“राजस्थान हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की प्रमाणिकता अब केवल मूल उपकरण धारक से प्रमाणित होगी”
🔹 प्रस्तावना
भारत के न्यायिक तंत्र में तकनीक का बढ़ता प्रभाव एक नई दिशा दे रहा है। इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य (Electronic Evidence) जैसे वीडियो, ऑडियो, सीसीटीवी फुटेज, मोबाइल रिकॉर्डिंग, ईमेल और डिजिटल डेटा अब न्यायालयों में साक्ष्य के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन इन साक्ष्यों की प्रमाणिकता और विश्वसनीयता को लेकर कई बार विवाद उठते हैं।
इन्हीं विवादों के समाधान की दिशा में राजस्थान हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65B के तहत प्रमाणपत्र (Certificate) केवल उसी व्यक्ति द्वारा जारी किया जा सकता है, जिसके डिवाइस (device) में वह मूल इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड सबसे पहले निर्मित हुआ हो।
यह निर्णय इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की प्रामाणिकता (authenticity) और अखंडता (integrity) की सुरक्षा के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
🔹 पृष्ठभूमि
डिजिटल युग में न्यायालयों में प्रस्तुत होने वाले साक्ष्यों का बड़ा हिस्सा इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से आता है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर, सर्विलांस कैमरा, ईमेल सर्वर और क्लाउड स्टोरेज जैसे स्रोतों से जुटाई गई जानकारी को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
लेकिन सवाल यह उठता है कि –
“क्या किसी ट्रांसफर की गई या कॉपी की गई फाइल को भी वैध इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य माना जा सकता है?”
इसी प्रश्न का उत्तर राजस्थान हाईकोर्ट ने अपने हालिया निर्णय में दिया है, जिसमें अदालत ने कहा कि —
“साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B के अंतर्गत प्रमाणपत्र उसी व्यक्ति द्वारा दिया जाना आवश्यक है, जिसके उपकरण में मूल इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड पहली बार निर्मित हुआ था।”
🔹 प्रकरण का संक्षिप्त विवरण
राजस्थान हाईकोर्ट के समक्ष एक आपराधिक मामले में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड (जैसे ऑडियो रिकॉर्डिंग) को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया था। अभियोजन पक्ष ने वह रिकॉर्ड एक ऐसे व्यक्ति से प्राप्त किया था, जिसे मूल रिकॉर्डिंग बाद में ट्रांसफर की गई थी।
लेकिन अदालत के समक्ष सवाल यह उठा कि —
क्या वह व्यक्ति, जिसके पास रिकॉर्ड बाद में आया, वह भी 65B प्रमाणपत्र जारी कर सकता है?
🔹 न्यायालय का अवलोकन
न्यायमूर्ति की पीठ ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B(4) की भाषा का विश्लेषण करते हुए कहा कि —
- यह प्रावधान इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की मूलता और सत्यता सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है।
- प्रमाणपत्र का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि —
- इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख किस उपकरण से तैयार हुआ,
- किस व्यक्ति द्वारा तैयार किया गया,
- उस उपकरण की कार्यप्रणाली और डेटा की विश्वसनीयता कैसी थी।
अतः, यदि यह प्रमाणपत्र किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा जारी किया जाता है जिसके पास रिकॉर्ड बाद में केवल कॉपी के रूप में पहुंचा, तो यह मूल स्रोत की गारंटी नहीं देता।
इसलिए अदालत ने कहा:
“65B का प्रमाणपत्र केवल उसी व्यक्ति द्वारा जारी किया जा सकता है जिसके उपकरण में मूल रिकॉर्ड तैयार हुआ हो, न कि ट्रांसफर प्राप्त करने वाले व्यक्ति द्वारा।”
🔹 निर्णय का तर्क (Rationale Behind the Judgment)
राजस्थान हाईकोर्ट ने यह कहते हुए स्पष्ट किया कि यह नियम प्रमाणिकता की श्रृंखला (Chain of Authenticity) को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है।
यदि कोई भी व्यक्ति कॉपी प्राप्त करके प्रमाणपत्र जारी करने लगे तो —
- साक्ष्य में छेड़छाड़ (Tampering) का खतरा बढ़ जाएगा,
- डेटा की अखंडता (Integrity) पर प्रश्न उठेंगे,
- न्यायिक प्रक्रिया में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होगी।
अदालत ने कहा कि साक्ष्य की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि उसे उसी व्यक्ति द्वारा प्रमाणित किया जाए जो डेटा निर्माण (data creation) की प्रक्रिया का प्रत्यक्ष साक्षी हो।
🔹 सुप्रीम कोर्ट के संदर्भ
इस निर्णय का आधार सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध मामलों पर भी रखा गया, जिनमें —
- Anvar P.V. v. P.K. Basheer (2014) 10 SCC 473
- इसमें कहा गया था कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की ग्राह्यता के लिए 65B प्रमाणपत्र अनिवार्य है।
- Arjun Panditrao Khotkar v. Kailash Kushanrao Gorantyal (2020) 7 SCC 1
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जब तक 65B(4) के तहत विधिवत प्रमाणपत्र नहीं दिया जाता, तब तक कोई इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं होगा।
राजस्थान हाईकोर्ट ने इन दोनों निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि “65B प्रमाणपत्र की वैधता स्रोत व्यक्ति से जुड़ी है, न कि मात्र धारक से।”
🔹 इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य और न्यायिक प्रक्रिया में चुनौतियाँ
इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के साथ न्यायालयों को कई व्यावहारिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है —
- 🔸 डेटा में manipulation या editing की संभावना
- 🔸 साक्ष्य के original source की पहचान कठिन होना
- 🔸 विभिन्न उपकरणों में डेटा ट्रांसफर के दौरान metadata का बदल जाना
- 🔸 तकनीकी ज्ञान की कमी के कारण प्रमाणपत्र की सटीकता पर संदेह
राजस्थान हाईकोर्ट का यह निर्णय इन सभी चुनौतियों को दूर करने की दिशा में एक ठोस कदम है, क्योंकि अब यह सुनिश्चित होगा कि —
“साक्ष्य की सत्यता उसी व्यक्ति द्वारा प्रमाणित हो जो उसके मूल निर्माण का साक्षी है।”
🔹 निर्णय का प्रभाव
- न्यायिक पारदर्शिता (Judicial Transparency):
यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता को बढ़ावा देगा। अब केवल वही इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य स्वीकार होगा जो अपने स्रोत से प्रमाणित हो। - तकनीकी जिम्मेदारी (Technical Accountability):
इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य प्रस्तुत करने वाले अभियोजक, पुलिस अधिकारी या निजी व्यक्ति को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रमाणपत्र सही व्यक्ति से प्राप्त किया गया है। - डिजिटल अपराधों की जांच पर प्रभाव:
साइबर अपराध या डिजिटल धोखाधड़ी के मामलों में यह निर्णय साक्ष्य एकत्र करने और प्रस्तुत करने के नए मानक तय करेगा। - विवादों में कमी:
अब इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता पर विवाद कम होंगे क्योंकि प्रमाणपत्र देने वाले व्यक्ति की पहचान स्पष्ट रहेगी।
🔹 न्यायालय की टिप्पणी
अदालत ने कहा —
“इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की वैधता उस व्यक्ति की तकनीकी विश्वसनीयता पर निर्भर करती है जिसने उसे उत्पन्न किया। प्रमाणपत्र देने का अधिकार उस व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता जो केवल डेटा प्राप्त करने वाला है। अन्यथा यह न्यायिक प्रणाली की निष्पक्षता को प्रभावित करेगा।”
🔹 निष्कर्ष
राजस्थान हाईकोर्ट का यह निर्णय न केवल साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B की व्याख्या को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भारत में डिजिटल न्याय के विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।
अब यह सिद्धांत स्थापित हो गया है कि —
“प्रमाणिकता की जड़ मूल स्रोत में है, न कि उसके प्रतिलिपिकर्ता में।”
यह फैसला भविष्य में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की ग्राह्यता के सभी मामलों के लिए मार्गदर्शक बनेगा। न्यायालयों, पुलिस एजेंसियों और वकीलों के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वे डिजिटल साक्ष्य से संबंधित सभी प्रक्रियाओं में तकनीकी सावधानी और कानूनी सटीकता बनाए रखें।
✍️ निष्कर्षतः, राजस्थान हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की विश्वसनीयता को नई मजबूती प्रदान करता है। यह न केवल तकनीकी साक्ष्य के मानदंडों को सख्त करता है, बल्कि न्याय के सिद्धांतों — सत्य, निष्पक्षता और पारदर्शिता — को भी सुदृढ़ करता है।