विधि का परिचय (Legal Method /Introduction to Law) Part-2

51. न्यायिक पुनरवलोकन (Judicial Review) क्या है?

न्यायिक पुनरवलोकन वह अधिकार है जिसके अंतर्गत उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय किसी विधि, आदेश या सरकारी कार्य को संविधान की कसौटी पर परखते हैं और यदि वह असंवैधानिक हो तो उसे रद्द कर सकते हैं। यह संविधान के अनुच्छेद 13, 32 और 226 में निहित है। न्यायिक पुनरवलोकन संविधान की सर्वोच्चता और मौलिक अधिकारों की रक्षा का गारंटी तंत्र है। यह विधायिका और कार्यपालिका की शक्ति पर नियंत्रण स्थापित करता है।


52. न्यायिक स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी क्या हैं?

भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने हेतु कई प्रावधान किए गए हैं:

  • न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
  • उनका वेतन संसद द्वारा नहीं घटाया जा सकता।
  • उन्हें केवल महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है।
  • न्यायपालिका कार्यपालिका से स्वतंत्र होती है।
  • न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
    इन गारंटियों से न्यायपालिका निष्पक्ष एवं स्वायत्त रूप से कार्य कर सकती है।

53. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में अंतर स्पष्ट करें।

  • विधायिका कानून बनाती है (जैसे – संसद)।
  • कार्यपालिका कानूनों को लागू करती है (जैसे – राष्ट्रपति, मंत्री, प्रशासन)।
  • न्यायपालिका कानून की व्याख्या करती है और न्याय प्रदान करती है (जैसे – न्यायालय)।
    तीनों अंग लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में संतुलन बनाए रखते हैं और एक-दूसरे पर नियंत्रण रखते हैं।

54. लोक हित याचिका (PIL) की विशेषताएँ क्या हैं?

  • कोई भी व्यक्ति जनहित में याचिका दायर कर सकता है।
  • यह गरीब, असहाय एवं वंचित वर्ग के अधिकारों की रक्षा करती है।
  • न्यायालय स्वयं संज्ञान लेकर कार्यवाही कर सकता है।
  • पर्यावरण, मानवाधिकार, प्रशासनिक कुप्रबंधन आदि क्षेत्रों में उपयोगी।
  • भारत में जजों द्वारा इसे सामाजिक न्याय का माध्यम बनाया गया है।

55. संविधान के अनुच्छेद 32 का महत्व क्या है?

अनुच्छेद 32 को “मौलिक अधिकारों का संरक्षक” कहा जाता है। इसके अंतर्गत कोई भी नागरिक यदि अपने मौलिक अधिकारों के हनन की शिकायत करता है तो वह सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट इस अधिकार की रक्षा हेतु हैबियस कॉर्पस, मैन्डमस, प्रोहिबिशन, सर्टियोरारी और क्वो वारंटो जैसे रिट जारी कर सकता है। इसे डॉ. अम्बेडकर ने संविधान का “हृदय और आत्मा” कहा है।


56. भारत में विधिक संस्थाओं के प्रकार क्या हैं?

भारत में विधिक संस्थाओं को निम्न श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:

  • विधायिका – संसद, राज्य विधानमंडल।
  • न्यायपालिका – सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, निचली अदालतें।
  • प्रशासनिक निकाय – पुलिस, सीबीआई, सतर्कता आयोग।
  • विधिक सेवा प्राधिकरण – NALSA, राज्य एवं जिला विधिक सेवा संस्थाएं।
  • विधिक शिक्षा संस्थाएं – विश्वविद्यालय, NLU आदि।

57. न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिक्रमण में अंतर स्पष्ट करें।

न्यायिक सक्रियता का अर्थ है न्यायालय द्वारा जनहित में कार्य करना, जैसे – पी.आई.एल., पर्यावरण संरक्षण।
न्यायिक अतिक्रमण तब होता है जब न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करती है, जो संविधान की शक्ति पृथक्करण (Separation of Powers) के सिद्धांत के विरुद्ध है।
सक्रियता सकारात्मक है, जबकि अतिक्रमण अलोकतांत्रिक माना जाता है।


58. भारत में अधिवक्ताओं की भूमिका क्या है?

अधिवक्ता न्यायालय में मुवक्किल का प्रतिनिधित्व करते हैं, विधिक सलाह देते हैं और न्याय प्राप्ति में सहयोग करते हैं। वे न्याय प्रणाली के एक अभिन्न अंग हैं और न्याय के पक्षधर होते हैं। उन्हें उच्च नैतिकता और गोपनीयता बनाए रखनी होती है। बार काउंसिल द्वारा उनके आचरण को नियंत्रित किया जाता है।


59. बार काउंसिल ऑफ इंडिया क्या है?

बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) एक वैधानिक निकाय है जिसे Advocates Act, 1961 के तहत स्थापित किया गया है। इसका कार्य अधिवक्ताओं का पंजीकरण, आचरण संहिता बनाना, विधिक शिक्षा को नियंत्रित करना और अनुशासन बनाए रखना है। यह अधिवक्ताओं के हितों की रक्षा करता है और कानूनी पेशे की गुणवत्ता सुनिश्चित करता है।


60. अधिवक्ताओं की नैतिक जिम्मेदारियाँ क्या हैं?

अधिवक्ता की प्रमुख नैतिक जिम्मेदारियाँ हैं:

  • मुवक्किल की गोपनीयता बनाए रखना।
  • न्यायालय में सत्य प्रस्तुत करना।
  • झूठे मामलों से बचना।
  • न्यायाधीशों, साथियों और मुवक्किलों से सम्मानपूर्वक व्यवहार करना।
  • व्यक्तिगत हित की बजाय न्याय को प्राथमिकता देना।
    अधिवक्ता विधि और समाज के बीच सेतु होते हैं।

61. संविधान की सर्वोच्चता का क्या अर्थ है?

भारत में संविधान सर्वोच्च कानून है। संसद, राज्य, न्यायालय, कार्यपालिका सभी संविधान के अधीन हैं। यदि कोई कानून संविधान का उल्लंघन करता है तो न्यायालय उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है। संविधान की सर्वोच्चता लोकतंत्र, मौलिक अधिकार और न्याय व्यवस्था की नींव है।


62. विधिक समानता का क्या तात्पर्य है?

विधिक समानता का अर्थ है कि कानून सभी पर समान रूप से लागू होगा। कोई व्यक्ति विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होगा। यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित है। इसका उद्देश्य सामाजिक भेदभाव को समाप्त कर न्याय और समानता की स्थापना करना है।


63. भारत में विधिक परंपराएँ कौन-सी हैं?

भारत की विधिक परंपराएँ मिश्रित प्रकृति की हैं:

  • अंग्रेज़ी सामान्य विधि (Common Law)
  • धार्मिक विधि (हिंदू विधि, मुस्लिम विधि)
  • संवैधानिक विधि
  • आदिवासी और customary कानून
    भारत की विधि परंपराएँ विविधतापूर्ण और ऐतिहासिक रूप से समृद्ध हैं।

64. न्यायिक निर्णयों का विधि में क्या महत्व है?

न्यायिक निर्णय विधि के स्रोत हैं, विशेषकर जब विधान मौन होता है। उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय आने वाले मामलों में मार्गदर्शक होते हैं। doctrine of precedent के अनुसार निचली अदालतें उच्च न्यायालयों के निर्णयों का पालन करती हैं, जिससे न्याय में स्थिरता आती है।


65. संविधान के अनुच्छेद 226 का महत्व क्या है?

अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को यह शक्ति प्राप्त है कि वे किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकार या विधिक अधिकार के उल्लंघन की स्थिति में रिट जारी करें। यह अधिकार अनुच्छेद 32 से व्यापक है क्योंकि यह केवल मौलिक अधिकारों तक सीमित नहीं है, बल्कि अन्य कानूनी अधिकारों की रक्षा हेतु भी प्रयोग में आता है।


66. विधिक व्यक्तित्व (Legal Personality) का अर्थ समझाइए।

विधिक व्यक्तित्व का अर्थ है कि किसी व्यक्ति या संस्था को कानून द्वारा अधिकार और दायित्वों के साथ एक स्वतंत्र इकाई के रूप में मान्यता दी जाती है। यह दो प्रकार के होते हैं:

  1. प्राकृतिक व्यक्ति (Natural Person) – सामान्य मनुष्य।
  2. कृत्रिम या विधिक व्यक्ति (Legal Person) – जैसे कंपनियाँ, ट्रस्ट, निगम आदि।
    ये विधिक इकाइयाँ संपत्ति रख सकती हैं, मुकदमा कर सकती हैं और उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है। विधिक व्यक्तित्व कानून द्वारा दिया गया एक विशेष अधिकार है।

67. विधिक कर्तव्य (Legal Duty) क्या होता है?

विधिक कर्तव्य वह दायित्व है जो किसी व्यक्ति पर कानून द्वारा लागू किया गया हो। यदि कोई व्यक्ति उस कर्तव्य का उल्लंघन करता है, तो उसे दंड या क्षतिपूर्ति का सामना करना पड़ सकता है। जैसे – कर देना, कानून का पालन करना, न्यायालय के आदेश का सम्मान करना आदि। विधिक कर्तव्य सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने का साधन है।


68. विधिक क्षमता (Legal Capacity) क्या है?

विधिक क्षमता का अर्थ है कि कोई व्यक्ति कानूनन अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकता है और विधिक दायित्वों का निर्वहन कर सकता है। जैसे – अनुबंध करना, संपत्ति रखना, वसीयत करना आदि। यह क्षमता उम्र, मानसिक स्थिति, और कानून की सीमाओं पर निर्भर करती है। जैसे, नाबालिग या पागल व्यक्ति की विधिक क्षमता सीमित होती है।


69. विधि में दंड का उद्देश्य क्या है?

दंड का उद्देश्य अपराध को रोकना, अपराधी को सुधारना, पीड़ित को न्याय देना और समाज में अनुशासन बनाए रखना है। यह दंडात्मक (Punitive), सुधारात्मक (Reformative), निवारक (Preventive), और प्रतिशोधात्मक (Retributive) हो सकता है। भारतीय दंड संहिता में दंड के रूप जैसे – कारावास, जुर्माना, मृत्युदंड आदि निर्धारित किए गए हैं।


70. न्यायिक सक्रियता के लाभ और हानियाँ लिखिए।

लाभ:

  • आम जनता को न्याय सुलभ कराना।
  • पर्यावरण संरक्षण, मानवाधिकारों की रक्षा।
  • प्रशासनिक जवाबदेही बढ़ाना।

हानियाँ:

  • न्यायिक अतिक्रमण का खतरा।
  • विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप।
  • न्यायिक संसाधनों पर अतिरिक्त भार।

इसलिए न्यायिक सक्रियता संतुलन और मर्यादा के साथ होनी चाहिए।


71. भारत में विधिक सहायता अधिनियम, 1987 का उद्देश्य क्या है?

Legal Services Authorities Act, 1987 का उद्देश्य आर्थिक या सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को नि:शुल्क विधिक सहायता प्रदान करना है ताकि उन्हें न्याय से वंचित न रहना पड़े। इसके अंतर्गत NALSA (National Legal Services Authority), राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की स्थापना की गई। यह अधिनियम न्याय तक समान पहुँच सुनिश्चित करता है।


72. न्यायालय के रिट (Writs) कितने प्रकार के होते हैं?

भारत में पाँच प्रकार के रिट उपलब्ध हैं:

  1. Habeas Corpus – किसी व्यक्ति को गैरकानूनी हिरासत से मुक्त कराना।
  2. Mandamus – किसी अधिकारी को उसका कर्तव्य निभाने हेतु बाध्य करना।
  3. Prohibition – निचली अदालत को कार्यवाही से रोकना।
  4. Certiorari – निचली अदालत के आदेश को रद्द करना।
  5. Quo-Warranto – किसी व्यक्ति से अधिकार का वैध आधार पूछना।

ये रिट मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु प्रभावी साधन हैं।


73. विधिक नियम (Legal Rule) और नैतिक नियम (Moral Rule) में अंतर स्पष्ट करें।

  • विधिक नियम कानून द्वारा बनाए जाते हैं और बाध्यकारी होते हैं।
  • नैतिक नियम समाज और व्यक्ति की आंतरिक आस्थाओं पर आधारित होते हैं।
    विधिक नियम का उल्लंघन दंडनीय होता है, जबकि नैतिक नियम का उल्लंघन सामाजिक निंदा तक सीमित रहता है।
    उदाहरण: चोरी करना विधिक और नैतिक दोनों दृष्टि से गलत है, लेकिन झूठ बोलना नैतिक रूप से गलत है, कानूनन नहीं।

74. विधि के बिना समाज कैसा होगा?

विधि के बिना समाज में अराजकता फैल जाएगी। कोई भी व्यक्ति सुरक्षित नहीं होगा, अधिकारों की रक्षा नहीं हो सकेगी और शक्तिशाली वर्ग कमजोरों का शोषण करेगा। विधि समाज को नियंत्रित करती है, विवादों का समाधान देती है और न्याय स्थापित करती है। बिना विधि के समाज जंगल के नियमों पर चलने लगेगा जहाँ “जिसकी लाठी उसकी भैंस” सिद्धांत लागू होगा।


75. न्याय की अवधारणा में ‘प्राकृतिक न्याय’ का क्या स्थान है?

प्राकृतिक न्याय न्याय की आत्मा है। यह केवल विधि के नियमों से नहीं, बल्कि नैतिकता, निष्पक्षता और सुनवाई के सिद्धांतों पर आधारित होता है। इसके दो मुख्य सिद्धांत हैं –

  1. कोई व्यक्ति स्वयं अपने मामले का न्यायाधीश नहीं हो सकता।
  2. दोनों पक्षों को सुनना अनिवार्य है।
    प्राकृतिक न्याय का पालन न्यायालय, प्रशासनिक निकायों और अनुशासनात्मक समितियों पर लागू होता है।

76. कानून का सामाजिक नियंत्रण में क्या योगदान है?

कानून समाज को नियंत्रित करता है और यह निर्धारित करता है कि क्या करना उचित है और क्या अनुचित। यह व्यवहार को निर्देशित करता है, सामाजिक अनुशासन बनाए रखता है और व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करता है। कानून के माध्यम से अपराधों की रोकथाम, विवादों का समाधान और सामाजिक न्याय की स्थापना होती है।


77. विधि की आवश्यकता क्यों होती है?

विधि समाज में व्यवस्था बनाए रखने, व्यक्तियों के अधिकारों और कर्तव्यों को निर्धारित करने, विवादों को सुलझाने, और न्याय स्थापित करने के लिए आवश्यक है। यह लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करती है और सामाजिक जीवन को सुचारू बनाती है। बिना विधि के कोई भी समाज सुरक्षित और संगठित नहीं रह सकता।


78. कानून और समाज का संबंध स्पष्ट करें।

कानून और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। समाज की आवश्यकताओं के अनुसार कानून बनता है और कानून समाज को दिशा देता है। कानून समाज में नैतिक मूल्यों, समानता, और न्याय की स्थापना करता है। जब समाज में परिवर्तन होता है तो कानून भी संशोधित होता है। इस प्रकार दोनों में परस्पर प्रभाव का संबंध है।


79. विधिक पद्धति का अध्ययन क्यों आवश्यक है?

विधिक पद्धति कानून को पढ़ने, समझने, विश्लेषण करने और उसे व्यावहारिक रूप से लागू करने की प्रणाली है। यह कानून की व्याख्या, तर्कशक्ति, दृष्टांतों का अध्ययन और विधिक लेखन की क्षमता को विकसित करती है। विधि के छात्रों, न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं के लिए यह आवश्यक उपकरण है।


80. कानून का विकास कैसे होता है?

कानून का विकास समाज की बदलती आवश्यकताओं, न्यायिक निर्णयों, विधायिका द्वारा अधिनियमित कानूनों, रीति-रिवाजों और सामाजिक आंदोलनों से होता है। जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन आता है, कानून में भी संशोधन और नवाचार होता है। उदाहरण: सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 – डिजिटल युग की आवश्यकता से उत्पन्न हुआ।


81. विधिक शोध (Legal Research) के स्रोत कौन-से हैं?

विधिक शोध के मुख्य स्रोत हैं:

  1. प्राथमिक स्रोत – संविधान, अधिनियम, न्यायिक निर्णय।
  2. द्वितीयक स्रोत – विधिवेत्ताओं की पुस्तकें, शोधपत्र, जर्नल।
  3. ऑनलाइन स्रोत – SCC Online, Manupatra, Indiankanoon आदि।
    ये स्रोत विधिक समस्या के समाधान, निर्णय लेखन और तर्क प्रस्तुति में सहायक होते हैं।

82. कानून की व्याख्या के नियम कौन-कौन से हैं?

कानून की व्याख्या हेतु प्रमुख नियम हैं:

  1. शाब्दिक नियम (Literal Rule)
  2. स्वर्ण नियम (Golden Rule)
  3. दोष निराकरण नियम (Mischief Rule)
  4. प्रत्यायोजित व्याख्या (Purposive Rule)
    इन नियमों का प्रयोग न्यायालय विधि की मंशा को स्पष्ट करने हेतु करता है।

83. अधिनियम और कानून में क्या अंतर है?

अधिनियम (Act) संसद या विधानमंडल द्वारा पारित विशिष्ट कानून होता है, जैसे भारतीय दंड संहिता अधिनियम, 1860।
कानून (Law) एक व्यापक शब्द है जिसमें अधिनियम, नियम, अध्यादेश, परंपरा, और न्यायिक निर्णय शामिल होते हैं।
हर अधिनियम कानून है, परंतु हर कानून अधिनियम नहीं।


84. विधिक प्रणाली में न्यायपालिका की भूमिका क्या है?

न्यायपालिका विधियों की व्याख्या करती है, विवादों का समाधान करती है, और संविधान की रक्षा करती है। यह विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की वैधता की समीक्षा भी करती है। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायपालिका की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।


85. कानून और नैतिकता में सामंजस्य कैसे संभव है?

यद्यपि कानून और नैतिकता अलग हैं, फिर भी दोनों में घनिष्ठ संबंध है। कानून सामाजिक नैतिकता को कानूनी रूप प्रदान करता है, जैसे – हत्या, बलात्कार आदि। एक आदर्श कानून वह होता है जो नैतिकता पर आधारित हो। न्यायपूर्ण कानून वही है जो नैतिक और व्यवहारिक दोनों हो।


86. विधिक व्यवस्था और प्रशासनिक व्यवस्था में अंतर बताइए।

  • विधिक व्यवस्था – कानून बनाने, लागू करने और न्याय देने की संपूर्ण प्रक्रिया।
  • प्रशासनिक व्यवस्था – राज्य के शासन और नीति के कार्यान्वयन से संबंधित होती है।
    विधिक व्यवस्था न्यायालयों के माध्यम से कार्य करती है, जबकि प्रशासनिक व्यवस्था सरकारी अधिकारियों के माध्यम से।

87. कानून को लागू करने में न्यायालय की भूमिका क्या है?

न्यायालय कानून को व्याख्यायित और लागू करता है। यह विवादों का समाधान करता है और यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन होता है तो उसे संरक्षण प्रदान करता है। न्यायालय कानून की भावना के अनुसार निर्णय देता है और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा भी करता है।


88. विधि और न्याय के बीच संबंध स्पष्ट करें।

विधि और न्याय में गहरा संबंध है। विधि वह साधन है जिसके द्वारा न्याय को क्रियान्वित किया जाता है। न्याय एक नैतिक और आदर्श स्थिति है, जबकि विधि एक औपचारिक और कानूनी प्रक्रिया है। जब विधि निष्पक्ष, समान और तर्कसंगत होती है, तब वह न्यायपूर्ण होती है। यदि कानून अन्यायपूर्ण हो तो समाज में असंतोष उत्पन्न होता है। इसीलिए न्याय को विधि का आत्मा कहा जाता है।


89. न्याय का सिद्धांत “Audi Alteram Partem” क्या है?

“Audi Alteram Partem” एक लैटिन सिद्धांत है जिसका अर्थ है – “दूसरे पक्ष को भी सुना जाए”। यह प्राकृतिक न्याय का एक मूलभूत सिद्धांत है। इसके अनुसार किसी भी व्यक्ति को दंडित करने या निर्णय देने से पूर्व उसे अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर मिलना चाहिए। यह सिद्धांत न्यायालय, प्रशासनिक निकायों और अनुशासनात्मक प्राधिकरणों पर समान रूप से लागू होता है।


90. “Nemo Judex in Causa Sua” सिद्धांत क्या है?

इस सिद्धांत का अर्थ है – “कोई व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता”। यह भी प्राकृतिक न्याय का प्रमुख सिद्धांत है। इसका उद्देश्य निर्णय प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाना है। यदि किसी मामले में निर्णयकर्ता का कोई निजी हित या पक्ष हो, तो वह न्याय की निष्पक्षता को प्रभावित कर सकता है। इसलिए न्यायपालिका में पक्षपात से बचने हेतु यह सिद्धांत अत्यंत आवश्यक है।


91. विधि का स्रोत (Sources of Law) क्या हैं?

विधि के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं:

  1. संविधान – सर्वोच्च विधिक दस्तावेज।
  2. विधान (Legislation) – संसद द्वारा बनाए गए अधिनियम।
  3. न्यायिक निर्णय (Judicial Precedents)
  4. रीति-रिवाज (Customs)
  5. विद्वानों की राय (Juristic Writings)
    इन स्रोतों के माध्यम से विधि का विकास और निर्माण होता है।

92. ‘Doctrine of Precedent’ क्या है?

यह सिद्धांत कहता है कि न्यायालयों के पूर्व निर्णय भविष्य के समान मामलों में मार्गदर्शक होते हैं। उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय निचली अदालतों पर बाध्यकारी होते हैं। यह विधि में स्थिरता, समानता और पूर्वानुमेयता सुनिश्चित करता है। यह सामान्य विधि प्रणाली की एक अनिवार्य विशेषता है।


93. विधिक अधिकारों के प्रकार क्या हैं?

विधिक अधिकार मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं:

  1. सार्वजनिक अधिकार – जैसे मतदान का अधिकार।
  2. निजी अधिकार – जैसे संपत्ति का अधिकार, अनुबंध का अधिकार।
  3. संवैधानिक अधिकार – मौलिक अधिकार, विधिक उपचार का अधिकार।
    इन अधिकारों की रक्षा हेतु व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकता है।

94. विधि और अनुशासन में क्या अंतर है?

विधि राज्य द्वारा बनाई गई औपचारिक और बाध्यकारी व्यवस्था है, जबकि अनुशासन आंतरिक रूप से स्वीकृत नैतिक या सामाजिक नियमों का पालन है। विधि का उल्लंघन दंडनीय होता है जबकि अनुशासनहीनता सामाजिक या संस्थागत दंड ला सकती है। विधि अधिक कठोर और औपचारिक होती है, जबकि अनुशासन अधिक लचीला और आत्मनियंत्रण पर आधारित होता है।


95. विधि का उद्भव कैसे हुआ?

विधि का उद्भव मानव सभ्यता के विकास के साथ हुआ। प्रारंभ में समाज रीति-रिवाजों और परंपराओं से संचालित था। जैसे-जैसे समाज जटिल होता गया, विवादों को सुलझाने और अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित विधिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ी। विभिन्न सभ्यताओं जैसे – मणु स्मृति, हम्मूराबी संहिता, रोमन कानून और इंग्लिश कॉमन लॉ ने विधि के विकास में योगदान दिया।


96. न्यायालय का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction) क्या होता है?

क्षेत्राधिकार वह अधिकार है जिसके अंतर्गत कोई न्यायालय किसी विवाद को सुनने और निर्णय देने में सक्षम होता है। यह तीन प्रकार का होता है:

  1. विषयगत (Subject matter)
  2. स्थानिक (Territorial)
  3. व्यक्तिगत (Personal)
    उदाहरण: सिविल, आपराधिक, संवैधानिक, परिवार न्यायालय आदि के अधिकार क्षेत्र भिन्न होते हैं।

97. विधिक प्रक्रिया (Legal Process) क्या है?

विधिक प्रक्रिया वह संगठित प्रणाली है जिसके अंतर्गत किसी कानूनी विवाद का समाधान किया जाता है। इसमें शामिल होते हैं:

  • वादी और प्रतिवादी
  • याचिका दाखिल करना
  • साक्ष्य प्रस्तुत करना
  • तर्क देना
  • न्यायालय द्वारा निर्णय देना
    यह प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए ताकि न्याय सुलभ और सशक्त हो।

98. विधिक शिक्षा का महत्व क्या है?

विधिक शिक्षा का उद्देश्य योग्य अधिवक्ताओं, न्यायाधीशों और न्यायविदों को तैयार करना है। यह छात्रों में विधिक ज्ञान, तर्कशक्ति, नैतिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व विकसित करती है। विधिक शिक्षा समाज में विधिक चेतना और न्याय के प्रसार का माध्यम भी है।


99. विधिक उत्तरदायित्व (Legal Liability) क्या है?

विधिक उत्तरदायित्व वह स्थिति है जब कोई व्यक्ति अपने कृत्य या चूक के कारण कानूनन दायित्व में आता है और उसे दंड या क्षतिपूर्ति देनी पड़ती है। यह दो प्रकार की होती है:

  1. दीवानी (Civil liability) – जैसे अनुबंध का उल्लंघन।
  2. आपराधिक (Criminal liability) – जैसे हत्या, चोरी।
    उत्तरदायित्व व्यक्ति के दायित्व और न्याय की स्थापना का मापक होता है।

100. विधिक जागरूकता अभियान का क्या महत्व है?

विधिक जागरूकता अभियान नागरिकों को उनके अधिकारों, कर्तव्यों और कानूनी उपायों की जानकारी देने हेतु चलाए जाते हैं। यह अभियान लोगों को अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने की शक्ति देता है और न्यायिक सहायता प्राप्त करने के साधनों से अवगत कराता है। NALSA और राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण समय-समय पर स्कूलों, गांवों और अन्य संस्थानों में ऐसे अभियान चलाते हैं।