वन संरक्षण नियम, 2022 और आदिवासी अधिकारः वनाधिकार कानून के आलोक में संवैधानिक और सामाजिक विश्लेषण

शीर्षक: वन संरक्षण नियम, 2022 और आदिवासी अधिकारः वनाधिकार कानून के आलोक में संवैधानिक और सामाजिक विश्लेषण

प्रस्तावना:
भारत में वन संसाधन केवल पारिस्थितिक दृष्टिकोण से नहीं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। विशेषकर आदिवासी समुदायों के लिए जंगल न केवल जीवन का आधार हैं, बल्कि उनकी पहचान और संस्कृति का हिस्सा भी हैं। इसी पृष्ठभूमि में, वन संरक्षण नियम, 2022 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 के बीच के संबंध और विवादों पर चर्चा अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है।


वन संरक्षण नियम, 2022 का परिचय:
वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के तहत बनाए गए वन संरक्षण नियम, 2022 का उद्देश्य था—वन भूमि को गैर-वन प्रयोजनों के लिए उपयोग में लाने की प्रक्रिया को सरल बनाना। नए नियमों के अंतर्गत कुछ मामलों में केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति की अनिवार्यता को कम किया गया और परियोजना स्वीकृति प्रक्रिया को तेज़ करने की कोशिश की गई।

हालाँकि, ये नियम पर्यावरणीय न्याय और आदिवासी अधिकारों के क्षेत्र में कई चिंताएँ उत्पन्न करते हैं।


आदिवासी अधिकार और वन अधिकार अधिनियम, 2006:
वन अधिकार अधिनियम, 2006 आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को उनकी पारंपरिक भूमि और संसाधनों पर अधिकार प्रदान करता है। यह अधिनियम ग्राम सभा को महत्वपूर्ण भूमिका देता है—कोई भी परियोजना ग्राम सभा की अनुमति के बिना शुरू नहीं की जा सकती।


मुख्य टकराव के बिंदु:

  1. ग्राम सभा की भूमिका की अनदेखी: वन संरक्षण नियम, 2022 में ग्राम सभा से पूर्व अनुमति लेने का प्रावधान हटाया गया है, जो वन अधिकार अधिनियम के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।
  2. आदिवासी विस्थापन की संभावना: सरल और त्वरित मंजूरी प्रक्रिया से खनन, सड़क निर्माण और अन्य औद्योगिक परियोजनाओं को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे आदिवासी समुदायों का बड़े पैमाने पर विस्थापन हो सकता है।
  3. पर्यावरणीय संतुलन पर प्रभाव: बिना स्थानीय सहभागिता के विकास कार्य प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा सकते हैं।

संवैधानिक और न्यायिक दृष्टिकोण:
भारत का संविधान अनुसूचित जनजातियों को विशेष संरक्षण प्रदान करता है (अनुच्छेद 244, Fifth Schedule)। इसके अतिरिक्त, सुप्रीम कोर्ट ने कई निर्णयों में आदिवासी अधिकारों की रक्षा की बात कही है (जैसे नियामगिरि हिल्स केस – Orissa Mining Corporation v. Ministry of Environment & Forests, 2013)।


निष्कर्ष:
वन संरक्षण नियम, 2022 का उद्देश्य विकास प्रक्रिया को सरल बनाना हो सकता है, लेकिन यदि यह आदिवासी अधिकारों और पर्यावरणीय स्थिरता की कीमत पर होता है, तो यह संवैधानिक मूल्यों और सामाजिक न्याय के विरुद्ध होगा। आवश्यकता है कि सरकार वन अधिकार अधिनियम, 2006 के प्रावधानों को प्राथमिकता दे और किसी भी निर्णय में ग्राम सभा की स्वीकृति को अनिवार्य बनाए रखे। न्यायपूर्ण विकास के लिए वन और वनवासियों का संतुलनपूर्ण सह-अस्तित्व आवश्यक है।