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“विलंबित न्याय, न्याय से वंचित होना” — क्या यह अब भी चेतावनी है या बन चुकी है कठोर वास्तविकता?

“विलंबित न्याय, न्याय से वंचित होना” — क्या यह अब भी चेतावनी है या बन चुकी है कठोर वास्तविकता?


भूमिका

Justice Delayed is Justice Denied” यानी “विलंबित न्याय, न्याय से वंचित होना” — यह वाक्य केवल एक कानूनी कहावत नहीं, बल्कि एक नैतिक सच्चाई है जो हर युग में प्रासंगिक रही है। इसका मूल अर्थ यह है कि जब न्याय मिलने में अत्यधिक देर हो जाती है, तो वह न्याय अपने अर्थ और उद्देश्य को खो देता है।

ब्रिटिश राजनेता विलियम ई. ग्लैडस्टोन द्वारा कही गई यह उक्ति आज विश्वभर की न्याय-प्रणालियों के लिए एक गूंजती हुई चेतावनी बन चुकी है। किंतु आज के दौर में यह प्रश्न उठता है — क्या यह केवल चेतावनी रह गई है, या अब यह हमारे समाज की कठोर सच्चाई बन चुकी है?

भारत जैसे देशों में, जहाँ अदालतों में करोड़ों मामले लंबित हैं, यह कहावत अब एक कटु सत्य बन चुकी है। न्यायिक प्रक्रिया में विलंब अब एक अपवाद नहीं, बल्कि एक आम अनुभव बन गया है।


अर्थ और महत्व

“विलंबित न्याय, न्याय से वंचित होना” का अर्थ यह है कि जब किसी व्यक्ति को उसके अधिकार या न्याय के लिए वर्षों तक इंतज़ार करना पड़ता है, तो वह न्याय नहीं बल्कि अन्याय बन जाता है।
न्याय तभी सार्थक होता है जब वह समय पर, प्रभावी और निष्पक्ष रूप से दिया जाए। यदि किसी मुकदमे को निपटाने में दशकों लग जाएं, तो पीड़ित व्यक्ति के लिए न्याय का मूल्य समाप्त हो जाता है।

अमेरिकी न्यायाधीश वॉरेन ई. बर्गर के शब्दों में —

“यदि अदालतों में विश्वास नहीं रहेगा, तो कानून की व्यवस्था का पूरा ढांचा टूट जाएगा — और न्याय में देरी उस विश्वास को नष्ट कर देती है।”


भारत में न्याय में देरी: एक गंभीर संकट

भारत में न्यायिक देरी आज एक राष्ट्रीय संकट का रूप ले चुकी है।
नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार 2025 तक:

  • 4.5 करोड़ से अधिक मामले निचली अदालतों में लंबित हैं।
  • 60 लाख से अधिक मामले उच्च न्यायालयों में लंबित हैं।
  • और 80,000 से अधिक मामले सर्वोच्च न्यायालय में निर्णय की प्रतीक्षा में हैं।

इन आंकड़ों के पीछे छिपे हैं — वर्षों से जेल में बंद अंडरट्रायल कैदी, मुआवजे की प्रतीक्षा में पीड़ित नागरिक, और वृद्धावस्था तक अदालतों के चक्कर काटते परिवार


न्याय में देरी के मुख्य कारण

  1. न्यायाधीशों की कमी:
    भारत में प्रति 10 लाख की आबादी पर केवल लगभग 21 न्यायाधीश हैं, जबकि विकसित देशों में यह संख्या 100 से अधिक है।
  2. लंबी कानूनी प्रक्रिया:
    बार-बार स्थगन (adjournments), गवाही में देरी, और प्रक्रिया की जटिलता मुकदमों को वर्षों तक खींच देती है।
  3. अदालतों में रिक्त पद:
    उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में सैकड़ों न्यायाधीशों के पद वर्षों से खाली पड़े हैं।
  4. ढांचा और संसाधनों की कमी:
    ग्रामीण इलाकों की अदालतों में आधुनिक सुविधाओं, डिजिटलीकरण और रिकॉर्ड प्रबंधन का अभाव है।
  5. वकीलों द्वारा देरी की रणनीति:
    कई मामलों में पक्षकार जानबूझकर झूठी दलीलों या स्थगन याचिकाओं के माध्यम से मुकदमे को लटकाते हैं।
  6. सरकारी मुकदमों का ढेर:
    भारत में लगभग 60% से अधिक मामले किसी न किसी रूप में सरकार से संबंधित हैं — जहाँ अपील दर अत्यधिक है, जिससे बोझ और बढ़ जाता है।

देरी के दुष्परिणाम

  1. निर्दोषों की पीड़ा:
    हजारों लोग ऐसे हैं जो वर्षों से जेल में हैं, जबकि उन पर अपराध साबित भी नहीं हुआ।
  2. विश्वास की कमी:
    न्याय में देरी से जनता का न्यायपालिका में विश्वास कमजोर होता है।
  3. आर्थिक बोझ:
    मुकदमों के वर्षों चलने से पक्षकारों पर वकील, दस्तावेज़ और अदालत की फीस का भारी खर्च पड़ता है।
  4. न्याय का उद्देश्य विफल:
    न्याय का उद्देश्य शांति और स्थिरता देना है; लेकिन यदि न्याय वर्षों बाद मिले तो उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता।

न्यायपालिका के सुधार के प्रयास

  1. ई-कोर्ट (E-Courts) प्रोजेक्ट:
    अदालतों में डिजिटल रिकॉर्ड, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, और ऑनलाइन फाइलिंग से मामलों की सुनवाई तेज हुई है।
  2. फास्ट ट्रैक कोर्ट्स:
    बलात्कार, हत्या और आर्थिक अपराधों के मामलों के लिए विशेष अदालतें स्थापित की गई हैं।
  3. वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR):
    मध्यस्थता (Mediation), सुलह (Conciliation) और पंचाट (Arbitration) के माध्यम से अदालतों का बोझ कम किया जा रहा है।
  4. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) पर चर्चा:
    न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी और तेज़ बनाने के लिए लगातार सुधारों की मांग की जा रही है।

महत्वपूर्ण न्यायिक टिप्पणियाँ

  1. हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979)
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “त्वरित न्याय प्राप्त करना अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है।”
  2. A.R. Antulay बनाम R.S. Nayak (1992)
    कोर्ट ने कहा कि “यदि मुकदमे में अनुचित विलंब होता है, तो यह आरोपी के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।”
  3. Supreme Court Observation (2020):
    “न्याय में देरी, अन्याय के बराबर है। जब न्याय में समय की कोई निश्चितता नहीं, तो न्यायिक व्यवस्था पर लोगों का भरोसा खत्म हो जाता है।”

क्या समाधान संभव है?

  • न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना।
  • प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी बनाना।
  • विवाद समाधान के वैकल्पिक तरीकों को प्रोत्साहित करना।
  • सरकारी मुकदमों की संख्या कम करना।
  • तकनीक आधारित केस मैनेजमेंट सिस्टम लागू करना।

निष्कर्ष

Justice Delayed is Justice Denied” अब कोई चेतावनी मात्र नहीं रही — यह भारत की न्याय व्यवस्था की वास्तविकता बन चुकी है।
जहाँ लाखों लोग वर्षों से न्याय की प्रतीक्षा में हैं, वहाँ न्याय का उद्देश्य अधूरा रह जाता है।
न्याय तभी सार्थक है जब वह समय पर, निष्पक्ष और सुगम हो।

यदि हमें अपने संविधान के मूल सिद्धांतों — समानता, स्वतंत्रता और न्याय — को जीवित रखना है, तो न्याय प्रणाली को तेज़, सुलभ और पारदर्शी बनाना होगा।

क्योंकि सच यही है —

“जब तक न्याय समय पर नहीं मिलेगा, तब तक न्याय मिलेगा ही नहीं।”