“राष्ट्रपति संदर्भ का इंतज़ार करें : ने के गवर्नर द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजे जाने के खिलाफ याचिका को टाल दिया”
प्रस्तावना
भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में राष्ट्रपति, राज्यपाल, राज्य सरकार और विधानमंडल की भूमिकाएँ तथा उनकी अंतःक्रियाएँ समय-समय पर विवादों के केंद्र में रही हैं। हाल ही में राज्य-स्तर पर एक महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न सामने आया है जब ने राज्यपाल द्वारा दो विधेयकों को बिना अपनी सलाह मानी, सीधे राष्ट्रपति के पास भेजे जाने के खिलाफ याचिका दायर की। इस याचिका को सुन रही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पहले वह उस संदर्भ (Presidential Reference) का परिणाम देखना चाहती है जो राष्ट्रपति ने अपनी ओर से जारी किया है। इस प्रकार आज हम इस मामले के पीछे के संवैधानिक प्रश्न, इसके इतिहास, वर्तमान स्थिति तथा आने वाले प्रभावों पर एक व्यवस्थित विवेचना प्रस्तुत कर रहे हैं।
१. घटना का पृष्ठभूमि
- तमिल नाडु सरकार ने दो विधेयक पारित किए थे — एक “” और दूसरा “” (जिसे यहाँ संक्षिप्त रूप में ‘Sports University Bill’ कहा गया)।
- इन विधेयकों को विधानसभा ने पारित कर राज्यपाल के पास भेजा था। राज्य सरकार ने कहा कि विधेयक प्रस्तावित थे, मंत्रिपरिषद ने सलाह दी थी कि राज्यपाल उन्हें स्वीकृति दें।
- किन्तु राज्यपाल ने स्वीकृति न देकर उन्हें सीधे राष्ट्रपति के निर्णय के लिए आरक्षित कर दिया। राज्य सरकार ने इस कदम को संवैधानिक व अनियमित बताया।
- इस विरोध में तमिल नाडु सरकार ने में याचिका दाखिल की।
- उसी समय, राष्ट्रपति द्वारा एक “Presidential Reference” जारी की गयी थी—अर्थात् सर्वोच्च न्यायालय से सलाह-मशविरा मांगा गया था कि क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति को राज्य विधानसभाओं द्वारा पास किये गए विधेयकों को अस्सेंट देने के लिए समय-सीमा निर्धारित करना संभव है, या संवैधानिक रूप से उन्हें पूर्ण विवेकाधिकार प्राप्त है।
- 17 अक्तूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने उक्त याचिका पर सुनवाई टालते हुए कहा कि राज्य सरकार को पहले इस Presidential Reference के निर्णय का इंतज़ार करना चाहिए।
२. संवैधानिक प्रावधान एवं मुख्य मुद्दे
(क) प्रासंगिक प्रावधान
- अनुच्छेद 200 : राज्य विधेयक की स्वीकृति, अस्वीकृति या राष्ट्रपति के पास आरक्षण के लिए राज्यपाल को विकल्प देता है।
- अनुच्छेद 201 : जब राज्यपाल एक विधेयक को राष्ट्रपति के पास आरक्षित करता है, तो राष्ट्रपति उसकी स्वीकृति, अस्वीकृति या पुनर्विचार का आदेश कर सकते हैं।
- अनुच्छेद 163(1) : राज्यपाल को सलाह देते समय राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह का पालन करना अनिवार्य है, यानि ‘मंत्रिपरिषद की सलाह पर’ सिद्धांत।
- अनुच्छेद 143 : राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय की सलाह लेने का अधिकार देता है—जिसे ‘Presidential Reference’ के रूप में जाना जाता है।
(ख) मुख्य संवैधानिक प्रश्न
- क्या राज्यपाल, जब राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह ले चुकी हो, फिर भी किसी विधेयक को सीधे राष्ट्रपति के पास आरक्षित कर सकती है?
- क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति को राज्य विधेयकों पर अस्सेंट देने में समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है, या उनका विवेकाधिकार (discretion) पूर्ण है?
- क्या इस तरह की निर्णय-प्रक्रिया न्यायालयीन समीक्षा योग्य (justiciable) है, या यह संवैधानिक रूप से राजनीतिक और संवैधानिक आदर का विषय है?
- यदि राज्यपाल द्वारा आरक्षण या अस्सेंट में विलम्ब हो गया, तो क्या वह संवैधानिक रूप से अस्वीकृत किया जा सकता है?
- इस पूरे क्रम का संघ-राज्य संबंधों, राजभाषा एवं संघीयता के दृष्टिकोण से क्या अर्थ है?
३. सुप्रीम कोर्ट में मामला एवं अब तक की स्थिति
- इस विषय में पहले प्रमुख मामला था (8 अप्रैल 2025) जिसमें दो-सदस्यीय पीठ ने राज्यपाल को “absolute veto” या “pocket veto” देने से मना किया।
- इसके बाद राष्ट्रपति ने एक Presidential Reference जारी की, जिसमें 14 प्रश्न सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रखे गए।
- याचिका में तमिल नाडु सरकार ने तर्क दिया कि राज्यपाल ने मंत्रिपरिषद की सलाह के बाद भी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजा—यह संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन है।
- वर्तमान सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि:
“आपको शायद चार सप्ताह ही इंतज़ार करना होगा, यह संदर्भ 21 नवम्बर से पहले तय हो जाना चाहिए।”
- इस प्रकार कोर्ट ने याचिका की सुनवाई को टाल दिया और कहा कि पहले Presidential Reference पर निर्णय दें।
४. विवेचनात्मक विश्लेषण
(क) राज्यपाल का विवेकाधिकार एवं मंत्रिपरिषद की सलाह
संविधान में यह प्रावधान है कि राज्यपाल ‘मंत्रिपरिषद की सलाह’ के आधार पर कार्य करेगा। राज्यपाल द्वारा मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के बाद ही कार्यवाही करना संवैधानिक अपेक्षा है। यदि मंत्रिपरिषद की सलाह के विपरीत राज्यपाल ने कार्रवाई की—जैसे सीधे राष्ट्रपति के पास भेजना—तो यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या यह संवैधानिक रूप से अधिरूप से विवेकाधिकार का उपयोग है।
हालाँकि केंद्र और राज्यपाल की दलील है कि आरक्षण करना राज्यपाल का संवैधानिक कर्तव्य है, और यह चुनावी राजनीति से हटकर संवैधानिक विवेकाधिकार के दायरे में आता है।
(ख) समय-सीमा का प्रश्न
समय-सीमा का प्रश्न संवैधानिक रूप से विशेष महत्व का है। यदि विधेयक लंबे समय तक राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास अटका रहता है, तो विधानमंडल तथा राज्य सरकार की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। इसने न्यायालय में यह प्रश्न उठाया है कि क्या समय-सीमा निर्धारित करना न्यायालयीय रूप से संभव एवं संवैधानिक है।
पूर्व निर्णय में, सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल को विलम्ब न करने का निर्देश दिया था, लेकिन उस समय यह प्रश्न नहीं हुआ था कि राष्ट्रपति या राज्यपाल के लिए समय-सीमा संवैधानिक रूप से बाध्य है या नहीं। अब यह Presidential Reference इसी बिंदु पर केन्द्रित है।
(ग) संघीयता एवं संवैधानिक संतुलन
यह मामला संघीय राज्यों की स्वायत्तता, राज्य-मंत्रिपरिषद एवं राज्यपाल के बीच संतुलन, तथा नियंत्रक-संविधान के बीच संबंध जैसा संवेदनशील प्रश्न उठाता है। यदि राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति का विवेकाधिकार अत्यधिक विस्तारित हो जाए, तो विधानसभाओं तथा राज्यों की कार्य-स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है। दूसरी ओर, यदि समय-सीमा लागत हो जाएँ, तो संवैधानिक विवेकाधिकार सीमित हो सकता है और न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के बीच संतुलन प्रभावित हो सकता है।
(घ) न्यायालयीय समीक्षा की सीमा
केंद्रीय दलील यह है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा ऐसे निर्णय लेना राजनीतिक विषय है, और न्यायालयीय हस्तक्षेप सीमित होना चाहिए। लेकिन दूसरी ओर विधेयक अस्वीकृति, आरक्षण या अस्सेंट में विलम्ब जैसे मामलों ने न्यायालय के हस्तक्षेप की गुंजाइश उघाड़ी है। इस प्रकार यह सवाल उठता है कि कहाँ तक न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है और किस हद तक यह ‘अधिकार’ की समीक्षा योग्य है।
५. संभावित परिणाम एवं प्रभाव
(क) विधानमंडल-कार्यपालिका-राज्यपाल संबंध
यदि कोर्ट ने यह तय कर दिया कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह के बाद बिना कारण सीधे राष्ट्रपति के पास भेजना संवैधानिक नहीं है, तो राज्यों में विधानमंडल-मंत्रिपरिषद और राज्यपाल के बीच अब और स्पष्ट प्रक्रियाएँ बन सकती हैं।
(ख) समय-सीमा का निर्धारण
यदि यह निर्धारित हुआ कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को अस्सेंट देने या आरक्षण करने में संवैधानिक रूप से सीमित समय देना संभव है, तो यह विधानमंडल-विधेयक प्रक्रिया को तेज कर सकता है। इससे राज्यों में विधेयकों की लंबितता कम हो सकती है।
(ग) न्यायिक हस्तक्षेप की दिशा
न्यायालय की भूमिका और सीमा स्पष्ट हो सकती है कि किन परिस्थितियों में राज्यपाल या राष्ट्रपति का निर्णय न्यायालय द्वारा समीक्षा योग्य है। इस तरह न्यायपालिका-कार्यपालिका संबंधों में नया संतुलन आ सकता है।
(घ) संघ-राज्य संबंधों पर प्रभाव
यदि राज्यपाल/राष्ट्रपति के विवेकाधिकार को सीमित किया गया, तो राज्यों की स्वायत्तता मजबूत हो सकती है। फिर भी, इस प्रकार की दिशा से केंद्र के नियंत्रण का दायरा और राज्यों की स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाना महत्वपूर्ण होगा।
६. निष्कर्ष
यह मामला इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सिर्फ एक राज्य-मामला नहीं है, बल्कि पूरे भारत के संवैधानिक ढाँचे—विधानमंडल, राज्य सरकार, राज्यपाल, राष्ट्रपति तथा न्यायपालिका के बीच संतुलन—का प्रश्न है। सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान याचिका पर सुनवाई को टालते हुए कहा कि पहले Presidential Reference का निर्णय आए, जो यह तय करेगा कि संविधान में राज्यपाल-राष्ट्रपति की स्वीकृति प्रक्रिया में समय-सीमा लगा सकते हैं या नहीं।
राज्य सरकार व राज्यपाल के बीच अधिकार-वितरण का यह विवाद न्याय-नीति और संवैधानिक समीक्षा की सीमाओं के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। आने वाले निर्णय से राज्यों के विधायी कामकाज, राज्य-कार्यपालिका-राज्यपाल संबंध एवं न्यायालय की भूमिका पर स्थायी प्रभाव पड़ सकता है।
मैं इस लेख को इसी निष्कर्ष पर समाप्त करता हूँ कि यह मामला संवैधानिक व्याख्या एवं संघ-राज्य संबंधों के संदर्भ में एक मील का पत्थर बनने की संभावना रखता है।