लिव-इन रिलेशनशिप और महिला का अधिकार: हर्षा बनाम सुनील, बॉम्बे हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय

लिव-इन रिलेशनशिप और महिला का अधिकार: हर्षा बनाम सुनील, बॉम्बे हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय

प्रस्तावना
भारतीय समाज में वैवाहिक संबंधों के साथ-साथ अब लिव-इन रिलेशनशिप की अवधारणा भी धीरे-धीरे स्वीकार्यता प्राप्त कर रही है। हालांकि कानूनी दृष्टिकोण से लिव-इन रिलेशनशिप की स्थिति पहले अस्पष्ट रही है, लेकिन विभिन्न न्यायालयों ने समय-समय पर यह स्पष्ट किया है कि यदि दो वयस्क आपसी सहमति से साथ रह रहे हैं, तो उस संबंध को पूरी तरह से अवैध नहीं कहा जा सकता।
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने हर्षा बनाम सुनील मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए स्पष्ट किया कि लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही महिला को घरेलू हिंसा से संरक्षण प्राप्त है, और उसे कानूनन अधिकार मिलते हैं, भले ही विवाह औपचारिक रूप से संपन्न न हुआ हो।


मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले में याचिकाकर्ता महिला हर्षा ने अदालत में याचिका दायर कर कहा कि वह प्रतिवादी सुनील के साथ कई वर्षों से लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही थी। उन्होंने दावा किया कि दोनों ने विवाह जैसा जीवन जिया, एक साथ सार्वजनिक स्थानों पर पति-पत्नी के रूप में प्रस्तुत हुए, रिश्तेदारों को भी यही बताया, और उनके बीच भावनात्मक तथा शारीरिक संबंध भी थे।

समस्या तब उत्पन्न हुई जब सुनील ने अचानक महिला को घर से निकाल दिया और उसका आर्थिक व मानसिक शोषण किया।
महिला ने घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005) के तहत राहत की मांग की। प्रतिवादी ने दावा किया कि चूंकि विवाह नहीं हुआ था, इसलिए महिला को कोई वैधानिक संरक्षण नहीं मिल सकता।


मुख्य कानूनी प्रश्न
क्या लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही महिला को घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के अंतर्गत संरक्षण मिल सकता है?


न्यायालय का दृष्टिकोण और निर्णय
बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में निम्नलिखित महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:

  1. “रिश्ते की प्रकृति विवाह-समान (Marriage-like Relationship) होनी चाहिए”:
    कोर्ट ने कहा कि यदि दो वयस्क लंबे समय तक एक साथ रहते हैं, सामाजिक तौर पर खुद को पति-पत्नी के रूप में प्रस्तुत करते हैं, और उनके रिश्ते में स्थायित्व व विश्वास हो, तो उसे विवाह-समान संबंध माना जा सकता है।
  2. घरेलू हिंसा अधिनियम की व्याख्या:
    अधिनियम की धारा 2(f) के अनुसार, “domestic relationship” में ऐसे रिश्ते भी शामिल हैं जो विवाह के समान हों। इस प्रकार, लिव-इन पार्टनर भी इसमें शामिल किए जा सकते हैं यदि रिश्ता औपचारिक, टिकाऊ और सार्वजनिक हो।
  3. महिला को सुरक्षा के अधिकार:
    कोर्ट ने कहा कि यह जरूरी नहीं कि केवल विवाहिता महिला ही घरेलू हिंसा से सुरक्षा की हकदार हो, बल्कि लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही महिला भी, यदि उसके साथ मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक या आर्थिक हिंसा हुई हो, तो वह इस अधिनियम के तहत संरक्षण की पात्र है।
  4. फैसले में संतुलन:
    कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह अधिकार हर ऐसे लिव-इन संबंध पर लागू नहीं होगा जो आकस्मिक, अस्थायी या केवल यौन संबंधों तक सीमित हो।
    इस मामले में महिला ने यह सिद्ध कर दिया कि वह वर्षों तक प्रतिवादी के साथ स्थायी रूप से रह रही थी और उन्हें समाज में पति-पत्नी के रूप में जाना जाता था।

अतः कोर्ट ने महिला को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत संरक्षण दिया और प्रतिवादी को निर्देशित किया कि वह महिला को आवास और अन्य वैधानिक लाभ प्रदान करे।


महत्व और प्रभाव
इस निर्णय का भारतीय न्यायिक प्रणाली और समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है:

  1. गैर-विवाहित महिलाओं को भी कानूनी सुरक्षा:
    अब यह मान्यता स्पष्ट हो गई है कि विवाह के बिना भी यदि कोई महिला लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही है, तो उसे मानसिक या शारीरिक उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार मिल सकते हैं।
  2. समाज में महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा:
    यह निर्णय महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक मजबूत कदम है, जहां संबंधों की वैधता को केवल विवाह के रूप में न देखकर उसके वास्तविक सामाजिक और भावनात्मक पहलू को समझा गया।
  3. पुरुषों की जिम्मेदारी और कानूनी जवाबदेही:
    ऐसे संबंधों में पुरुषों की जिम्मेदारी तय की गई है कि वे महिला को केवल भोग की वस्तु समझकर संबंध न बनाएं और उसे आवश्यकता पड़ने पर सम्मानजनक सुरक्षा दें।

निष्कर्ष
हर्षा बनाम सुनील का यह निर्णय भारतीय न्यायव्यवस्था में लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर एक प्रगतिशील दृष्टिकोण को दर्शाता है। यह सिर्फ महिलाओं को न्याय दिलाने तक सीमित नहीं, बल्कि उन पारंपरिक सोचों को भी चुनौती देता है जो विवाह के बिना किसी संबंध को अवैध या अस्वीकार्य मानते हैं।
यह निर्णय समाज को यह संदेश देता है कि न्याय, संबंध की गहराई और पारस्परिक जिम्मेदारियों पर आधारित होना चाहिए, न कि केवल औपचारिकताओं पर।