IndianLawNotes.com

लंदन में बैठे ‘ब्लैकमेलर्स’: हरिश साल्वे और प्रशांत भूषण के बीच तीखी बहस; सुप्रीम कोर्ट ने ED से इंडियाबुल्स मामले पर जवाब मांगा

लंदन में बैठे ‘ब्लैकमेलर्स’: हरिश साल्वे और प्रशांत भूषण के बीच तीखी बहस; सुप्रीम कोर्ट ने ED से इंडियाबुल्स मामले पर जवाब मांगा

प्रस्तावना

भारत की न्यायिक प्रणाली अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण और सम्माननीय है। सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) न केवल संवैधानिक और विधिक मामलों में अंतिम निर्णय देने का अधिकार रखता है, बल्कि सार्वजनिक हित से जुड़े मामलों में भी इसकी सक्रियता और गंभीरता अक्सर चर्चा का विषय बनती है। न्यायपालिका की यह भूमिका देश में लोकतंत्र और न्याय की मजबूती का प्रतीक है। हाल ही में इंडियाबुल्स हाउसिंग फाइनेंस लिमिटेड (Indiabulls Housing Finance Ltd., जिसे अब सम्मान कैपिटल लिमिटेड नाम से जाना जाता है) के खिलाफ दर्ज एक याचिका में सुप्रीम कोर्ट में हुई बहस ने न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता, वित्तीय जिम्मेदारी और कानूनी सटीकता के महत्व को दोबारा रेखांकित किया है।

इस मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता हरिश साल्वे और अधिवक्ता प्रशांत भूषण के बीच कोर्ट रूम में तीखी बहस हुई, जो न केवल मीडिया का ध्यान खींचने वाला रहा, बल्कि न्यायालय में पेश होने वाले वरिष्ठ वकीलों की भाषा और आचरण पर भी सवाल उठाने वाला रहा। इस लेख में हम इस मामले की पृष्ठभूमि, आरोप, बहस, न्यायालय की कार्रवाई और आगे की संभावित प्रक्रियाओं का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।


मामले की पृष्ठभूमि

सिटीजन व्हिसल ब्लोअर फोरम ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसमें इंडियाबुल्स हाउसिंग फाइनेंस लिमिटेड पर वित्तीय अनियमितताओं और फंड डायवर्जन (Fund Diversion) के आरोप लगाए गए थे। याचिका में मुख्य रूप से यह दावा किया गया कि इस कंपनी, जिसकी कथित नेट वर्थ मात्र ₹1 लाख थी, उसे ₹1,000 करोड़ का ऋण दिया गया। यह स्पष्ट रूप से वित्तीय धोखाधड़ी का संकेत है।

इसके अलावा याचिका में यह भी आरोप लगाया गया कि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI), भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) और कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय (MCA) द्वारा किए गए निरीक्षण और जांच में कई गंभीर अनियमितताएँ पाई गई हैं। याचिकाकर्ताओं का दावा था कि इन एजेंसियों ने पर्याप्त कार्रवाई नहीं की और नियमों के पालन में ढिलाई दिखाई।

याचिका में सुप्रीम कोर्ट से यह भी अनुरोध किया गया कि एक विशेष जांच दल (SIT) गठित किया जाए, जो इस मामले की निष्पक्ष और प्रभावशाली जांच कर सके। याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय से अपेक्षा जताई कि केवल सैद्धांतिक या प्रक्रियात्मक जांच नहीं, बल्कि वास्तविक वित्तीय लेन-देन और संभावित धोखाधड़ी के सभी पहलुओं की समीक्षा की जाए।


न्यायालय में बहस की शुरुआत

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान बहस अत्यंत गर्म हो गई। वरिष्ठ अधिवक्ता हरिश साल्वे, जो इंडियाबुल्स के पक्ष में पेश थे, ने याचिकाकर्ता फोरम को ‘ब्लैकमेलर्स’ कहकर संबोधित किया। यह शब्द सुनते ही कोर्ट रूम में हलचल मच गई।

इस पर प्रशांत भूषण ने तीखा पलटवार किया। उन्होंने कहा कि “लंदन में बैठे व्यक्ति को यह कहने का साहस कैसे हुआ”, और यह भी जोड़ दिया कि शायद उन्हें हलफनामों में लिखी वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं है। इस नोकझोंक ने कोर्ट रूम की गंभीरता को एक बार फिर परिभाषित किया, यह दर्शाते हुए कि न्यायालय में पेश होने वाले अधिवक्ता अपनी भाषा और आचरण में संयम बरतें, भले ही वे किसी भी पक्ष का प्रतिनिधित्व कर रहे हों।

इस बहस ने मीडिया और आम जनता का ध्यान इस ओर खींचा कि वित्तीय मामलों में न्यायालय में पेश होने वाले विशेषज्ञ वकीलों के बीच भी कितनी तीव्र बहस हो सकती है। साथ ही, यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसकी भूमिका को उजागर करता है कि वह किसी भी प्रकार की दबाव या धमकी के आगे नहीं झुकती।


आरोपों और सबूतों का विश्लेषण

अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने अदालत में प्रस्तुत किए गए दस्तावेजों और रिपोर्टों का हवाला देते हुए कहा कि इंडियाबुल्स ने लगभग ₹400 करोड़ के ऋण कई रियल एस्टेट कंपनियों को दिए, जिनमें से एक कंपनी को ₹1,000 करोड़ का ऋण दिया गया, जबकि उसकी नेट वर्थ केवल ₹1 लाख थी।

उन्होंने आगे दावा किया कि इन ऋणों का इस्तेमाल ‘राउंड-ट्रिपिंग’ और फंड डायवर्जन के लिए किया गया, जिससे हजारों होमबॉयर्स को आर्थिक नुकसान हुआ। इस दौरान उन्होंने SEBI और MCA की रिपोर्टों का हवाला भी दिया, जिनमें 200 से अधिक उल्लंघनों का उल्लेख था। इन उल्लंघनों में कई ऐसे लेन-देन शामिल थे, जिनमें संबंधित पक्षों ने अपनी आर्थिक स्थिति या ऋण का सही विवरण प्रस्तुत नहीं किया।

इसके अलावा, प्रशांत भूषण ने न्यायालय को बताया कि इन फंड डायवर्जन और ऋण अनियमितताओं के कारण कई छोटे निवेशकों और घर खरीदने वाले व्यक्तियों को भी वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा। यह मामला केवल कॉरपोरेट फाइनेंस तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक सार्वजनिक हित से जुड़ा हुआ है।


ED और अन्य एजेंसियों की भूमिका

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की गंभीरता को देखते हुए प्रवर्तन निदेशालय (ED) से मामले में अपनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा। ED से पूछा गया कि क्या कंपनी के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग के साक्ष्य उपलब्ध हैं और यदि हाँ, तो आगे की कार्रवाई क्या की जा रही है।

साथ ही, न्यायालय ने केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) से भी यह जानने की कोशिश की कि क्या उन्होंने मामले में कोई प्रारंभिक जांच की है, और यदि हाँ, तो उसके नतीजे और साक्ष्य क्या हैं। CBI ने पहले यह कहा था कि इस मामले में मनी लॉन्ड्रिंग के पर्याप्त साक्ष्य हैं, जिसे न्यायालय ने गंभीरता से लिया।

यह स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट ने वित्तीय अपराध और धोखाधड़ी के मामलों में एजेंसियों की भूमिका और उनकी जवाबदेही को गंभीरता से लिया है। यह दर्शाता है कि न्यायपालिका किसी भी सरकारी या कॉरपोरेट एजेंसी की कार्रवाई की निगरानी करने में सक्षम है और आवश्यकतानुसार उन्हें जवाबदेह ठहरा सकती है।


MCA से मूल रिकॉर्ड की मांग

न्यायालय ने कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय (MCA) को भी निर्देश दिया कि वे मामले में की गई कार्रवाई के मूल रिकॉर्ड प्रस्तुत करें। न्यायालय जानना चाहता था कि MCA ने SEBI की रिपोर्ट और जांच के बावजूद कैसे कई उल्लंघनों को नजरअंदाज किया, और किन परिस्थितियों में इन निर्णयों को मंजूरी दी गई।

यह कदम न्यायपालिका की पारदर्शिता की नीति का प्रतीक है। इसका उद्देश्य केवल दोषियों को सजा देना नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी एजेंसियों की कार्रवाई में किसी प्रकार की ढिलाई या पक्षपात न हो। MCA को कोर्ट के समक्ष अपने रिकॉर्ड पेश करने का निर्देश दिया गया, ताकि न्यायालय स्वयं यह मूल्यांकन कर सके कि जांच प्रक्रिया में कहां कमी हुई।


न्यायालय की आगे की कार्रवाई

सुप्रीम कोर्ट ने मामले की अगली सुनवाई के लिए 19 नवंबर 2025 की तिथि निर्धारित की है। इस सुनवाई में MCA के एक वरिष्ठ अधिकारी को मूल रिकॉर्ड के साथ उपस्थित होने का निर्देश दिया गया है। इसके अलावा, ED और CBI को भी न्यायालय में अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी।

यह सुनवाई केवल एक तकनीकी प्रक्रिया नहीं होगी, बल्कि यह इस बात का संकेत है कि न्यायपालिका वित्तीय अनियमितताओं और सार्वजनिक हित से जुड़े मामलों में पूरी पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग करती है। कोर्ट की सक्रियता यह दिखाती है कि किसी भी प्रकार की वित्तीय धोखाधड़ी और फंड डायवर्जन को नजरअंदाज नहीं किया जाएगा।


निष्कर्ष

इंडियाबुल्स हाउसिंग फाइनेंस लिमिटेड (अब सम्मान कैपिटल लिमिटेड) के खिलाफ आरोप और सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता यह दर्शाती है कि भारतीय न्यायपालिका केवल कानूनी प्रक्रियाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि वह सार्वजनिक हित, वित्तीय पारदर्शिता और कॉरपोरेट जिम्मेदारी के प्रति भी जागरूक है।

इस मामले में हुई बहस ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायालय में पेश होने वाले वरिष्ठ अधिवक्ताओं को अपनी भाषा और आचरण में संयम बरतना चाहिए। किसी भी प्रकार का कठोर शब्द या आरोप न्यायिक गरिमा को प्रभावित कर सकता है।

सुप्रीम कोर्ट की यह पहल यह संदेश देती है कि वित्तीय अपराध और धोखाधड़ी के मामलों में न्यायालय पूरी पारदर्शिता और गंभीरता के साथ कार्य करेगा। यह मामला केवल इंडियाबुल्स तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे वित्तीय और कॉरपोरेट सेक्टर के लिए एक चेतावनी है कि अनियमितताओं को किसी भी दशा में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

साथ ही, यह उदाहरण यह भी दिखाता है कि न्यायपालिका का काम केवल विवादों को सुलझाना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी और कॉरपोरेट एजेंसियां अपने कर्तव्यों का पालन करें और किसी भी प्रकार की लापरवाही या भ्रष्टाचार को नजरअंदाज न करें।

अंततः, यह मामला भारत में न्यायिक प्रक्रिया की मजबूती, वित्तीय पारदर्शिता की आवश्यकता और सार्वजनिक हित की सुरक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण उदाहरण के रूप में याद रखा जाएगा।