विवाद और युद्ध कानून: अंतरराष्ट्रीय मानवता और संप्रभुता के बीच संतुलन (Conflict and War Law: Balancing Humanity and Sovereignty in International Relations)
परिचय
विश्व के इतिहास में युद्ध और सशस्त्र संघर्ष मानवता के सबसे भीषण अनुभवों में से एक रहे हैं। लाखों लोगों की जान और सम्पत्ति की हानि, मानवाधिकारों का उल्लंघन, शरणार्थी संकट और सामाजिक ढांचे का विघटन – युद्धों की यह कीमत सभ्यता ने बार-बार चुकाई है। ऐसे हालातों में विवाद और युद्ध कानून (Conflict and War Law) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि युद्ध की स्थिति में भी कुछ मानवीय मर्यादाएँ बनी रहें, और पीड़ितों को न्यूनतम सुरक्षा मिल सके।
यह कानून मुख्यतः अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी कानून (International Humanitarian Law – IHL) और संयुक्त राष्ट्र चार्टर, जिनीवा कन्वेंशन, हेग सम्मेलन तथा अन्य संधियों एवं रीति-नीतियों से विकसित हुआ है।
विवाद और युद्ध कानून की अवधारणा
विवाद और युद्ध कानून, जिसे युद्ध का कानून (Law of War) या सशस्त्र संघर्ष कानून (Law of Armed Conflict) भी कहा जाता है, दो मुख्य भागों में बंटा होता है:
- Jus ad Bellum (युद्ध प्रारंभ करने का अधिकार):
यह सिद्धांत तय करता है कि किसी राष्ट्र को युद्ध आरंभ करने का क्या वैध आधार है। इसका आधार मुख्यतः संयुक्त राष्ट्र चार्टर का अनुच्छेद 2(4) है, जो किसी राष्ट्र द्वारा बल प्रयोग पर रोक लगाता है, सिवाय आत्मरक्षा (अनुच्छेद 51) या सुरक्षा परिषद की अनुमति के। - Jus in Bello (युद्ध के दौरान आचरण):
यह सिद्धांत युद्ध के दौरान लड़ने की विधियों, हथियारों, नागरिकों की रक्षा, बंदियों के साथ व्यवहार और राहत सहायता से संबंधित नियमों को निर्दिष्ट करता है। जिनीवा कन्वेंशन, 1949 इसका प्रमुख स्रोत है।
अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी कानून (International Humanitarian Law – IHL)
IHL वह विधिक ढांचा है जो युद्ध या सशस्त्र संघर्ष की स्थिति में नागरिकों, घायल सैनिकों, युद्ध बंदियों और मानवता की रक्षा करता है। इसके प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
1. भेदभाव का सिद्धांत (Principle of Distinction):
सैन्य लक्ष्यों और नागरिकों के बीच भेद आवश्यक है। नागरिकों और असैन्य प्रतिष्ठानों पर हमला वर्जित है।
2. अनुपातिकता का सिद्धांत (Principle of Proportionality):
किसी सैन्य लक्ष्य पर हमला करते समय उस हमले से होने वाले नागरिक नुकसान की तुलना में लाभ अधिक होना चाहिए।
3. अनावश्यक पीड़ा निषेध (Prohibition of Unnecessary Suffering):
ऐसे हथियारों या विधियों का प्रयोग वर्जित है जो अनावश्यक रूप से क्रूर और अमानवीय हों।
जिनीवा कन्वेंशन और उसके प्रोटोकॉल
जिनीवा कन्वेंशन युद्ध कानून की रीढ़ हैं। 1949 में बने चार कन्वेंशन और बाद के अतिरिक्त प्रोटोकॉल युद्ध के मानवीय पहलुओं की रक्षा करते हैं:
- पहला कन्वेंशन: घायल और बीमार सैनिकों की भूमि युद्ध में सुरक्षा।
- दूसरा कन्वेंशन: समुद्री युद्ध में घायल नौसैनिकों की रक्षा।
- तीसरा कन्वेंशन: युद्ध बंदियों के अधिकार और व्यवहार के मानक।
- चौथा कन्वेंशन: नागरिकों की रक्षा, विशेषकर कब्जे वाले क्षेत्रों में।
प्रोटोकॉल I और II (1977) – अंतरराष्ट्रीय और आंतरिक सशस्त्र संघर्षों में अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र और युद्ध कानून
संयुक्त राष्ट्र चार्टर अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए बना था। इसके तहत:
- अनुच्छेद 2(4): सदस्य राष्ट्रों द्वारा बल प्रयोग पर रोक।
- अनुच्छेद 51: आत्मरक्षा का अधिकार।
- अध्याय VII: सुरक्षा परिषद को शांति भंग होने की स्थिति में सैन्य कार्रवाई सहित उपाय करने की शक्ति देता है।
संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन (UN Peacekeeping Operations) भी युद्धग्रस्त क्षेत्रों में नागरिकों की रक्षा, संघर्ष विराम और मानवीय सहायता की व्यवस्था करते हैं।
युद्ध अपराध और दंड व्यवस्था
युद्ध कानूनों के उल्लंघन को युद्ध अपराध (War Crimes) कहा जाता है। इसके प्रमुख उदाहरण हैं:
- नागरिकों पर जानबूझकर हमला
- रासायनिक या जैविक हथियारों का प्रयोग
- बलात्कार, यातना और गुलामी
- युद्ध बंदियों की हत्या या अमानवीय व्यवहार
अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC), हेग स्थित यह स्थायी न्यायालय, युद्ध अपराध, मानवता के विरुद्ध अपराध और नरसंहार मामलों में अभियोजन करता है।
भारत ने अभी तक ICC के रोम संविधि (Rome Statute) की पुष्टि नहीं की है, लेकिन भारत युद्ध अपराधों के विरुद्ध जिम्मेदारी से व्यवहार करता है।
भारत का परिप्रेक्ष्य
भारत जिनीवा कन्वेंशन का पक्षकार है और उसका पालन करता है। भारतीय सशस्त्र बलों को युद्ध कानूनों के तहत प्रशिक्षण दिया जाता है। युद्धबंदियों और आम नागरिकों के प्रति व्यवहार में IHL के सिद्धांतों का सम्मान किया जाता है।
भारत ने पाकिस्तान युद्ध (1971) में 90,000 से अधिक युद्धबंदियों को जिनीवा कन्वेंशन के तहत रखा और युद्ध खत्म होने के बाद उन्हें सुरक्षित वापस लौटाया।
भारत की यह नीति रही है कि वह केवल आत्मरक्षा में या अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप बल प्रयोग करता है।
नवीन चुनौतियाँ और युद्ध कानून की प्रासंगिकता
वर्तमान युग में युद्ध के स्वरूप बदल गए हैं –
- हाइब्रिड युद्ध, साइबर युद्ध, और गैर-राज्य अभिनेताओं जैसे आतंकवादी संगठनों के द्वारा संघर्ष के नए रूप सामने आ रहे हैं।
- ड्रोन युद्ध, AI आधारित हथियार, और सूचना युद्ध ने मानवतावादी कानूनों के समक्ष नई जटिलताएँ उत्पन्न की हैं।
इनसे निपटने के लिए युद्ध कानूनों के अद्यतन की आवश्यकता है ताकि आधुनिक तकनीकों को भी नियंत्रित किया जा सके और मानवाधिकारों की रक्षा की जा सके।
निष्कर्ष
विवाद और युद्ध कानून, केवल विधिक ढांचा नहीं, बल्कि मानवता की रक्षा का प्रतीक है। यह सुनिश्चित करता है कि युद्ध जैसी अमानवीय परिस्थिति में भी कुछ नैतिक सीमाएँ बनी रहें और निर्दोष लोग उसकी चपेट में न आएँ। भारत सहित सभी देशों को युद्ध कानूनों का सम्मान करते हुए शांति, सह-अस्तित्व और न्याय को प्राथमिकता देनी चाहिए।