“लिखित बयान के लिए समय सीमा का विस्तार: बिना प्रतिवादी की याचिका के न्यायालय नहीं बढ़ा सकते समय – मद्रास हाईकोर्ट का निर्देशात्मक निर्णय”

शीर्षक:
“लिखित बयान के लिए समय सीमा का विस्तार: बिना प्रतिवादी की याचिका के न्यायालय नहीं बढ़ा सकते समय – मद्रास हाईकोर्ट का निर्देशात्मक निर्णय”


भूमिका:
न्यायिक कार्यवाहियों में प्रक्रिया की पवित्रता और विधि के अनुपालन की महत्ता सर्वोपरि होती है। इसी सिद्धांत को पुष्ट करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि निचली अदालतें (Trial Courts) स्वतः (Suo Motu) लिखित बयान (Written Statement) दाखिल करने के लिए समय सीमा का विस्तार नहीं कर सकतीं, जब तक कि प्रतिवादी (Defendant) की ओर से विधिवत याचिका प्रस्तुत न की गई हो। यह निर्णय सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 0.8 नियम 1 एवं व्यवसायिक न्यायालय अधिनियम (Commercial Courts Act) तथा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्वपूर्ण है।


मामले की पृष्ठभूमि:
प्रकरण में, ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी को लिखित बयान दाखिल करने हेतु 30 दिन से अधिक का समय दिया, बिना प्रतिवादी की ओर से कोई औपचारिक आवेदन (Written Application) प्राप्त हुए। इस आदेश को चुनौती देते हुए यह तर्क दिया गया कि कोर्ट का ऐसा स्वतः निर्णय न्याय प्रक्रिया के प्रावधानों का उल्लंघन है।


कानूनी प्रावधानों का विश्लेषण:

1. CPC की धारा 0.8 नियम 1 (Order VIII Rule 1):
  • यह नियम निर्धारित करता है कि समन (Summons) की सेवा के तीस (30) दिन के भीतर प्रतिवादी को लिखित बयान दाखिल करना होता है।
  • हालांकि, एक परिशिष्ट (Proviso) यह भी प्रदान करता है कि विशिष्ट कारणों (Specific Reasons) को दर्ज करते हुए न्यायालय अधिकतम 90 दिन तक समय विस्तार दे सकता है।
  • सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, यह 90 दिन की सीमा निदेशक (Directory) है, अनिवार्य (Mandatory) नहीं।
2. स्वतः विस्तार (Suo Motu Extension) पर निषेध:
  • उच्च न्यायालय ने कहा कि कोर्ट अपने अधिकार से समय नहीं बढ़ा सकता, जब तक कि प्रतिवादी स्वयं विलंब का कारण स्पष्ट करते हुए याचिका न लगाए।
  • प्रक्रिया की यह शुद्धता ही निष्पक्ष न्याय का आधार है।
3. CPC की धारा 0.7 नियम 11 (Order VII Rule 11):
  • यह नियम वादपत्र (Plaint) को अस्वीकार करने की प्रक्रिया से संबंधित है, न कि लिखित बयान को
  • अदालत द्वारा अपनी अंतर्निहित शक्तियों (Inherent Powers) का उपयोग कर लिखित बयान को अस्वीकार करना विधिसम्मत नहीं है।

हाईकोर्ट का निर्णय:
मद्रास उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के आदेश को रद्द (Set Aside) करते हुए स्पष्ट किया कि:

  • जब प्रतिवादी ने कोई याचिका ही नहीं लगाई, तब कोर्ट का स्वतः समय देना अनुचित है।
  • लेकिन चूंकि अब प्रतिवादी समय मांगते हुए आगे आए हैं, तो उन्हें विधि के अनुरूप लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति दी जाती है।

न्यायिक निर्देश और निष्कर्ष:

  1. ट्रायल कोर्ट को सख्ती से प्रक्रिया का पालन करना चाहिए।
  2. प्रतिवादी को विलंब का स्पष्ट कारण बताते हुए समय विस्तार की याचिका लगानी चाहिए।
  3. अदालत को प्रत्येक विस्तार के लिए कारण दर्ज करने चाहिए।
  4. न्यायिक प्रक्रिया में अनुशासन और निष्पक्षता बनाए रखना आवश्यक है।

निष्कर्ष:
यह निर्णय न केवल न्यायिक प्रक्रिया में समानता और पारदर्शिता को सुनिश्चित करता है, बल्कि निचली अदालतों को यह संदेश भी देता है कि संवैधानिक व विधिक प्रावधानों के तहत ही कार्य किया जाए। बिना याचिका के किसी भी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है। यह फैसला सिविल ट्रायल में प्रक्रिया की गरिमा और निष्पक्षता को बनाए रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश है।