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राम सागर बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI), SLP-2671/2025 : अभियोजन की स्वीकृति (Sanction of Prosecution) पर सुप्रीम कोर्ट का विस्तृत निर्णय

राम सागर बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI), SLP-2671/2025 : अभियोजन की स्वीकृति (Sanction of Prosecution) पर सुप्रीम कोर्ट का विस्तृत निर्णय

प्रस्तावना

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि किसी सार्वजनिक सेवक (Public Servant) को उसके आधिकारिक कार्यों के संबंध में अभियोजन (Prosecution) से पहले सक्षम प्राधिकारी की स्वीकृति (Sanction) आवश्यक होती है। इस सिद्धांत का उद्देश्य प्रशासनिक स्वतंत्रता को बनाए रखना है, ताकि अधिकारी अपने कर्तव्यों का निर्वहन निडर होकर कर सकें।

सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2025 में Ram Sagar v. Central Bureau of Investigation (CBI), SLP No. 2671 of 2025 में इस सिद्धांत पर एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि अभियोजन की स्वीकृति का प्रश्न (Question of Sanction) किसी भी मुकदमे में किस चरण पर और किस प्रकार उठाया जा सकता है।

यह निर्णय धारा 197 दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC) की व्याख्या को और सशक्त करता है तथा यह निर्धारित करता है कि कब और कैसे अदालत अभियोजन की स्वीकृति से संबंधित तर्कों पर विचार कर सकती है।


1. मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)

राम सागर (Ram Sagar) उस समय एक सरकारी विभाग में अधिकारी के रूप में कार्यरत थे। उन पर आरोप था कि उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए कुछ वित्तीय अनियमितताएँ कीं, जो भारतीय दंड संहिता (IPC) की विभिन्न धाराओं के तहत दंडनीय अपराध हैं।

केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) ने जांच के बाद उनके विरुद्ध चार्जशीट दाखिल की। इसके पश्चात जब मामला ट्रायल कोर्ट में पहुँचा, तो राम सागर ने यह दलील दी कि उनके विरुद्ध अभियोजन की स्वीकृति (Sanction for Prosecution) प्राप्त नहीं की गई थी, जो कि धारा 197 CrPC के अंतर्गत अनिवार्य है।

उनका कहना था कि बिना सक्षम प्राधिकारी की अनुमति के किसी सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध मुकदमा चलाना विधि-विरुद्ध है और इसलिए ट्रायल (Trial) आगे नहीं बढ़ सकता।


2. आरोपी की मुख्य दलीलें (Plea of the Accused)

राम सागर ने सुप्रीम कोर्ट में यह तर्क प्रस्तुत किया कि –

  1. अभियोजन पक्ष ने विभागीय स्वीकृति प्राप्त किए बिना ही उनके विरुद्ध चार्जशीट दाखिल कर दी।
  2. चूंकि आरोप उनके पद पर रहते हुए किये गए कथित कार्यों से संबंधित हैं, अतः धारा 197 CrPC के तहत स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक था।
  3. बिना स्वीकृति के मुकदमे की पूरी कार्यवाही अवैध है और इस आधार पर ट्रायल को रोका जाना चाहिए।

उनका कहना था कि जब तक संबंधित विभाग अभियोजन की अनुमति नहीं देता, तब तक अदालत आरोपी के विरुद्ध संज्ञान (Cognizance) नहीं ले सकती।


3. अभियोजन पक्ष का प्रत्युत्तर (Response of the Prosecution/CBI)

CBI ने इस दलील का विरोध करते हुए कहा कि –

  • स्वीकृति का प्रश्न मुकदमे के प्रारंभिक चरण में निर्णायक नहीं होता।
  • अदालत को यह देखने की आवश्यकता है कि आरोपी का कथित कृत्य वास्तव में उसके “आधिकारिक कार्य” (Official Duty) के अंतर्गत आता है या नहीं।
  • यदि कथित कार्य भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, या आपराधिक दुराचार से संबंधित हैं, तो अभियोजन की स्वीकृति का प्रश्न बाद में, अर्थात् साक्ष्य के चरण पर उठाया जा सकता है।

इसलिए, अभियोजन ने यह तर्क दिया कि आरोपी की दलील समय से पहले (premature) है और उसे अभी खारिज किया जाना चाहिए।


4. कानूनी प्रावधान: धारा 197 दंड प्रक्रिया संहिता (Section 197 CrPC)

धारा 197 CrPC कहती है कि —

“जब कोई लोक सेवक (Public Servant) अपने आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन के दौरान या उसके रंग में कोई कार्य करता है, तो उसके विरुद्ध अभियोजन शुरू करने से पहले सक्षम प्राधिकारी की स्वीकृति आवश्यक है।”

इस प्रावधान का उद्देश्य:

  • ईमानदार अधिकारियों को झूठे मुकदमों से बचाना।
  • प्रशासनिक कार्यों में अधिकारियों की स्वतंत्रता बनाए रखना।
  • परंतु यह भी सुनिश्चित करना कि अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग कर अपराध न करें।

महत्वपूर्ण प्रश्न यह होता है:
क्या आरोपी का कार्य “आधिकारिक कर्तव्य” का हिस्सा था या उसने अपने पद का दुरुपयोग कर अपराध किया? यही निर्धारण स्वीकृति के प्रश्न को तय करता है।


5. सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय (Court’s Reasoning and Judgment)

सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ (Division Bench) ने विस्तृत विचार के बाद कहा कि –

  1. स्वीकृति का प्रश्न तथ्यों पर निर्भर करता है।
    यह कहना कि अभियोजन के लिए स्वीकृति आवश्यक है या नहीं, यह तभी तय किया जा सकता है जब अदालत साक्ष्य (Evidence) का अवलोकन कर ले।
  2. ट्रायल कोर्ट को अधिकार है कि वह किसी भी चरण में इस प्रश्न पर विचार करे।
    अदालत ने कहा कि अभियोजन की स्वीकृति का प्रश्न मुकदमे के किसी भी चरण (at any stage of trial) पर उठाया जा सकता है।
  3. आरोपी की दलील अभी असमय है।
    अदालत ने कहा कि जब तक यह स्पष्ट नहीं होता कि आरोपी का कृत्य उसके आधिकारिक कार्य से संबंधित था या नहीं, तब तक स्वीकृति की मांग करना समयपूर्व (premature) होगा।
  4. स्वीकृति का उद्देश्य “दंड से बचाव” नहीं, बल्कि “ईमानदार कार्य” की रक्षा है।
    यदि आरोपी ने अपने पद का दुरुपयोग कर व्यक्तिगत लाभ या आपराधिक कृत्य किया है, तो वह “आधिकारिक कर्तव्य” की परिधि में नहीं आता और उसे स्वीकृति का संरक्षण नहीं मिल सकता।

अंततः सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी की याचिका खारिज कर दी (Plea Rejected) और यह कहा कि —

“स्वीकृति का प्रश्न साक्ष्य के आलोक में ट्रायल कोर्ट तय करेगा। ट्रायल को इस आधार पर रोका नहीं जा सकता।”


6. न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत (Principles Laid Down by the Court)

सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय में कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किए –

  1. स्वीकृति का प्रश्न विधिक और तथ्यात्मक दोनों है।
    यह तभी तय किया जा सकता है जब यह ज्ञात हो जाए कि आरोपी ने जो कार्य किया वह उसके आधिकारिक कर्तव्य के तहत था या उससे बाहर।
  2. ट्रायल रोकने का आधार नहीं।
    अभियोजन की स्वीकृति न होने मात्र से ट्रायल की वैधता प्रभावित नहीं होती।
  3. प्रारंभिक चरण में स्वीकृति का अभाव घातक नहीं।
    यदि बाद में यह सिद्ध होता है कि आरोपी ने अपराध अपने पद के दुरुपयोग से किया, तो स्वीकृति की आवश्यकता नहीं।
  4. न्यायिक विवेक (Judicial Discretion):
    यह ट्रायल कोर्ट का विवेक है कि वह कब और किस चरण पर इस मुद्दे पर विचार करे।

7. पूर्ववर्ती निर्णयों से तुलना (Precedent Cases Comparison)

(i) Matajog Dobey v. H.C. Bhari (1955 AIR 44)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि –
“Whether sanction is necessary or not depends upon the nature of the act and the circumstances in which it was done.”
अर्थात्, स्वीकृति की आवश्यकता इस पर निर्भर करती है कि कृत्य की प्रकृति क्या है और क्या वह पद के अधिकार के अंतर्गत था।

(ii) State of Orissa v. Ganesh Chandra Jew (2004) 8 SCC 40

इस मामले में कहा गया कि यदि अधिकारी ने अपने पद का दुरुपयोग निजी लाभ के लिए किया है, तो उसे धारा 197 का संरक्षण नहीं मिलेगा।

(iii) Devinder Singh v. State of Punjab (2016) 12 SCC 87

इस निर्णय में स्पष्ट किया गया कि स्वीकृति का उद्देश्य “honest discharge of official duty” की रक्षा करना है, न कि अपराध करने की छूट देना।

Ram Sagar केस इन सभी निर्णयों की पुनः पुष्टि करता है।


8. विधिक महत्व (Legal Significance of the Judgment)

यह निर्णय कई कारणों से महत्वपूर्ण है –

  1. प्रशासनिक स्वतंत्रता और जवाबदेही का संतुलन:
    यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि न तो अधिकारी निराधार अभियोजन के भय से कार्य करने से डरे, और न ही वे स्वीकृति के बहाने अपराध करने का साहस करें।
  2. प्रक्रियात्मक स्पष्टता:
    अब यह स्पष्ट है कि “sanction for prosecution” का प्रश्न ट्रायल के किसी भी चरण में उठाया जा सकता है, और प्रारंभिक स्तर पर इसे अभियोजन रोकने का आधार नहीं बनाया जा सकता।
  3. CBI और अन्य जांच एजेंसियों के लिए दिशा-निर्देश:
    यह निर्णय जांच एजेंसियों को मार्गदर्शन देता है कि वे किस परिस्थिति में अभियोजन से पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता समझें।
  4. न्यायिक विवेक की पुनः पुष्टि:
    यह निर्णय ट्रायल कोर्ट के विवेक को सर्वोच्च महत्व देता है।

9. आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Analysis)

यद्यपि यह निर्णय कानूनी दृष्टि से संतुलित है, कुछ विद्वानों का मत है कि —

  • “किसी भी चरण में स्वीकृति पर विचार” की अनुमति देने से अभियुक्तों को मुकदमे को लंबा खींचने का अवसर मिल सकता है।
  • वहीं, अन्य विशेषज्ञों का मत है कि यह निर्णय न्याय और प्रशासनिक स्वतंत्रता के बीच उचित संतुलन स्थापित करता है।

व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो, यदि हर अधिकारी को बिना किसी जांच के अभियोजन से प्रतिरक्षित किया जाए, तो भ्रष्टाचार के मामलों में न्याय बाधित होगा। परंतु यदि हर अधिकारी पर बिना अनुमति के मुकदमे चलें, तो सरकारी कार्य निष्प्रभावी हो जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इस द्वंद्व को व्यावहारिक संतुलन के साथ सुलझाया है।


10. निष्कर्ष (Conclusion)

Ram Sagar v. CBI (2025) का यह निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में “अभियोजन की स्वीकृति” की अवधारणा को नई स्पष्टता प्रदान करता है।

अदालत ने यह स्पष्ट किया कि —

“धारा 197 CrPC का उद्देश्य किसी व्यक्ति को अपराध से बचाना नहीं, बल्कि सार्वजनिक सेवकों को उनके ईमानदार कार्यों के लिए सुरक्षा प्रदान करना है।”

यह निर्णय न्यायिक विवेक, प्रशासनिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह न्यायपालिका की उस सतर्क भूमिका का उदाहरण है, जहाँ वह न तो अभियुक्त को अनुचित संरक्षण देती है, और न ही उसकी स्वतंत्रता को अनावश्यक रूप से सीमित करती है।

इस प्रकार, “Ram Sagar v. CBI” भारतीय न्यायशास्त्र में एक मील का पत्थर (landmark judgment) बन गया है, जिसने यह सिद्धांत पुनः स्थापित किया है कि —

“Sanction for prosecution is not a shield for crime, but a safeguard for honest administration.”