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विदेश में फंसी भारतीय बेटी की पुकार: दिल्ली हाईकोर्ट का ऐतिहासिक हस्तक्षेप V. Thirunavukkarasu बनाम Union of India & Anr.

विदेश में फंसी भारतीय बेटी की पुकार: दिल्ली हाईकोर्ट का ऐतिहासिक हस्तक्षेप V. Thirunavukkarasu बनाम Union of India & Anr.

— भारतीय नागरिकों की विदेशों में सुरक्षा पर न्यायिक सक्रियता का सशक्त उदाहरण


भूमिका

        वैश्वीकरण के इस दौर में भारतीय नागरिक शिक्षा, रोजगार, विवाह और व्यापार के लिए बड़ी संख्या में विदेशों की ओर रुख कर रहे हैं। खाड़ी देशों, विशेषकर दुबई जैसे महानगरों में भारतीय महिलाओं की एक बड़ी आबादी निवास करती है। किंतु जब कोई भारतीय नागरिक—विशेष रूप से कोई महिला—विदेश में शोषण, हिंसा या अवैध हिरासत का शिकार होती है, तब प्रश्न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नहीं रहता, बल्कि वह राज्य की संवैधानिक जिम्मेदारी, मानवाधिकारों की रक्षा, और राजनयिक उत्तरदायित्व से जुड़ जाता है।

      इसी संदर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह आदेश अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें अदालत ने विदेश मंत्रालय (MEA) और दुबई स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास (Consulate General of India) को निर्देश दिया कि वे दुबई में कथित रूप से बंधक बनाकर रखी गई और शारीरिक रूप से प्रताड़ित की जा रही 25 वर्षीय भारतीय महिला की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तत्काल और प्रभावी कदम उठाएं।

      यह मामला V. Thirunavukkarasu बनाम Union of India & Anr. के नाम से न्यायिक विमर्श में आया, जिसने विदेशों में फंसे भारतीय नागरिकों की सुरक्षा से जुड़ी नीतियों और व्यवहारिक तंत्र पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए।


मामले की पृष्ठभूमि

     याचिकाकर्ता V. Thirunavukkarasu, जो पीड़िता के निकट संबंधी बताए गए हैं, ने दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाते हुए यह गंभीर आरोप लगाया कि—

  • पीड़िता, एक 25 वर्षीय भारतीय महिला, दुबई में एक विदेशी नागरिक के साथ रह रही थी;
  • उक्त विदेशी नागरिक द्वारा महिला को जबरन बंदी बनाकर रखा गया;
  • महिला के साथ नियमित शारीरिक हिंसा और मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा है;
  • उसका पासपोर्ट और संचार साधन छीन लिए गए हैं;
  • भारत लौटने या स्थानीय अधिकारियों से संपर्क करने से उसे रोका जा रहा है।

       याचिका में यह भी कहा गया कि परिवार द्वारा कई बार विदेश मंत्रालय और भारतीय दूतावास से संपर्क किया गया, किंतु स्थिति की गंभीरता के अनुरूप तत्काल कार्रवाई नहीं हुई, जिससे महिला का जीवन और स्वतंत्रता गंभीर खतरे में है।


न्यायालय के समक्ष प्रमुख विधिक प्रश्न

        दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष यह मामला केवल तथ्यों तक सीमित नहीं था, बल्कि इसके साथ कई महत्वपूर्ण संवैधानिक और विधिक प्रश्न भी जुड़े थे, जैसे—

  1. क्या भारत सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह विदेश में रह रहे अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करे?
  2. क्या अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का विस्तार विदेशों में रह रहे भारतीय नागरिकों तक होता है?
  3. यदि कोई भारतीय महिला विदेश में हिंसा और अवैध हिरासत का शिकार हो, तो भारतीय न्यायालय किस हद तक हस्तक्षेप कर सकते हैं?
  4. विदेश मंत्रालय और दूतावास की निष्क्रियता पर न्यायिक निर्देश दिए जा सकते हैं या नहीं?

दिल्ली हाईकोर्ट का दृष्टिकोण

     दिल्ली हाईकोर्ट ने मामले की अत्यधिक संवेदनशीलता और तात्कालिकता को देखते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि—

“राज्य अपने नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा के दायित्व से तब भी मुक्त नहीं हो जाता, जब वे भारत की भौगोलिक सीमाओं के बाहर हों।”

अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि—

  • भारतीय दूतावास केवल एक औपचारिक कार्यालय नहीं है, बल्कि वह विदेश में भारत का संवैधानिक विस्तार है;
  • यदि किसी भारतीय नागरिक—विशेष रूप से महिला—को विदेश में शोषण या हिंसा का सामना करना पड़ रहा है, तो दूतावास और MEA की सक्रिय भूमिका अनिवार्य हो जाती है।

अदालत द्वारा जारी निर्देश

      दिल्ली हाईकोर्ट ने विदेश मंत्रालय और दुबई स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास को निम्नलिखित निर्देश जारी किए—

  1. तत्काल हस्तक्षेप कर पीड़िता के वर्तमान ठिकाने और स्थिति की जानकारी प्राप्त की जाए;
  2. स्थानीय दुबई प्रशासन और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के साथ राजनयिक समन्वय स्थापित किया जाए;
  3. यह सुनिश्चित किया जाए कि महिला—
    • सुरक्षित वातावरण में हो,
    • किसी प्रकार की हिंसा या दबाव का शिकार न हो,
    • स्वतंत्र रूप से भारत लौटने या कानूनी सहायता लेने का निर्णय ले सके;
  4. आवश्यकता पड़ने पर महिला को काउंसलिंग, मेडिकल सहायता और कानूनी संरक्षण उपलब्ध कराया जाए;
  5. अदालत को की गई कार्रवाई की स्थिति रिपोर्ट (Status Report) प्रस्तुत की जाए।

अनुच्छेद 21 और विदेश में रह रहे भारतीय नागरिक

       यह निर्णय एक बार फिर इस सिद्धांत को मजबूत करता है कि—

अनुच्छेद 21 केवल भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि वह नागरिकता से जुड़ा अधिकार है।

पूर्व में भी भारतीय न्यायालय यह मान चुके हैं कि—

  • यदि राज्य के पास किसी नागरिक की सहायता करने की क्षमता और माध्यम उपलब्ध हैं,
  • और फिर भी वह निष्क्रिय रहता है, तो यह संवैधानिक दायित्व का उल्लंघन माना जाएगा।

महिला अधिकार और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार परिप्रेक्ष्य

       यह मामला केवल भारतीय कानून तक सीमित नहीं है, बल्कि यह—

  • CEDAW (Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination Against Women),
  • अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों,
  • और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के वैश्विक निषेध

से भी गहराई से जुड़ा हुआ है।

दिल्ली हाईकोर्ट का यह हस्तक्षेप यह संदेश देता है कि—

“भारतीय महिला की गरिमा और सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जा सकता, चाहे वह किसी भी देश में क्यों न हो।”


विदेश मंत्रालय और दूतावास की भूमिका पर प्रश्न

        यह मामला विदेश मंत्रालय की कार्यप्रणाली पर भी आत्ममंथन का अवसर प्रदान करता है—

  • क्या सभी शिकायतों को समान गंभीरता से लिया जाता है?
  • क्या दूतावासों के पास पर्याप्त संसाधन और स्पष्ट SOPs हैं?
  • क्या विदेश में फंसी महिलाओं के लिए 24×7 आपात तंत्र प्रभावी ढंग से काम कर रहा है?

अदालत के निर्देश यह स्पष्ट करते हैं कि राजनयिक चुप्पी अब स्वीकार्य नहीं है


निष्कर्ष

       V. Thirunavukkarasu बनाम Union of India & Anr. का यह मामला केवल एक महिला की सुरक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह—

  • विदेशों में रह रहे लाखों भारतीयों के अधिकारों की पुनः पुष्टि करता है;
  • राज्य की संवैधानिक जिम्मेदारियों को स्पष्ट करता है;
  • और यह संदेश देता है कि न्यायालय मानवाधिकारों के संरक्षण में अंतिम प्रहरी है

       दिल्ली हाईकोर्ट का यह आदेश आने वाले समय में उन सभी मामलों के लिए नज़ीर (precedent) बनेगा, जहां भारतीय नागरिक विदेश में असहाय स्थिति में हों और राज्य की निष्क्रियता उन्हें खतरे में डाल रही हो।