वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 12ए की अनिवार्यता एवं आदेश VII नियम 11 सीपीसी के तहत दायर वादों की खारिजी – सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण

शीर्षक: वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 12ए की अनिवार्यता एवं आदेश VII नियम 11 सीपीसी के तहत दायर वादों की खारिजी – सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण

परिचय:

वाणिज्यिक विवादों की शीघ्र और प्रभावी सुनवाई के उद्देश्य से भारत सरकार ने वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 (The Commercial Courts Act, 2015) लागू किया। इस अधिनियम की धारा 12ए एक महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो वाद के पूर्व अनिवार्य मध्यस्थता (Pre-Institution Mediation) को आवश्यक बनाता है। सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने इस प्रावधान की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया कि धारा 12ए अनिवार्य है और इसका अनुपालन किए बिना दायर किए गए वाद आदेश VII नियम 11 सीपीसी के अंतर्गत खारिज किए जा सकते हैं।


धारा 12ए की प्रकृति और उद्देश्य:

धारा 12ए के अनुसार, यदि कोई वाणिज्यिक विवाद दायर किया जाना है और उसमें किसी प्रकार की तात्कालिक राहत (urgent interim relief) नहीं मांगी गई है, तो वाद दायर करने से पहले पक्षकारों को अनिवार्य रूप से मध्यस्थता प्रक्रिया से गुजरना होगा। इसका उद्देश्य न्यायालयों पर भार कम करना और वैकल्पिक विवाद समाधान के माध्यम से शीघ्र समाधान प्रदान करना है।


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:

सुप्रीम कोर्ट ने “Patil Automation Pvt. Ltd. v. Rakheja Engineers Pvt. Ltd.” [(2022) 10 SCC 1] के ऐतिहासिक निर्णय में यह निर्णय दिया कि:

  1. धारा 12ए अनिवार्य है, और यह महज एक औपचारिकता नहीं है जिसे नजरअंदाज किया जा सके।
  2. 20 अगस्त 2022 के बाद दायर किए गए ऐसे वाद, जिनमें धारा 12ए का अनुपालन नहीं किया गया है और जिनमें तात्कालिक राहत नहीं मांगी गई है, आदेश VII नियम 11 सीपीसी के तहत खारिज किए जाने योग्य हैं।
  3. 20.08.2022 से पहले दायर वादों के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने उदार दृष्टिकोण अपनाया और कहा कि ऐसे वादों को खारिज नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि यदि कोई आपत्ति उठाई जाती है या पक्ष मध्यस्थता हेतु इच्छुक हैं, तो उन्हें मध्यस्थता के लिए भेजा जाना चाहिए।

आदेश VII नियम 11 सीपीसी की भूमिका:

आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत यदि वादपत्र वाद को बनाए रखने के लिए आवश्यक शर्तों को पूरा नहीं करता, तो उसे खारिज किया जा सकता है। धारा 12ए के अनुपालन की कमी को इसी नियम के तहत एक आधार माना गया है, क्योंकि बिना मध्यस्थता के दायर वाद, वैधानिक आवश्यकता के बिना दायर माने जाते हैं।


न्यायिक प्रभाव और व्यावहारिक परिणाम:

  • अधिवक्ताओं और पक्षकारों को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि मध्यस्थता की प्रक्रिया से पहले वाणिज्यिक वाद दायर न करें।
  • वाणिज्यिक न्यायालयों में वाद की प्रारंभिक सुनवाई में धारा 12ए के अनुपालन की जांच आवश्यक हो गई है।
  • वाद दायर करने से पूर्व लोक अदालत या अधिकृत मध्यस्थता संस्थान से मध्यस्थता की प्रक्रिया आरंभ कराना अब एक पूर्वशर्त है।

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारत में वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र को सुदृढ़ करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। धारा 12ए को अनिवार्य ठहराते हुए न्यायालयों ने वाणिज्यिक विवादों के शीघ्र समाधान की दिशा में एक मजबूत संदेश दिया है। अब अधिवक्ताओं और पक्षकारों की जिम्मेदारी है कि वे वाद दायर करने से पहले कानूनी पूर्वशर्तों का पूरा ध्यान रखें।