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“विवाह: एक पवित्र बंधन या उपनिवेश-ढांचा? — न्यायमूर्ति सूर्यकांत के भाष्य में महिलाओं पर पुरातन दमन, आज के बदलाव और कानून की अगली चुनौतियाँ”

“विवाह: एक पवित्र बंधन या उपनिवेश-ढांचा? — न्यायमूर्ति सूर्यकांत के भाष्य में महिलाओं पर पुरातन दमन, आज के बदलाव और कानून की अगली चुनौतियाँ”


प्रस्तावना

विवाह, पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था का एक मूलभूत स्तंभ रहा है। विभिन्न संस्कृतियों-धाराओं में इसे एक पवित्र संस्कार, सामाजिक अनुबंध, आर्थिक साझेदारी या राजनीतिक गठबंधन के रूप में देखा गया है। परंतु सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने हाल ही में एक सेमिनार में कहा है कि –

“Across continents, cultures and eras, marriage has too often been misused as an instrument of subjugation against women.”
उनका यह कथन हमें यह सोचने पर विवश करता है कि क्या विवाह आज भी महिलाओं की स्वतंत्रता, गरिमा और बराबरी के लिए बाधा है — या फिर यह धीरे-धीरे ऐसा रूप ले रहा है जिसमें न्याय, सम्मान और साझेदारी अधिक प्रमुख हो रही है।

इस लेख में हम इस दृष्टिकोण का विश्लेषण करेंगे — पहले यह देखेंगे कि कैसे ऐतिहासिक रूप से विवाह को महिलाओं पर नियंत्रण का माध्यम माना गया रहा है; फिर भारतीय प्रেক্ষापटल में इसके नियम-संरचनाएं; उसके बाद न्यायपालिका व विधायिका द्वारा महिलाओं के अधिकारों के पक्ष में उठाए गए कदम; और अंत में यह विचार करेंगे कि आगे की चुनौतियाँ क्या होंगी।


1. ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य: विवाह और महिलाओं का स्थान

विस्‍तार में देखें तो पारंपरिक समाजों में विवाह का स्वरूप बहुत कुछ था:

  • अधिकांश समाजों में विवाह को सिविल या व्यापारिक अनुबंध नहीं बल्कि धार्मिक-सामाजिक संस्कार माना गया। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा:

    “In early Indian tradition, marriage was regarded not as a civil contract but as a sacred and enduring sacrament—a sanskara deeply rooted in philosophical thought.”
    इस दृष्टि से विवाह को ऐसा बंधन माना गया जहाँ पति-पति (या पुरुष पक्ष) की प्रभुता स्वाभाविक थी।

  • पर इस पवित्रता के नाम पर अक्सर महिलाओं को घरेलू, यौन, आर्थिक और सामाजिक नियंत्रण के दायरे में रखा गया। वे कम-लिखित नहीं थीं, पर उनकी भूमिका, चुनाव-स्वतंत्रता और स्वीकार्यता अक्सर पुरुष-प्रधान सामाजिक तंत्र से बाधित रही।
  • विवाह की व्यवस्था में महिलाएँ बहुत बार विरासत-धारक न होकर उपकर्मी भूमिकाओं में थीं — विवाह से पुरुष को सामाजिक-आर्थिक लाभ मिलता रहा, वहीं महिला को सीमित स्वायत्तता, गृह-बंधक स्थिति और निर्भरता की भूमिका दी गई।
  • प्रभावित-क्षेत्रों में विवाह को गुलामी की तरह इस्तेमाल हुआ: यानी महिलाओं को दायित्वों के अधीन, अधिकारों से वंचित, पुरुष-केन्द्रित संरचना में बाँधा गया। यह न्यायमूर्ति सूर्यकांत द्वारा वर्णित “instrument of subjugation” (दमन का यंत्र) से मेल खाता है।
  • इसे विभिन्न संस्कृतियों-कालों में देखा जा सकता है — चाहे प्राचीन भारत हो, मध्यकालीन समाज हो या औपनिवेशिक अवधि। सामाजिक नियम-रीतियों, जाति-पारिवारिक दबावों, धर्म-परंपराओं ने विवाह को महिलाओं के लिए अवसर कम और नियंत्रण का माध्यम ज्यादा बनाया।

इस प्रकार, विवाह केवल दो व्यक्तियों का बंधन नहीं था, बल्कि एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था का हिस्सा था जिसमें लैंगिक असमानता की व्यवस्था गहराई से व्याप्त थी।


2. भारतीय वैवाहिक कानूनों और सामाजिक परिवर्तन

भारत में विवाह-व्यवस्था पर सामाजिक और विधिक दोनों तरह के बदलाव हुए हैं — पर उनका असर क्रमशः और संघर्षपूर्ण रहा।

  • औपनिवेशिक अवधि में पारिवारिक नियम लिखित कानूनों में आने लगे — जैसे हिन्दू विवाह अधिनियम, १९५५; मुस्लिम, ख्रिस्ती, पारसी आदि समुदायों के लिए स्वतंत्र या विशेष प्रावधान बनें। पर इन कानूनों में भी पुरुष-प्रधान सामाजिक प्रारूप की छाया रही।
  • न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने यह कहा है कि भारत में न्यायपालिका और विधानमंडल दोनों ने महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए कदम उठाए हैं।
    उदाहरणस्वरूप: दहेज निरोधक अधिनियम (१९६१), महिला-उत्पीड़न प्रतिरोधक अधिनियम (२००५) आदि।
  • सामाजिक जागरूकता में वृद्धि, महिला-शिक्षा व रोजगार के अवसरों का बढ़ना, परिवार-आकार में बदलती धारणाएँ — इनसे विवाह की परंपरागत अर्थव्यवस्था और लैंगिक असंतुलन पर प्रभाव पड़ा।
  • न्यायपालिका ने कई मामलों में यह स्थापित किया कि विवाह केवल पुरुष-के लिए लाभ का माध्यम नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, सूबा-विवाद आदि। हालांकि यहाँ धर्म-समुदाय-व्यवस्थाओं के बीच संतुलन बनाना चुनौती रहा है।

इस तरह, भारतीय पृष्ठभूमि में विवाह का स्वरूप धीरे-धीरे बदलने लगा — वह अब पारंपरिक दमन-यंत्र से साझेदारी-मंच की ओर अग्रसर है, हालाँकि अभी भी चुनौतियाँ अनेक हैं।


3. न्यायमूर्ति सूर्यकांत का वक्तव्य और उसके प्रसंग

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने (१६ अक्टूबर २०२५ को एक सेमिनार में) प्रमुख बात कही कि —

“While this remains an uncomfortable truth, contemporary legal and social reforms in both jurisdictions are gradually transforming marriage from a site of inequality into a pious partnership grounded in dignity, mutual respect, and constitutional values of equality.”

कुछ मुख्य बिंदु जो उन्होंने उठाये हैं:

  • विवाह का दमन-माध्यम रूप : उन्होंने स्पष्ट किया कि विवाह, विभिन्न संस्कृतियों-कालों में, महिलाओं को सामाजिक-मानक, घरेलू सेवा, यौन एवं आर्थिक रूप से अधीन बनाने में इस्तेमाल हुआ है।
  • कानून एवं न्यायपालिका की भूमिका : उन्होंने इंग्लैंड और भारत दोनों के उदाहरण दिए कि कैसे पारिवारिक कानून में बदलाव हो रहे हैं — जैसे विदेश में हुए तलाक या विवाह संबंधी निर्णयों को भारत में मान्यता देने के दिशा-निर्देश।
  • बदलाव की गुंजाइश : उन्होंने कहा कि यह बदलाव सहज नहीं है, लेकिन ज़रूरी है कि कानून-व्यवस्था सामाजिक जरूरतों के अनुरूप विकसित हो।
  • बच्चों व अंतरराष्ट्रीय विवाह-विवाद : उन्होंने विशेष रूप से बात की कि आज वैश्विक-करण की प्रक्रिया में पति-पत्नी अलग देशों में हो सकते हैं, बच्चों की चिंता हो सकती है; इस तरह के मामलों में न्याय-सभी का सहयोग, सुप्रीम कोर्ट-दिशा-निर्देश आदि महत्वपूर्ण हैं।

उपर्युक्त वक्तव्य से यह स्पष्ट होता है कि न्यायमूर्ति सूर्यकांत विवाह की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती दे रहे हैं — और यह कह रहे हैं कि विवाह आज के सामाजिक-कानूनी तंत्र में नए आयाम ले सकता है यदि उसे बराबरी-आधारित साझेदारी के रूप में देखा जाए।


4. महिलाओं के लिए कानूनी व सामाजिक सुधार

विवाह के दमन-रूप को बदलने के दिशा में कई सुधार हुए हैं — कुछ निम्नलिखित रूप से:

  • महिलाओं को संपत्ति-हक, विरासत-हक, विवाहेत्तर अधिकार आदि में विस्तार मिला। उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि आदिवासी महिलाओं को भी पूर्वज-संपत्ति में बराबर अधिकार है।
  • विवाह को केवल संस्कार न मानते हुए परिवार-कानून में पारदर्शिता, पंजीकरण, विवाह-विवादों के समाधान की प्रक्रियाएँ विकसित हुईं।
  • घरेलू हिंसा-रोकथाम, दहेज-दुर्व्यवहार-निषेध जैसे कानून महिलाओं को विवाह के दायित्वों से उत्पीड़न से बचाने का प्रयास कर रहे हैं।
  • न्यायपालिका ने यह स्वीकार करना शुरू कर दिया है कि विवाह VOID (अवैध) भी हो सकता है, तथा उस स्थिति में भी महिला को अनुरक्षण-भत्ता आदि मिल सकती है।

इन सुधारों का समन्वित प्रभाव यह है कि विवाह अब सिर्फ महिला-दोहन का माध्यम नहीं रहना चाहिए। बल्कि यह सामाजिक-कानूनी रूप से महिलाओं की गरिमा, स्वतन्त्रता व साझेदारी की गारंटी का मंच बने।


5. अभी भी मौजूद चुनौतियाँ और आगे की राह

हालाँकि इन सुधारों के बावजूद, कई चुनौतियाँ अब भी विद्यमान हैं:

  • सामाजिक-मान्यता में परिवर्तन धीमा है: कई स्थानों पर शादी-पारंपरिकता, सामाजिक दबाव, परिवार-सामुहिक विचार आज भी महिलाओं को नियंत्रित करते हैं।
  • घरेलू व्यवस्था में महिला की स्वतंत्रता अभी भी सीमित है — यौन, आर्थिक, निर्णय-स्वतन्त्रता क्षेत्रों में असमानता बनी हुई है।
  • कानून बनना पर्याप्त नहीं — उनका प्रभावी क्रियान्वयन, न्यायपालिका-प्रवर्तन एजेंसियों की संवेदनशीलता, सामाजिक जागरूकता आवश्यक है।
  • वैश्विक-करण, क्रॉस बॉर्डर विवाह-तलाक, नए प्रकार के रिश्ते (सहवास, समलैंगिक संबंध, लाइफ पार्टनरशिप) आदि ने पारंपरिक विवाह-मॉडल को चुनौती दी है। ऐसे में, न्याय-कानून को इन नई चुनौतियों के अनुरूप विकसित करना होगा।
  • महिलाओं के लिए विवाह का विकल्प ही एक दबाव-विषय रह सकता है — जैसे कि शादी न करने के निर्णय को सामाजिक-स्तर पर स्वीकार करना मुश्किल है। इस प्रकार, ‘विवाह ही लक्ष्य’ जैसी सामाजिक-मंजूरी अब प्रश्न के दायरे में आ रही है।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत के कथन के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि जबतक विवाह को केवल संस्कार और सामाजिक बंधन माना जाएगा, और उसमें बराबरी-साझेदारी की धारणा ठी सक नहीं पाएगी, तब तक इसे महिलाओं पर नियंत्रण-यंत्र के रूप में उपयोग करने की प्रवृत्ति पूरी तरह समाप्त नहीं होगी। उन्होंने संकेत दिया है कि कानून-व्यवस्था को “social engineer” की भूमिका स्वीकार करनी होगी — अर्थात्, सामाजिक बदलाओं को प्रेरित करने वाली, सहभागी-रूप से संवेदनशील व्यवस्था बनना होगी।


निष्कर्ष

विवाह, संस्थागत रूप से, कभी-कभी महिलाओं के लिए बंधन-माध्यम रहा है — जहाँ उन्हें सामाजिक-पद, निर्णय-स्वतन्त्रता और आर्थिक स्वतंत्रता से वंचित किया गया। न्यायमूर्ति सूर्यकांत का वक्तव्य इस असहज सच्चाई को उजागर करता है। पर साथ ही वह यह उम्मीद दिखाते हैं कि आज कानून-समाज में विवाह को नए अर्थों में पुनर्स्थापित किया जा रहा है — सम्मान, साझेदारी, समानता के आधार पर।