcener) नहीं माने जाएंगे, लेकिन फिर भी वे अपने माता या पिता की संयुक्त पारिवारिक संपत्ति में उस हिस्से के उत्तराधिकारी होंगे जो उनके माता या पिता को प्राप्त होता। इस प्रकार, वे अपने माता-पिता के हिस्से को उत्तराधिकार में प्राप्त कर सकते हैं, भले ही वह हिस्सा संयुक्त परिवार का हिस्सा हो।
3. स्व-अर्जित संपत्ति पर अधिकार:
इस निर्णय में यह भी पुनः पुष्टि की गई कि ऐसे बच्चों को माता-पिता की स्व-अर्जित संपत्ति में पूर्ण अधिकार प्राप्त है। इस हिस्से पर कोई विवाद नहीं रहा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक बार फिर स्पष्ट किया।
4. पूर्व निर्णयों का परित्याग:
सुप्रीम कोर्ट ने Jinia Keotin और Neelamma बनाम Sarojamma (2006) जैसे पूर्व निर्णयों को overrule करते हुए एक नई न्यायिक दृष्टिकोण प्रस्तुत की, जो न्यायसंगत और समावेशी है।
धारा 16, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की व्याख्या:
यह धारा कहती है कि शून्य या निरस्त विवाह से उत्पन्न संतान को ‘वैध’ माना जाएगा, यदि वह संतान ऐसे विवाह के समय उत्पन्न हुई हो या उसके परिणामस्वरूप हुई हो। इस धारा के उपखंड (3) में उल्लेख किया गया है कि ऐसी संतान केवल अपने माता-पिता की संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त कर सकती है, न कि किसी अन्य संबंधी की संपत्ति में।
इस निर्णय में न्यायालय ने इसी उपखंड की व्यापक और उद्देश्यपूर्ण व्याख्या करते हुए यह कहा कि “माता-पिता की संपत्ति” में उनकी पैतृक संपत्ति में से जो हिस्सा उन्हें प्राप्त होता है, वह भी शामिल है।
समाज और कानून पर प्रभाव:
- मानव गरिमा और समानता की जीत: यह निर्णय उस सामाजिक कलंक को दूर करता है जो शून्य विवाहों से जन्मे बच्चों पर लगाया जाता था। इससे उन्हें समाज में सम्मानपूर्वक स्थान प्राप्त करने की राह मिलती है।
- कानून की समावेशी व्याख्या: सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह सिद्ध किया कि भारतीय न्यायपालिका संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) की रक्षा के लिए संवेदनशील है।
- कानूनी स्पष्टता: अब यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि कोई भी बच्चा, चाहे वह किसी वैध या अवैध विवाह से उत्पन्न हुआ हो, अपने माता-पिता की संपत्ति में उत्तराधिकारी होता है, जिसमें पैतृक भाग भी शामिल है।
महत्वपूर्ण उद्धरण:
न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा:
“कानून का उद्देश्य किसी संतान को उसके जन्म की परिस्थितियों के कारण दंडित करना नहीं हो सकता। समाज और कानून दोनों को ऐसे भेदभाव के विरुद्ध खड़ा होना होगा।”
आलोचना और संभावित प्रश्न:
हालांकि यह निर्णय स्वागत योग्य है, परंतु कुछ कानूनी विद्वानों का मत है कि इससे संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति की प्रकृति और उत्तराधिकार की जटिलताएं और बढ़ सकती हैं। कुछ आशंका यह भी है कि भविष्य में पैतृक संपत्ति के बंटवारे में विवाद बढ़ सकते हैं, विशेषकर जब दावे ऐसे बच्चों द्वारा प्रस्तुत किए जाएं जिनका संबंध अस्पष्ट हो।
परंतु इन शंकाओं की तुलना में सामाजिक न्याय और समावेशिता का उद्देश्य अधिक महत्वपूर्ण है, और यह निर्णय उसी दिशा में उठाया गया एक ऐतिहासिक कदम है।
निष्कर्ष:
Revanasiddappa बनाम Mallikarjun (2023 INSC 783) का निर्णय भारत में उत्तराधिकार और पारिवारिक कानून की दिशा में एक क्रांतिकारी बदलाव है। यह न केवल एक विशुद्ध कानूनी निर्णय है, बल्कि यह सामाजिक संवेदनशीलता, समावेशी दृष्टिकोण और मानवीय गरिमा की पुनः स्थापना का भी प्रतीक है।
यह निर्णय दर्शाता है कि भारतीय न्यायपालिका समाज में कमजोर वर्गों को सम्मान और समानता दिलाने के लिए दृढ़ संकल्पित है, और समय के साथ-साथ न्याय की व्याख्या को भी सामाजिक परिवर्तन के अनुरूप ढालने में सक्षम है।
संदर्भ:
- Hindu Marriage Act, 1955 – Section 16
- Revanasiddappa vs Mallikarjun [2023 INSC 783]
- Jinia Keotin vs Kumar Sitaram Sahu (2003)
- Neelamma vs Sarojamma (2006)