लेख शीर्षक:
“लिखित बयान दाखिल करने की समय-सीमा पर मद्रास उच्च न्यायालय का निर्णय: ट्रायल कोर्ट स्वतः समय नहीं बढ़ा सकते”
(Madras HC Clarifies Procedural Norms under CPC for Filing Written Statements)
भूमिका:
दीवानी मामलों में जवाबदेही और निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने हेतु Code of Civil Procedure (CPC) की समय-सीमाओं का पालन अनिवार्य होता है। मद्रास उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि ट्रायल कोर्ट बिना प्रतिवादी की याचिका के स्वयं से लिखित बयान (Written Statement) दाखिल करने की समय-सीमा नहीं बढ़ा सकते। इस निर्णय में CPC की Order 8 Rule 1 और Order 7 Rule 11, साथ ही Commercial Courts Act और Consumer Protection Act की प्रक्रियात्मक व्याख्याओं को प्रमुखता दी गई।
मामले की पृष्ठभूमि:
- Order 8 Rule 1 CPC:
यह नियम कहता है कि समन प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर प्रतिवादी को अपना लिखित बयान दाखिल करना होता है।
इसकी proviso के अनुसार, यदि कारण उचित हों, तो अदालत अधिकतम 90 दिनों तक की छूट दे सकती है, बशर्ते वह विस्तार के कारणों को स्पष्ट रूप से रिकॉर्ड करे। - Order 7 Rule 11 CPC:
यह नियम वादपत्र (plaint) को अस्वीकार करने के बारे में है। यह नियम लिखित बयान को अस्वीकार करने के लिए नहीं है।
अदालत का तर्क:
- स्वतः विस्तार अवैध:
ट्रायल कोर्ट ने बिना प्रतिवादी की कोई लिखित याचिका (application) लिए ही समय सीमा को बढ़ा दिया। उच्च न्यायालय ने इसे नियम विरुद्ध माना। - आवेदन आवश्यक:
यदि प्रतिवादी 30 दिनों के भीतर लिखित बयान दाखिल नहीं करता, तो उसे अदालत में एक लिखित आवेदन के माध्यम से विस्तार मांगना होगा, जिसमें देरी का कारण स्पष्ट किया जाए। - नब्बे दिन की सीमा अनिवार्य नहीं, लेकिन प्रक्रिया-सम्मत:
सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के अनुसार, 90 दिन की समय-सीमा directory है, mandatory नहीं, लेकिन इसे भी केवल न्यायिक आदेश द्वारा विस्तारित किया जा सकता है — स्वतः नहीं। - Order 7 Rule 11 का दुरुपयोग नहीं:
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि Order 7 Rule 11 केवल वादपत्र अस्वीकार करने के लिए है, न कि लिखित बयान को खारिज करने के लिए। - Inherent Jurisdiction का अनुचित प्रयोग:
किसी लिखित बयान को खारिज करने हेतु अदालत अपनी inherent powers (स्वाभाविक अधिकार) का प्रयोग नहीं कर सकती जब तक कि नियमों के अनुसार याचिका दाखिल न हो।
निर्णय का परिणाम:
- ट्रायल कोर्ट का आदेश रद्द किया गया।
- प्रतिवादी को उचित प्रक्रिया के अनुसार लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति दी गई।
- अदालत ने प्रक्रिया और न्याय के संतुलन की आवश्यकता को दोहराया।
न्यायिक महत्व:
इस निर्णय से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं:
- प्रक्रिया की पवित्रता बनाए रखना न्याय की बुनियाद है।
- अदालत की “सुविधा” के नाम पर नियमों का उल्लंघन उचित नहीं है।
- न्यायालय को निष्पक्षता और न्यायसंगत प्रक्रिया सुनिश्चित करनी चाहिए, न कि पक्षों को अनुचित लाभ देना।
निष्कर्ष:
मद्रास उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय दीवानी न्याय प्रणाली में प्रक्रियात्मक न्याय (procedural justice) के महत्व को रेखांकित करता है। यह न केवल पक्षों की जवाबदेही को सुदृढ़ करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि अदालतें नियमों के दायरे में रहकर ही कार्य करें। यह फैसला विशेष रूप से व्यावसायिक मामलों (Commercial Cases) और उपभोक्ता विवादों में प्रक्रिया की गंभीरता को पुनः स्थापित करता है।