विवाहित बेटियां भी अनुकंपा नियुक्ति की हकदार : इलाहाबाद हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
प्रस्तावना
भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर यह स्पष्ट किया है कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत समानता और गैर-भेदभाव का अधिकार सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त है। इसी संवैधानिक दर्शन को दोहराते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें कहा गया कि केवल विवाहित होने के आधार पर किसी बेटी को अनुकंपा नियुक्ति (Compassionate Appointment) से वंचित नहीं किया जा सकता। यह फैसला उन असंख्य परिवारों के लिए राहत का संदेश है, जहां पिता या माता की असामयिक मृत्यु के बाद बेटियां परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी उठाती हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
देवरिया जिले की निवासी चंदा देवी के पिता, संपूर्णानंद पांडेय, प्राथमिक विद्यालय गजहड़वा, ब्लॉक बनकटा, तहसील भाटपाररानी में सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत थे। वर्ष 2014 में सेवा के दौरान उनका निधन हो गया।
पिता की मृत्यु के बाद परिवार की आजीविका संकट में आ गई। ऐसे में चंदा देवी ने अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन किया। यह आवेदन दिसंबर 2016 में जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी (बीएसए) देवरिया द्वारा यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि चंदा देवी विवाहित बेटी हैं और 4 सितंबर 2000 के शासनादेश के अनुसार विवाहित बेटियां अनुकंपा नियुक्ति की पात्र नहीं हैं।
प्रारंभिक कार्यवाही
बीएसए के आदेश से व्यथित होकर चंदा देवी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में रिट याचिका दाखिल की। मई 2025 में एकलपीठ ने उनकी याचिका खारिज कर दी। एकलपीठ का मत था कि हालांकि विवाहित बेटी भी पात्र मानी जा सकती है, लेकिन चंदा देवी यह साबित करने में असफल रहीं कि वह अपने पति की बेरोजगारी के कारण पिता पर आश्रित थीं। साथ ही, अदालत ने यह भी माना कि उनके पिता का निधन 2014 में हुआ और अब लगभग 11 वर्ष बीत चुके हैं, इसलिए अनुकंपा नियुक्ति का दावा विचार योग्य नहीं है।
विशेष अपील
एकलपीठ के आदेश से असंतुष्ट होकर चंदा देवी ने खंडपीठ के समक्ष विशेष अपील दाखिल की। न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता एवं न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्र की खंडपीठ ने इस अपील पर सुनवाई की।
सुनवाई के दौरान यह प्रश्न उठा कि क्या मात्र विवाहित होने का आधार किसी बेटी को अनुकंपा नियुक्ति से वंचित करने के लिए पर्याप्त है?
अदालत का विश्लेषण
खंडपीठ ने गहन विचार के बाद निम्नलिखित बिंदुओं पर अपनी राय व्यक्त की:
- केवल विवाहिता होना बाधा नहीं
अदालत ने कहा कि विवाहित बेटी को केवल इस आधार पर नियुक्ति से वंचित करना अनुचित और असंवैधानिक है। विवाह का संबंध किसी महिला की आश्रितता को स्वतः समाप्त नहीं करता। कई बार विवाहित बेटियां भी अपने मायके के परिवार पर आश्रित रहती हैं, विशेषकर तब जब पति बेरोजगार हो या आर्थिक स्थिति दयनीय हो। - सुप्रीम कोर्ट का संदर्भ
अदालत ने स्मृति विमला श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले का उल्लेख किया। उस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि विवाहित बेटियां भी अनुकंपा नियुक्ति की पात्र होती हैं। यह फैसला महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता की दिशा में एक मील का पत्थर है। - आश्रितता का महत्व
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि विवाहित बेटी को नियुक्ति तभी मिल सकती है जब वह साबित करे कि मृत्यु के समय वह अपने पिता पर आश्रित थी। इस प्रकार, विवाहिता होना नियुक्ति में बाधा नहीं है, लेकिन आश्रितता का प्रश्न निर्णायक रहेगा। - बीएसए का आदेश रद्द
खंडपीठ ने बीएसए द्वारा दिया गया आदेश रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि चंदा देवी के आवेदन पर पुनर्विचार किया जाए। अदालत ने बीएसए को आठ सप्ताह के भीतर पुनः निर्णय लेने का आदेश दिया।
निर्णय का प्रभाव
यह निर्णय केवल एक व्यक्ति या मामले तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका व्यापक सामाजिक और कानूनी महत्व है।
- लैंगिक समानता को बल
यह फैसला भारतीय समाज में प्रचलित उस मानसिकता को चुनौती देता है जिसमें विवाहिता बेटी को अपने मायके से अलग मान लिया जाता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि बेटी का संबंध विवाह के बाद भी समाप्त नहीं होता। - महिलाओं के अधिकारों की रक्षा
न्यायालय ने यह संदेश दिया कि बेटियों के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव संविधान के मूल सिद्धांतों के विपरीत है। यह निर्णय महिलाओं के अधिकारों को और मजबूत करता है। - अनुकंपा नियुक्ति का उद्देश्य
अनुकंपा नियुक्ति का मूल उद्देश्य यह है कि मृतक कर्मचारी के परिवार को आकस्मिक संकट से उबारकर उसकी आजीविका सुनिश्चित की जाए। यदि विवाहित बेटियों को केवल वैवाहिक स्थिति के आधार पर बाहर कर दिया जाए तो यह उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। - भविष्य की कार्यवाही पर प्रभाव
यह फैसला अन्य जिलों और राज्यों के प्रशासनिक अधिकारियों के लिए भी मार्गदर्शक सिद्ध होगा। अब विवाहित बेटियों को केवल शादीशुदा होने के आधार पर नियुक्ति से वंचित नहीं किया जा सकेगा।
निष्कर्ष
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायिक इतिहास में एक और प्रगतिशील कदम है। इसने एक बार फिर यह सिद्ध किया कि कानून का उद्देश्य केवल नियमों का पालन करना नहीं, बल्कि न्याय की स्थापना करना है।
चंदा देवी का संघर्ष उन हजारों बेटियों की आवाज है, जिन्हें केवल विवाहित होने के कारण परिवार की जिम्मेदारी उठाने से रोका जाता है। अदालत ने न केवल उनके लिए न्याय का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि समाज को भी यह संदेश दिया कि बेटियां चाहे विवाहित हों या अविवाहित, वे अपने माता-पिता की संतान हैं और समान अधिकारों की हकदार हैं।