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“लिखित बयान में संशोधन हेतु सात वर्ष की देरी — न्याय की दृष्टि से आवश्यक संशोधन को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने किया स्वीकृत: उर्मिला एवं अन्य बनाम अभिषार चौधरी (2025)”

“लिखित बयान में संशोधन हेतु सात वर्ष की देरी — न्याय की दृष्टि से आवश्यक संशोधन को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने किया स्वीकृत: उर्मिला एवं अन्य बनाम अभिषार चौधरी (2025)”


प्रस्तावना

न्यायिक प्रक्रिया में Order 6 Rule 17 सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) का विशेष महत्व है, जो वाद पत्रों (pleadings) में संशोधन की अनुमति देता है। इस प्रावधान का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत विवाद का वास्तविक और समुचित निपटारा हो सके।
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने Urmila & Others v. Mr. Abhisar Chaudhary (2025) में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें लिखित बयान (Written Statement) में सात वर्षों की देरी के बाद किए गए संशोधन आवेदन को स्वीकार किया गया। यह निर्णय न केवल प्रक्रिया संबंधी न्याय का उदाहरण है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि तकनीकी औपचारिकताओं की तुलना में न्याय की भावना अधिक महत्वपूर्ण है।


मामले की पृष्ठभूमि

वादी (plaintiffs) उर्मिला एवं अन्य ने प्रतिवादी अभिषार चौधरी के विरुद्ध एक दीवानी वाद दायर किया था। प्रतिवादी ने समय पर अपना लिखित बयान दाखिल कर दिया था। किन्तु, सात वर्षों के बाद प्रतिवादी ने Order 6 Rule 17 CPC के अंतर्गत संशोधन का आवेदन दायर किया, जिसमें कुछ स्पष्टीकरणात्मक बिंदुओं को जोड़ने की मांग की गई थी।
वादी पक्ष ने इस आवेदन का विरोध करते हुए यह तर्क दिया कि —

  • आवेदन अत्यधिक विलंब से किया गया है,
  • यह प्रतिवादी की लापरवाही का परिणाम है, और
  • इससे मामले की सुनवाई में अनावश्यक देरी होगी।

मुख्य विधिक प्रश्न

  1. क्या सात वर्षों की देरी के बाद लिखित बयान में संशोधन की अनुमति दी जा सकती है?
  2. क्या ऐसा संशोधन न्याय के हित में आवश्यक माना जा सकता है, यदि वह मामले के वास्तविक विवाद को स्पष्ट करने में सहायक हो?
  3. क्या संशोधन से वाद की प्रकृति या बचाव (defence) में कोई मौलिक परिवर्तन होता है?

प्रासंगिक विधिक प्रावधान

Order 6 Rule 17, CPC:

“The Court may at any stage of the proceedings allow either party to alter or amend his pleadings in such manner and on such terms as may be just, and all such amendments shall be made as may be necessary for the purpose of determining the real questions in controversy between the parties.”

इस प्रावधान के तहत न्यायालय के पास यह विवेकाधिकार होता है कि वह ऐसे किसी भी संशोधन को स्वीकृत कर सके जो वास्तविक विवाद के निपटारे में सहायक हो, भले ही उसमें कुछ देरी क्यों न हो।


न्यायालय के समक्ष तर्क

प्रतिवादी का पक्ष:

  • संशोधन से कोई नया तथ्य या नया बचाव नहीं जोड़ा जा रहा।
  • उद्देश्य केवल पहले से मौजूद तथ्यों को स्पष्ट करना है।
  • इससे न्यायालय को विवाद के वास्तविक पहलू को समझने में सुविधा होगी।

वादी का पक्ष:

  • सात वर्षों की देरी अस्वीकार्य है।
  • प्रतिवादी ने due diligence का पालन नहीं किया।
  • यह संशोधन सुनवाई को और लम्बा खींचेगा, जिससे वादी को हानि होगी।

न्यायालय का विश्लेषण

माननीय न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी (J.) ने अपने निर्णय में यह माना कि —

  • यद्यपि प्रतिवादी द्वारा संशोधन आवेदन में असाधारण विलंब हुआ है,
  • तथापि संशोधन से वाद की प्रकृति में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं होगा।
  • संशोधन केवल न्यायालय को विवाद के तथ्यों की सटीकता से समझने में सहायता करेगा।

न्यायालय ने यह भी कहा कि तकनीकी कारणों से ऐसे संशोधन को अस्वीकार करना “न्याय से इनकार” के समान होगा।


महत्वपूर्ण उद्धरण

न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों का हवाला दिया, जैसे कि –

  • Revajeetu Builders & Developers v. Narayanaswamy & Sons (2009) 10 SCC 84,
  • Baldev Singh v. Manohar Singh (2006) 6 SCC 498,
  • Kailash v. Nanhku (2005) 4 SCC 480,

जहाँ यह सिद्धांत स्थापित किया गया था कि:

“Amendments which are necessary for the determination of the real questions in controversy should be allowed, even if there has been some delay, provided it does not cause injustice to the other side.”


न्यायालय का निष्कर्ष

न्यायालय ने यह पाया कि —

  • संशोधन से वादी को कोई प्रत्यक्ष हानि नहीं होगी।
  • प्रतिवादी के संशोधन का उद्देश्य विवाद को स्पष्ट करना है, न कि वाद की प्रकृति को बदलना।
  • इसीलिए, आवेदन को न्याय के हित में स्वीकार किया जाता है, परंतु लागत (cost) लगाई जाती है ताकि वादी को हुए विलंब की क्षतिपूर्ति हो सके।

अंततः, न्यायालय ने संशोधन की अनुमति दी, शर्त यह रही कि प्रतिवादी वादी को लागत का भुगतान करेगा।


निर्णय का प्रभाव और निहितार्थ

यह निर्णय न्यायिक प्रणाली में “substantive justice over procedural rigidity” के सिद्धांत को सशक्त करता है।
यह निम्नलिखित बिंदुओं को पुष्ट करता है:

  1. न्याय तकनीकीता से ऊपर है:
    जब संशोधन का उद्देश्य केवल विवाद की सटीकता सुनिश्चित करना है, तब न्यायालय को देरी की औपचारिकता के कारण आवेदन अस्वीकार नहीं करना चाहिए।
  2. Due diligence का महत्व:
    हालांकि न्यायालय ने संशोधन की अनुमति दी, परंतु उसने प्रतिवादी की लापरवाही को नज़रअंदाज़ नहीं किया और लागत लगाकर संतुलन बनाए रखा।
  3. न्यायालय की विवेकशीलता (Judicial Discretion):
    Order 6 Rule 17 के अंतर्गत न्यायालय के पास व्यापक विवेकाधिकार है, जिसे न्यायपूर्ण ढंग से उपयोग करना आवश्यक है।
  4. प्रक्रियात्मक लचीलापन:
    न्यायिक प्रक्रिया में लचीलापन बनाए रखना आवश्यक है ताकि किसी पक्ष को केवल तकनीकी आधार पर न्याय से वंचित न किया जाए।

विस्तृत कानूनी विश्लेषण

सिविल वादों में कई बार pleadings समय के साथ अधूरे या अस्पष्ट प्रतीत हो सकते हैं। ऐसे मामलों में Order 6 Rule 17 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि न्यायालय तथ्यों की सही स्थिति को समझ सके और न्यायसंगत निर्णय दे सके।
इस प्रकरण में, न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी का संशोधन neither mala fide nor prejudicial था।
न्यायालय ने balance of convenience का पालन करते हुए दोनों पक्षों के हितों की रक्षा की।

इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि संशोधन से वादी को कोई वास्तविक हानि होती, तो स्थिति भिन्न होती। किन्तु यहाँ ऐसा कोई प्रभाव नहीं था। इसलिए, न्यायालय ने न्यायिक विवेक का सही प्रयोग करते हुए आवेदन स्वीकार किया।


न्यायिक नीति के दृष्टिकोण से

यह निर्णय न्यायिक नीति में एक संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है —

  • न्यायालय यह स्वीकार करता है कि litigation एक गतिशील प्रक्रिया है,
  • समय के साथ तथ्यों की व्याख्या या स्पष्टीकरण आवश्यक हो सकता है,
  • इसलिए न्यायालयों को ऐसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो न्याय के उद्देश्य को सर्वोपरि रखे।

निष्कर्ष

Urmila & Others v. Abhisar Chaudhary (2025 PbHr) का निर्णय यह स्पष्ट संदेश देता है कि न्यायालय का प्रमुख उद्देश्य वास्तविक विवाद का निष्पक्ष और पूर्ण निपटारा करना है।
भले ही प्रतिवादी ने सात वर्षों के बाद संशोधन का आवेदन किया हो, परंतु चूँकि संशोधन का उद्देश्य विवाद की स्पष्टता था और इससे वादी को कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा, इसलिए न्यायालय ने इसे स्वीकार किया।

यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली में प्रक्रियात्मक न्याय और वास्तविक न्याय के बीच संतुलन का आदर्श उदाहरण है।


न्यायिक टिप्पणी:

“The object of allowing amendment is to avoid multiplicity of proceedings and to ensure that the parties litigate upon the real issue between them, rather than being bound by the technicalities of pleadings.”


लेखक की टिप्पणी:
यह फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था में उस न्यायिक दृष्टिकोण को मजबूत करता है जो यह मानता है कि वास्तविक न्याय (substantive justice) सदैव तकनीकी देरी (procedural delay) पर वरीयता रखता है।