“विभाजन वाद में वाद की अभ्यस्ति (Abatement) का सामान्य नियम लागू नहीं होता: इलाहाबाद उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय”

शीर्षक: “विभाजन वाद में वाद की अभ्यस्ति (Abatement) का सामान्य नियम लागू नहीं होता: इलाहाबाद उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय”
संदर्भ: 2025(2) Civil Court Cases (Allahabad)


परिचय

भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure – CPC) के अंतर्गत, जब वाद के किसी पक्षकार की मृत्यु हो जाती है और उसके उत्तराधिकारी को समय रहते वाद में प्रतिस्थापित नहीं किया जाता, तो सामान्यतः वाद अभ्यस्त (Abated) हो जाता है। हालांकि, विभाजन वाद (Suit for Partition) एक विशेष प्रकृति का दीवानी वाद होता है, जिसमें न्यायालयों ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि इसमें वाद की अभ्यस्ति का सामान्य नियम लागू नहीं होता।

2025 में दिए गए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक महत्त्वपूर्ण निर्णय ने इस सिद्धांत की पुनः पुष्टि की है कि विभाजन वाद में वाद की स्वाभाविक प्रवृत्ति और अधिकारों की प्रकृति ऐसी होती है कि इसकी सुनवाई मृतक पक्षकार की अनुपस्थिति में भी जारी रह सकती है, बशर्ते अन्य पक्षकारों के अधिकार सुरक्षित हों।


मामले की पृष्ठभूमि

इस मामले में:

  • एक पारिवारिक संपत्ति से संबंधित विभाजन वाद विचाराधीन था।
  • वाद के एक पक्षकार की मृत्यु हो गई और उसका विधिवत प्रतिस्थापन (Substitution) समय पर नहीं किया गया।
  • प्रतिवादी पक्ष ने दलील दी कि वाद मृतक के संबंध में पूर्ण रूप से अभ्यस्त (Entirely Abated) हो गया है और आगे नहीं चल सकता।

उच्च न्यायालय की प्रमुख टिप्पणियाँ

1. सामान्य नियम की भिन्नता:

कोर्ट ने कहा कि CPC के तहत सामान्यतः वाद का कोई पक्षकार यदि मर जाए और समय पर उसका प्रतिनिधि प्रतिस्थापित न किया जाए, तो वाद Order 22 Rule 3 & 4 CPC के तहत अभ्यस्त हो जाता है।
परंतु विभाजन वाद इस सामान्य नियम से अलग होता है।

2. विभाजन वाद की स्वाभाविक प्रकृति:

विभाजन वाद एक सह-स्वामित्व से संबंधित होता है, जिसमें सभी पक्षकारों के अधिकार स्वतंत्र और विभाज्य होते हैं। यदि एक पक्षकार की मृत्यु हो जाती है, तो उसका उत्तराधिकारी उसी संपत्ति पर हक का उत्तराधिकारी बन जाता है।

3. वाद की निरंतरता:

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विभाजन वाद व्यक्तिगत अधिकारों से अधिक पारिवारिक सह-स्वामित्व के निर्धारण का विषय है। अतः वाद को मृतक पक्षकार की मृत्यु के आधार पर समाप्त नहीं किया जा सकता, जब तक कि अन्य पक्षकार जीवित हों और मुकदमा आगे बढ़ सके।

4. न्यायिक दृष्टिकोण का संरक्षण:

अदालत ने यह भी कहा कि यदि वाद में सभी पक्षकारों के अधिकार उचित रूप से परिलक्षित हो रहे हों, तो वाद को जारी रखना न्यायिक संतुलन के हित में होगा।


न्यायालय का निर्णय

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि इस विभाजन वाद में वाद की अभ्यस्ति का सामान्य नियम लागू नहीं होता
  • मृतक पक्षकार की अनुपस्थिति वाद की पूर्ण समाप्ति का आधार नहीं हो सकती।
  • वाद को आगे चलाने की अनुमति दी गई।

न्यायिक सिद्धांत और प्रभाव

यह निर्णय निम्नलिखित सिद्धांतों को स्पष्ट करता है:

  1. विभाजन वाद व्यक्तिगत दावे नहीं बल्कि पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे का विषय है।
  2. मृत पक्षकार के अधिकार उत्तराधिकारियों को स्वतः हस्तांतरित हो जाते हैं।
  3. वाद की समाप्ति (Abatement) की अवधारणा को विभाजन वाद में अत्यंत सीमित रूप में देखा जाना चाहिए।

निष्कर्ष

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय दीवानी प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण दिशानिर्देशक है, विशेषकर विभाजन वादों में। यह न्यायिक प्रणाली को यथार्थ और व्यावहारिक बनाता है, जहाँ न्याय केवल प्रक्रिया की जकड़न में नहीं, बल्कि अधिकारों के वास्तविक निर्धारण में निहित है।


“संपत्ति के अधिकार मृत नहीं होते, वे उत्तराधिकारियों के माध्यम से जीवित रहते हैं — और न्याय भी।”