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“वाहन की संलिप्तता सिद्ध नहीं, गवाहों के बयान परस्पर विरोधी, अभियोजन साक्ष्य अविश्वसनीय – ऐसी दोषसिद्धि कानूनन अस्थिर”: सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया

“वाहन की संलिप्तता सिद्ध नहीं, गवाहों के बयान परस्पर विरोधी, अभियोजन साक्ष्य अविश्वसनीय – ऐसी दोषसिद्धि कानूनन अस्थिर”: सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया


भूमिका (Introduction)

      भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली का सबसे बुनियादी सिद्धांत यह है कि अभियोजन को आरोपी का अपराध ‘संदेह से परे’ (Beyond Reasonable Doubt) सिद्ध करना होता है। केवल शक, अनुमान, भावनात्मक सहानुभूति या अपूर्ण जाँच के आधार पर किसी व्यक्ति को दोषी ठहराना संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।

       इसी सिद्धांत को सुदृढ़ करते हुए सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह कहा कि—

यदि किसी आपराधिक मामले में यह ही सिद्ध न हो पाए कि कथित अपराध में वही वाहन शामिल था, गवाहों के बयान आपस में गंभीर रूप से विरोधाभासी हों और अभियोजन साक्ष्य विश्वसनीयता की कसौटी पर खरा न उतरता हो, तो ऐसी स्थिति में दोषसिद्धि को बनाए रखना न्याय का घोर उल्लंघन होगा।

      यह निर्णय विशेष रूप से सड़क दुर्घटना, हिट-एंड-रन, लापरवाही से मृत्यु (IPC की धारा 279, 304A) जैसे मामलों में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा रहा है।


मामले की पृष्ठभूमि

विवेच्य मामले में अभियोजन का कथन था कि—

  • एक व्यक्ति की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई
  • दुर्घटना एक विशेष वाहन से हुई
  • वाहन अभियुक्त चला रहा था
  • वाहन तेज व लापरवाही से चलाया जा रहा था

    इन्हीं आरोपों के आधार पर निचली अदालत ने अभियुक्त को दोषी ठहराया, जिसे उच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा।

    अभियुक्त ने सुप्रीम कोर्ट में अपील करते हुए यह प्रमुख तर्क दिए—

  1. दुर्घटना में प्रयुक्त वाहन की पहचान ही संदेहपूर्ण है
  2. किसी भी गवाह का बयान एक-दूसरे से मेल नहीं खाता
  3. जाँच में गंभीर कमियाँ हैं
  4. अभियोजन की पूरी कहानी अनुमान पर आधारित है

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य विधिक प्रश्न

     सुप्रीम कोर्ट के समक्ष निम्नलिखित महत्वपूर्ण प्रश्न उभरे—

  1. क्या अभियोजन यह सिद्ध कर सका कि दुर्घटना में वही वाहन शामिल था?
  2. क्या यह सिद्ध हुआ कि वही वाहन अभियुक्त चला रहा था?
  3. क्या अभियोजन के गवाह भरोसेमंद और सुसंगत हैं?
  4. क्या अपूर्ण, विरोधाभासी और कमजोर साक्ष्यों के आधार पर दोषसिद्धि न्यायोचित हो सकती है?

सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने दोषसिद्धि को रद्द करते हुए कहा—

“आपराधिक मुकदमे में सबसे पहले यह सिद्ध होना आवश्यक है कि अपराध हुआ, फिर यह कि अपराध अभियुक्त द्वारा ही किया गया। जब वाहन की संलिप्तता ही प्रमाणित न हो, तब चालक की पहचान का प्रश्न स्वतः ही गिर जाता है।”


न्यायालय के महत्वपूर्ण अवलोकन

1. वाहन की संलिप्तता – अभियोजन की रीढ़

न्यायालय ने कहा कि—

  • सड़क दुर्घटना के मामलों में
  • वाहन की पहचान (Identity of Vehicle)
    • अभियोजन का मूल आधार होती है

यदि—

  • वाहन नंबर अलग-अलग बताया गया हो
  • जब्ती में देरी हो
  • वाहन पर कोई ताज़ा क्षति न पाई जाए
  • मैकेनिकल रिपोर्ट अभियोजन कथा का समर्थन न करे

तो अभियोजन का मामला जड़ से कमजोर हो जाता है।


2. गवाहों के बयानों में गंभीर विरोधाभास

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि—

  • एक गवाह कहता है वाहन ट्रक था
  • दूसरा कहता है जीप
  • कोई कहता है वाहन तेज था
  • कोई कहता है वाहन सामान्य गति में था
  • समय, स्थान और घटना के तरीके को लेकर भी भिन्न-भिन्न कथन हैं

न्यायालय ने स्पष्ट किया—

“ऐसे विरोधाभास जो घटना के मूल तत्वों को प्रभावित करते हों, उन्हें मामूली विसंगति कहकर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।”


3. अविश्वसनीय गवाही पर दोषसिद्धि असंभव

न्यायालय ने दोहराया कि—

  • हर गवाह सच बोल रहा है—यह मान लेना न्यायसंगत नहीं
  • गवाही की
    • स्वाभाविकता
    • निरंतरता
    • तर्कसंगतता

का परीक्षण आवश्यक है।

यदि गवाही—

  • बनावटी प्रतीत हो
  • बाद में गढ़ी गई लगे
  • पुलिस जाँच से प्रेरित लगे

तो उस पर दोषसिद्धि आधारित नहीं की जा सकती।


जाँच प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट की कठोर टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस जाँच की गुणवत्ता पर भी गंभीर प्रश्न उठाए—

  • स्वतंत्र गवाहों को शामिल नहीं किया गया
  • घटनास्थल का वैज्ञानिक परीक्षण नहीं हुआ
  • फॉरेंसिक या तकनीकी साक्ष्य का अभाव
  • CCTV, मोबाइल डेटा, ब्रेक-मार्क आदि का कोई विश्लेषण नहीं

न्यायालय ने कहा—

“जाँच एजेंसी की लापरवाही का खामियाज़ा अभियुक्त को नहीं भुगतना चाहिए।”


‘Beyond Reasonable Doubt’ का सिद्धांत

अदालत ने पुनः स्मरण कराया कि—

  • आपराधिक मामलों में
  • अभियोजन को
    • प्रत्येक आवश्यक तथ्य
    • संदेह से परे
    • प्रमाणित करना होता है

यदि—

  • दो संभावनाएँ मौजूद हों
  • एक अभियुक्त के दोष की
  • दूसरी उसके निर्दोष होने की

तो दूसरी संभावना को अपनाया जाना न्याय का तकाज़ा है


पूर्ववर्ती न्यायिक सिद्धांतों की पुनर्पुष्टि

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि—

  • केवल दुर्घटना का घटित होना पर्याप्त नहीं
  • केवल मृत्यु हो जाना पर्याप्त नहीं
  • किसी को दोषी ठहराने के लिए
    • ठोस
    • विश्वसनीय
    • संगत साक्ष्य
      अनिवार्य हैं।

इस निर्णय का व्यापक प्रभाव

1. सड़क दुर्घटना मामलों पर प्रभाव

अब अभियोजन को—

  • वाहन की पहचान
  • चालक की भूमिका
  • लापरवाही का स्वरूप

स्पष्ट और ठोस प्रमाणों से सिद्ध करना होगा।


2. निचली अदालतों के लिए मार्गदर्शन

  • भावनात्मक निर्णय से बचना होगा
  • केवल “किसी की मृत्यु हुई है”
    • यह दोषसिद्धि का आधार नहीं हो सकता

3. अभियुक्त के मौलिक अधिकारों की रक्षा

यह फैसला पुनः स्थापित करता है कि—

आरोपी होना अपराधी होना नहीं है।


पीड़ित पक्ष और समाज के प्रति संतुलन

न्यायालय ने यह भी कहा कि—

  • पीड़ित के प्रति सहानुभूति आवश्यक है
  • किंतु न्याय
    • सहानुभूति
    • या जन-दबाव
      पर नहीं,
    • प्रमाण
    • और विधि
      पर आधारित होना चाहिए।

आलोचनात्मक दृष्टिकोण

यह निर्णय—

 निर्दोषों की रक्षा करता है
पुलिस जाँच को अधिक उत्तरदायी बनाता है

परंतु—

  • यह भी आवश्यक है कि
    • तकनीकी कमियों के कारण
    • वास्तविक अपराधी न बच निकलें

इसलिए, जाँच प्रणाली में सुधार अनिवार्य है।


निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था की आत्मा को दोहराता है—

“दोषसिद्धि अनुमान पर नहीं, प्रमाण पर आधारित होनी चाहिए।”

जब—

  • वाहन की संलिप्तता सिद्ध न हो
  • गवाहों के बयान अविश्वसनीय हों
  • अभियोजन साक्ष्य कमजोर हों

तो दोषसिद्धि न्याय नहीं, अन्याय बन जाती है