“विवाह के दौरान जन्मे बच्चे की वैधता और पितृत्व: सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 की व्याख्या”

📘 लेख शीर्षक:
“विवाह के दौरान जन्मे बच्चे की वैधता और पितृत्व: सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 की व्याख्या”


🔍 परिचय:

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि यदि कोई बच्चा वैध विवाह के दौरान जन्म लेता है, तो उसे वैध संतान (legitimate child) माना जाएगा, भले ही पत्नी पर व्यभिचार (adultery) का आरोप हो। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के अंतर्गत बच्चे की वैधता को चुनौती देने के लिए केवल डीएनए परीक्षण या जैविक साक्ष्य पर्याप्त नहीं हैं, जब तक यह सिद्ध न किया जाए कि पति-पत्नी के बीच “संभोग की असंभवता” (non-access) थी।


⚖️ प्रमुख विधिक प्रावधानों का विश्लेषण:

1. भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 – धारा 112:

“यदि कोई बच्चा विवाह के दौरान या विवाह विच्छेद के 280 दिनों के भीतर जन्म लेता है, और माता पुनः विवाह नहीं करती, तो वह पति की संतान मानी जाएगी।”

  • यह एक वैधानिक धारणा (legal presumption) है।
  • इसे केवल तभी खंडित किया जा सकता है जब यह स्पष्ट रूप से सिद्ध किया जाए कि पति और पत्नी के बीच शारीरिक संबंध स्थापित होने की कोई संभावना नहीं थी।

2. सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:

🔹 मुख्य निष्कर्ष:

  • जैविक साक्ष्य (DNA Test) अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं।
  • “पितृत्व” और “वैधता” (Paternity & Legitimacy) दोनों गहराई से जुड़े हैं और उन्हें अलग-अलग नहीं देखा जा सकता।
  • विवाह के दौरान जन्मे बच्चे को वैध माना जाएगा जब तक कि पति यह साफ़ तौर पर सिद्ध न कर दे कि उसके पास पत्नी तक पहुंच नहीं थी (Non-access)।

🔹 प्रकरण की पृष्ठभूमि:

  • मामला दो दशकों से चल रहा था।
  • पति ने DNA रिपोर्ट के आधार पर बच्चे का पितृत्व नकारा।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा – DNA रिपोर्ट अंतिम नहीं है, जब तक “non-access” की सख्त पुष्टि नहीं होती।

🧾 अन्य संबंधित कानून:

CrPC – धारा 125:

  • पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण का दायित्व पति पर है।
  • यदि बच्चा वैध माना जाता है, तो भरण-पोषण का अधिकार बनता है।

Family Courts Act – धारा 7 और 8:

  • विवाह, वैधता, पितृत्व और भरण-पोषण से जुड़े मामलों की सुनवाई फैमिली कोर्ट को करने का अधिकार है।

CPC – धारा 11 (Res Judicata):

  • पूर्व में निर्णय हो चुका हो तो दोबारा उसी मुद्दे पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

🧠 ‘Non-access’ की परिभाषा:

  • सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ‘non-access’ का अर्थ है पति-पत्नी के बीच विवाह संबंधों के दौरान शारीरिक संबंध का पूरी तरह असंभव होना।
  • इसे सामान्य आरोप या अनुमान से सिद्ध नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिए मजबूत, विश्वसनीय और ठोस साक्ष्य होने चाहिए।

📌 न्यायिक संतुलन और नीतिगत दृष्टिकोण:

  • कोर्ट ने कहा कि ऐसी स्थिति में तीन हितों का संतुलन जरूरी है:
    1. पति का निजता और प्रतिष्ठा का अधिकार
    2. पत्नी का सम्मान और सामाजिक स्थिति
    3. बच्चे का अधिकार – पहचान, वैधता और संरक्षण का अधिकार
  • सिर्फ DNA टेस्ट के आधार पर पितृत्व नकारना बच्चे की गरिमा और जीवन के अधिकार का उल्लंघन हो सकता है।

✍️ निष्कर्ष:

यह निर्णय भारतीय न्यायशास्त्र में पितृत्व और वैधता के सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है। विवाह के दौरान जन्मा बच्चा तब तक वैध माना जाएगा जब तक कि पति साक्ष्यों द्वारा यह साबित न कर दे कि उसके पास पत्नी तक पहुंच नहीं थी। जैविक साक्ष्य की सीमाएं तय करते हुए यह निर्णय न्याय, गरिमा और सामाजिक संतुलन की रक्षा करता है।