सौम्या रंजन मोहापात्रा की रहस्यमयी मौत पर न्यायिक जांच – संग्राम केशरी बेहरा बनाम ओडिशा राज्य एवं अन्य : सर्वोच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण हस्तक्षेप
भूमिका
भारत में वन विभाग के अधिकारियों की भूमिका पर्यावरण संरक्षण और वन संसाधनों के प्रबंधन में अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। किंतु, जब इन्हीं अधिकारियों के बीच आपसी अविश्वास, भ्रष्टाचार या प्रशासनिक दबाव से जुड़ी घटनाएँ सामने आती हैं, तो न केवल प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगता है, बल्कि यह कानून व्यवस्था और न्यायिक प्रणाली की परीक्षा भी बन जाती है।
ऐसी ही एक संवेदनशील और जटिल घटना संग्राम केशरी बेहरा बनाम राज्य ओडिशा एवं अन्य के रूप में सामने आई, जिसमें सहायक वन संरक्षक (ACF) सौम्या रंजन मोहापात्रा की रहस्यमयी मृत्यु ने पूरे राज्य को झकझोर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
जुलाई 2021 में ओडिशा के गजपति ज़िले के पारालाखेमुंडी क्षेत्र में कार्यरत ACF सौम्या रंजन मोहापात्रा की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई थी। उन्हें गंभीर रूप से झुलसे हुए हालत में पाया गया था और बाद में उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना ने यह प्रश्न खड़ा किया कि यह आत्महत्या थी या योजनाबद्ध हत्या।
प्रारंभिक जांच में पुलिस ने इस घटना को आत्महत्या करार दिया, लेकिन मृतक के परिवार ने इसमें कई अनियमितताएँ बताईं। परिवार ने आरोप लगाया कि तत्कालीन जिला वन अधिकारी (DFO) संग्राम केशरी बेहरा और उनके निजी रसोइया ने इस मौत में भूमिका निभाई है।
आरोप और जांच
मृतक की पत्नी स्मृति प्रियदर्शिनी मोहापात्रा, जो स्वयं एक वन अधिकारी हैं, ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई कि उनके पति को DFO द्वारा लगातार मानसिक और कार्यस्थल पर प्रताड़ित किया जा रहा था।
उन्होंने कहा कि सौम्या रंजन को जानबूझकर कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए बाध्य किया गया और उनकी छवि खराब करने की साजिश की गई।
जांच के दौरान कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने आए—
- ACF को उनके आधिकारिक क्वार्टर में झुलसी अवस्था में पाया गया था।
- उनके कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था, जिससे यह शक हुआ कि कोई तीसरा व्यक्ति भी मौजूद हो सकता था।
- घटनास्थल से पेट्रोल की गंध आ रही थी, जो प्राकृतिक नहीं लग रही थी।
- पुलिस को कुछ इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य मिले जो यह संकेत दे रहे थे कि मृत्यु से पहले DFO और मृतक के बीच मतभेद बढ़े हुए थे।
जमानत याचिका और उच्च न्यायालय का निर्णय
2024 में, जब जांच आगे बढ़ी, तब DFO संग्राम केशरी बेहरा और उनके रसोइए ने प्री-अरेस्ट बेल (Anticipatory Bail) के लिए ओडिशा उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
उनका तर्क था कि वे निर्दोष हैं, और पुलिस उन्हें बिना पर्याप्त सबूत के गिरफ्तार कर सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि वे जांच में सहयोग करने को तैयार हैं और उनके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है।
हालाँकि, ओडिशा उच्च न्यायालय ने दोनों की जमानत याचिका को अस्वीकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि—
- मामला गंभीर और संवेदनशील प्रकृति का है।
- मृतक सरकारी अधिकारी था, इसलिए सार्वजनिक विश्वास का प्रश्न भी इससे जुड़ा है।
- जांच अभी प्रारंभिक अवस्था में है, और अगर अग्रिम जमानत दी जाती है तो साक्ष्य प्रभावित हो सकते हैं।
इस प्रकार, न्यायालय ने यह माना कि आरोपी अधिकारियों को अग्रिम जमानत देने से न्याय प्रक्रिया बाधित हो सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका
उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद, संग्राम केशरी बेहरा और उनके रसोइए ने सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया का दरवाजा खटखटाया।
उन्होंने दलील दी कि—
- उनके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं है;
- यह केवल परिस्थितिजन्य मामला है;
- मीडिया ट्रायल और राजनीतिक दबाव के कारण उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है।
किन्तु, सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका पर विचार करते हुए कहा कि—
- जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती, अदालत को अग्रिम जमानत देने में सावधानी बरतनी होगी।
- उच्च न्यायालय ने पर्याप्त कारणों के आधार पर आदेश पारित किया है, जिसे पलटने की कोई ठोस वजह नहीं है।
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने ओडिशा हाईकोर्ट के आदेश को बरकरार रखा और अग्रिम जमानत देने से इनकार किया।
कानूनी दृष्टिकोण से विश्लेषण
इस प्रकरण में मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि—
“क्या ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत दी जा सकती है जहाँ जांच अधूरी हो और आरोप सरकारी सेवा में उच्च पदस्थ अधिकारी पर हों?”
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 (CrPC) के अनुसार, अग्रिम जमानत तभी दी जा सकती है जब यह संभावना हो कि आरोपी की गिरफ्तारी मनमानी या प्रतिशोधात्मक है।
लेकिन यदि मामला गंभीर अपराध से जुड़ा है या जांच की दिशा प्रभावित हो सकती है, तो अदालत अग्रिम जमानत देने से इनकार कर सकती है।
इस केस में आरोप हत्या या आत्महत्या के लिए प्रेरण (Sections 302/306 IPC) से संबंधित थे — जो गंभीर अपराधों की श्रेणी में आते हैं।
ऐसे में अदालत का निर्णय कानून की दृष्टि से संतुलित और न्यायसंगत माना जा सकता है।
न्यायिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग
इस मामले में निम्नलिखित न्यायिक सिद्धांत लागू होते हैं:
- न्याय में पारदर्शिता (Transparency in Justice):
सार्वजनिक पद पर आसीन अधिकारी के खिलाफ आरोपों की जांच निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए। - साक्ष्य संरक्षण का सिद्धांत (Preservation of Evidence):
अग्रिम जमानत मिलने से अभियुक्त साक्ष्यों से छेड़छाड़ कर सकता है। - जन विश्वास की रक्षा (Protection of Public Trust):
न्यायपालिका का दायित्व है कि सरकारी सेवा में भ्रष्टाचार या दुर्व्यवहार के मामलों में न्यायिक निष्पक्षता बनी रहे। - मृतक की गरिमा (Posthumous Dignity):
एक ईमानदार अधिकारी की मौत के बाद सच्चाई सामने आना, उसकी गरिमा और परिवार के विश्वास दोनों के लिए आवश्यक है।
सामाजिक और प्रशासनिक प्रभाव
सौम्या रंजन मोहापात्रा की मौत केवल एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं थी, बल्कि यह प्रशासनिक पारदर्शिता और कर्मचारी कल्याण के प्रश्न को भी उठाती है।
यह मामला यह दर्शाता है कि वन विभाग जैसे कठिन क्षेत्रों में कार्यरत अधिकारी अक्सर मानसिक दबाव और वरिष्ठों के उत्पीड़न का सामना करते हैं।
इसलिए, ऐसी घटनाएँ सरकार को यह सोचने पर विवश करती हैं कि सरकारी सेवाओं में मानसिक स्वास्थ्य सहायता, आंतरिक शिकायत निवारण प्रणाली और स्वतंत्र जांच तंत्र की क्या भूमिका होनी चाहिए।
मीडिया और जनमत की भूमिका
इस मामले में मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई स्थानीय समाचार चैनलों और राष्ट्रीय मीडिया ने ACF की मृत्यु को लेकर सवाल उठाए, जिससे जांच एजेंसियों पर पारदर्शिता बनाए रखने का दबाव पड़ा।
हालाँकि, न्यायालय ने यह भी कहा कि “मीडिया ट्रायल न्यायिक प्रक्रिया का विकल्प नहीं हो सकता।”
न्याय केवल साक्ष्यों पर आधारित होना चाहिए, न कि सार्वजनिक भावना पर।
वर्तमान स्थिति
2025 तक यह मामला अभी भी जांचाधीन है। पुलिस और विशेष जांच दल (SIT) इस बात की तह तक जाने का प्रयास कर रहे हैं कि क्या यह सुसाइड का मामला था या पूर्व नियोजित हत्या।
सर्वोच्च न्यायालय का आदेश इस दिशा में यह सुनिश्चित करता है कि जांच बिना किसी बाहरी दबाव के निष्पक्ष रूप से पूरी हो सके।
निष्कर्ष
संग्राम केशरी बेहरा बनाम राज्य ओडिशा एवं अन्य मामला भारतीय न्याय प्रणाली के लिए एक गहन उदाहरण है कि कैसे प्रशासनिक जवाबदेही, कानूनी निष्पक्षता, और जनविश्वास के तीनों स्तंभ एक-दूसरे से जुड़े हैं।
इस निर्णय से यह संदेश स्पष्ट होता है कि—
“कानून के समक्ष कोई भी व्यक्ति — चाहे वह सरकारी अधिकारी ही क्यों न हो — विशेषाधिकार प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कि न्यायिक जांच अपनी संपूर्णता में पूरी न हो जाए।”
यह मामला न केवल ACF सौम्या रंजन मोहापात्रा के लिए न्याय की लड़ाई है, बल्कि यह उन सभी ईमानदार अधिकारियों की भी आवाज़ है, जो व्यवस्था के भीतर अन्याय का सामना करते हुए भी सत्य के पक्ष में खड़े रहते हैं।