राजनीतिक शास्त्र । (Political Science – I) part-2

51. लोक कल्याणकारी राज्य का अर्थ

लोक कल्याणकारी राज्य वह होता है जो केवल कानून और व्यवस्था बनाए रखने तक सीमित नहीं होता, बल्कि नागरिकों के सामाजिक और आर्थिक कल्याण के लिए भी कार्य करता है। यह शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और न्याय की उपलब्धता सुनिश्चित करता है। भारतीय संविधान इस प्रकार के राज्य की स्थापना का लक्ष्य रखता है।


52. सत्ता पृथक्करण सिद्धांत का महत्व
सत्ता पृथक्करण सिद्धांत के अनुसार, शासन की तीनों शाखाएँ—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—अलग-अलग होनी चाहिए ताकि एक-दूसरे पर नियंत्रण और संतुलन बना रहे। मोंतेस्क्यू ने इसे विकसित किया। भारत में पूर्ण पृथक्करण नहीं है, लेकिन स्वतंत्रता और संतुलन सुनिश्चित करने की व्यवस्था है।


53. मानव स्वतंत्रता और सामाजिक नियंत्रण में संतुलन
मानव स्वतंत्रता आवश्यक है परंतु असीमित स्वतंत्रता अराजकता को जन्म देती है। इसी कारण सामाजिक नियंत्रण आवश्यक है। कानून, नैतिकता, और सामाजिक मूल्य व्यक्ति की स्वतंत्रता को मर्यादित करते हैं, जिससे समाज में शांति, अनुशासन और विकास संभव होता है।


54. भारत में बहुदलीय प्रणाली
भारत में बहुदलीय प्रणाली है, जिसमें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर अनेक राजनीतिक दल कार्यरत हैं। यह प्रणाली विविधता को प्रतिबिंबित करती है और विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व देती है। हालांकि इससे राजनीतिक अस्थिरता की संभावना भी बनी रहती है, परंतु गठबंधन राजनीति इसका समाधान प्रस्तुत करती है।


55. जनमत (Public Opinion) का महत्व
जनमत वह सामाजिक भावना है जो सरकार की नीतियों और निर्णयों को प्रभावित करती है। यह लोकतंत्र में नीति-निर्माण, सत्ता परिवर्तन और उत्तरदायित्व तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जनमत को व्यक्त करने के साधनों में चुनाव, जनांदोलन, मीडिया आदि शामिल हैं।


56. राजनीतिक समाजीकरण का अर्थ
राजनीतिक समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति राजनीति की जानकारी प्राप्त करता है, राजनीतिक मूल्यों को अपनाता है और राजनीतिक प्रणाली में भाग लेने योग्य बनता है। इसके माध्यम हैं—परिवार, विद्यालय, मित्र समूह, मीडिया आदि।


57. भारत में धर्म और राजनीति का संबंध
भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, लेकिन व्यवहार में धर्म और राजनीति का संबंध गहरा है। कई राजनीतिक दल धार्मिक भावनाओं का उपयोग चुनाव में करते हैं। यद्यपि संविधान धार्मिक तटस्थता की बात करता है, परंतु व्यावहारिक राजनीति में यह संतुलन एक चुनौती बनता जा रहा है।


58. सत्ता और अधिकार में अंतर
सत्ता वह क्षमता है जिसके आधार पर एक व्यक्ति या संस्था दूसरों पर नियंत्रण कर सकती है। अधिकार वह वैध शक्ति है जो कानून या संस्था द्वारा किसी व्यक्ति को प्रदान की जाती है। सत्ता कभी-कभी अधिकार के बिना भी प्रयोग हो सकती है, लेकिन अधिकार वैध और सीमित होता है।


59. भारतीय राजनीति में जातिवाद
भारत में जाति प्रथा राजनीतिक प्रक्रिया को गहराई से प्रभावित करती है। विभिन्न जातियों के लिए आरक्षण, जाति आधारित वोट बैंक, और दलों की रणनीतियाँ इसके उदाहरण हैं। यह लोकतंत्र को सामाजिक न्याय की ओर ले जाता है, परंतु कभी-कभी सामाजिक विभाजन और संघर्ष भी उत्पन्न करता है।


60. भारत में दल-बदल की समस्या
दल-बदल तब होता है जब कोई निर्वाचित प्रतिनिधि पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल हो जाता है। इससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती है। इसे रोकने के लिए 1985 में संविधान में 52वां संशोधन कर ‘दल-बदल कानून’ लागू किया गया, जिसमें निर्दिष्ट किया गया कि ऐसे प्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्त हो सकती है।


61. गठबंधन राजनीति का स्वरूप
गठबंधन राजनीति वह स्थिति है जब कोई एक दल पूर्ण बहुमत न प्राप्त कर, अन्य दलों से सहयोग लेकर सरकार बनाता है। यह भारत में 1990 के दशक के बाद आम हो गई। इससे प्रतिनिधित्व की व्यापकता बढ़ती है लेकिन स्थिरता और नीति-निर्माण में बाधाएं भी आती हैं।


62. नागरिक साक्षरता (Civic Literacy) का महत्व
नागरिक साक्षरता से तात्पर्य है कि नागरिक अपने अधिकारों, कर्तव्यों, संविधान और राजनीतिक प्रणाली के बारे में जागरूक हों। इससे वे जिम्मेदार नागरिक बनते हैं और लोकतंत्र मजबूत होता है। यह शिक्षा और जनजागरूकता कार्यक्रमों द्वारा प्राप्त की जाती है।


63. भारत में जन आंदोलन
भारत में जन आंदोलनों ने सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन में अहम भूमिका निभाई है, जैसे चिपको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, और अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन। ये जनता की आवाज़ को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में स्थान दिलाते हैं और शासन को जवाबदेह बनाते हैं।


64. राजनीतिक स्थिरता का महत्व
राजनीतिक स्थिरता विकास, निवेश, और नीति-निर्माण के लिए आवश्यक है। यह सरकार की निरंतरता सुनिश्चित करती है। अस्थिरता से शासन प्रणाली कमजोर होती है और जनता का विश्वास कम होता है। स्थिर सरकारें योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू कर पाती हैं।


65. भारतीय संविधान की विशेषताएँ
भारतीय संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। इसकी विशेषताएँ हैं—लिखितता, संघात्मक ढांचा, मौलिक अधिकार, नीति निदेशक सिद्धांत, धर्मनिरपेक्षता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, लोकतंत्र और न्याय की व्यवस्था। यह कठोर भी है और लचीला भी, जिससे समयानुसार बदलाव संभव है।


66. विचारों की स्वतंत्रता का महत्व
विचारों की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है जो व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने की आज़ादी देता है। यह लोकतंत्र की आत्मा है। इसके माध्यम से समाज में संवाद, बहस, और नवाचार संभव होता है। हालांकि यह स्वतंत्रता अनुशासन और जिम्मेदारी के साथ प्रयोग की जानी चाहिए।


67. भारतीय राजनीति में महिला भागीदारी
हालांकि भारत में महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं, परंतु प्रतिनिधित्व अब भी सीमित है। पंचायतों में 33% आरक्षण से भागीदारी बढ़ी है। संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण विधेयक लंबित है। जागरूकता, शिक्षा और सामाजिक बदलाव से इसमें सुधार हो सकता है।


68. राष्ट्रीय एकता का महत्व
भारत विविधताओं का देश है, जिसमें भाषा, धर्म, जाति, और क्षेत्रीय अंतर हैं। राष्ट्रीय एकता से ही देश की स्थिरता और प्रगति संभव है। इसके लिए समान नागरिकता, सांस्कृतिक सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता और संविधान के प्रति निष्ठा आवश्यक है।


69. शासन में पारदर्शिता का अर्थ
पारदर्शिता का अर्थ है कि सरकार अपने निर्णयों, योजनाओं और कार्यों को जनता के समक्ष स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करे। इससे नागरिकों का विश्वास बढ़ता है और भ्रष्टाचार में कमी आती है। सूचना का अधिकार (RTI) कानून शासन में पारदर्शिता का बड़ा माध्यम बना है।


70. भारत में नीति-निर्माण की प्रक्रिया
नीति-निर्माण सरकार की वह प्रक्रिया है जिसमें जन समस्याओं का समाधान हेतु नियम और कार्यक्रम तय किए जाते हैं। यह विभिन्न चरणों में होती है—समस्या की पहचान, नीति का मसौदा, अनुमोदन, क्रियान्वयन और मूल्यांकन। संसद, कार्यपालिका, नौकरशाही और हित समूह इस प्रक्रिया में भाग लेते हैं।


71. सत्ता का वैधीकरण (Legitimation of Power)
सत्ता का वैधीकरण वह प्रक्रिया है जिससे कोई राजनीतिक सत्ता जनमानस में स्वीकार्य बनती है। जब शासन की नीतियाँ, कार्य, और ढांचा सामाजिक मूल्यों, परंपराओं और संविधान के अनुरूप होते हैं, तब उसे वैधता मिलती है। मैक्स वेबर ने तीन प्रकार की वैधता बताई—परंपरागत, करिश्माई और कानूनी-प्रजातांत्रिक। वैधता से शासन मजबूत, स्थिर और प्रभावशाली बनता है।


72. भारत में चुनाव सुधार की आवश्यकता
भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की रीढ़ हैं, लेकिन चुनावों में धनबल, बाहुबल, मतदाता प्रभावित करना, और जातिवादी राजनीति जैसी समस्याएं हैं। चुनाव सुधारों में अपराधीकरण रोकना, चुनावी खर्च पारदर्शिता, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों पर प्रतिबंध और चुनाव आयोग को अधिक शक्तियाँ देने की मांग की जाती है।


73. समान नागरिक संहिता का महत्व
समान नागरिक संहिता (UCC) का अर्थ है कि सभी नागरिकों के लिए समान निजी कानून लागू हों, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। इसका उद्देश्य लैंगिक समानता, राष्ट्रीय एकता, और सामाजिक सुधार है। यह संविधान के अनुच्छेद 44 में नीति-निर्देशक सिद्धांत के रूप में उल्लेखित है। इसके लागू होने से धर्म आधारित भेदभाव समाप्त होगा।


74. भारतीय संसद की कार्यप्रणाली
भारतीय संसद द्विसदनीय है—लोकसभा (निम्न सदन) और राज्यसभा (उच्च सदन)। संसद विधि निर्माण, कार्यपालिका पर नियंत्रण, बजट पारित करने और नीतियों की समीक्षा का कार्य करती है। प्रश्नकाल, शून्यकाल, स्थायी समितियाँ और बहसें संसद की प्रक्रिया को जीवंत बनाते हैं।


75. भारतीय लोकतंत्र की सफलताएँ
भारत में लोकतंत्र ने निरंतर चुनाव, शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण, मौलिक अधिकारों की सुरक्षा और विविधता में एकता जैसे अनेक क्षेत्र में सफलता प्राप्त की है। मतदाता जागरूकता, महिला प्रतिनिधित्व, और सक्रिय न्यायपालिका इसके प्रमुख संकेत हैं। यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है जो अनेक सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों के बावजूद कायम है।


76. जाति आधारित आरक्षण की संवैधानिकता
भारतीय संविधान सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़े वर्गों को आरक्षण प्रदान करता है ताकि समान अवसर सुनिश्चित हो। अनुच्छेद 15(4) और 16(4) इसके कानूनी आधार हैं। यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक कदम है, परंतु आरक्षण का सही उपयोग और समय-सीमा सुनिश्चित करना आवश्यक है ताकि यह नीति जनहित में रहे।


77. भारत में संघीय व्यवस्था की प्रकृति
भारत की संघीय व्यवस्था केंद्र-सापेक्ष है। संविधान ने शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों—संघ, राज्य और समवर्ती सूची—के आधार पर किया है, लेकिन आपातकाल, वित्तीय नियंत्रण, राज्यपाल की भूमिका आदि में केंद्र को प्रमुखता प्राप्त है। यह संघीय ढांचा एकता बनाए रखने हेतु लचीला और व्यावहारिक है।


78. भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद
क्षेत्रवाद वह भावना है जिसमें व्यक्ति अपने क्षेत्रीय पहचान को राष्ट्रीय पहचान से ऊपर रखता है। भारत में यह भाषा, संस्कृति, आर्थिक विषमता और राजनीतिक उपेक्षा के कारण बढ़ता है। यह कभी-कभी अलगाववाद को जन्म देता है। क्षेत्रवाद के समाधान हेतु क्षेत्रीय संतुलन, विकास और संवाद आवश्यक हैं।


79. भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता
भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता को स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है, जिसमें राज्य सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहता है और नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। अनुच्छेद 25 से 28 में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार वर्णित हैं। राज्य किसी धर्म विशेष का पक्ष नहीं लेता और धार्मिक अल्पसंख्यकों को संरक्षण प्रदान करता है।


80. भारतीय राजनीति में दलित आंदोलन
दलित आंदोलन ने सामाजिक अन्याय, भेदभाव और शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाई है। डॉ. आंबेडकर इसके प्रमुख नेता रहे। संविधान में आरक्षण, मौलिक अधिकार, और सामाजिक न्याय की अवधारणाओं ने दलितों को सशक्त किया। दलित राजनीति ने प्रतिनिधित्व, शिक्षा और सम्मान के लिए आंदोलन किए, जिससे उनका सामाजिक-राजनीतिक उत्थान संभव हुआ।


81. भारतीय राजनीति में युवाओं की भूमिका
युवाओं की भूमिका लोकतंत्र में निर्णायक होती है। वे सामाजिक परिवर्तन, तकनीकी नवाचार, और नीति-निर्माण में योगदान देते हैं। हालांकि राजनीति में उनकी भागीदारी अपेक्षा से कम है, फिर भी छात्र आंदोलन, सोशल मीडिया सक्रियता और नए राजनीतिक दलों में उनकी भागीदारी उत्साहवर्धक है। राजनीतिक शिक्षा और अवसर बढ़ाने की आवश्यकता है।


82. प्रेस और लोकतंत्र का संबंध
प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। यह सरकार की गतिविधियों पर निगरानी रखता है, जनमत निर्माण करता है और नागरिकों को सूचित करता है। स्वतंत्र प्रेस शासन की पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को बढ़ाता है। हालांकि समाचारों की निष्पक्षता, फेक न्यूज, और मीडिया पर सरकारी दबाव आज चुनौती बन गए हैं।


83. राजनीतिक जागरूकता का महत्व
राजनीतिक जागरूकता से नागरिक अपने अधिकारों, कर्तव्यों और शासन व्यवस्था के प्रति सचेत रहते हैं। इससे वे बेहतर निर्णय ले सकते हैं, नेताओं को उत्तरदायी बना सकते हैं और लोकतंत्र में सक्रिय भागीदारी कर सकते हैं। शिक्षा, मीडिया और चुनाव प्रक्रिया इसमें प्रमुख भूमिका निभाते हैं।


84. भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के उपाय
भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए सख्त कानून, स्वतंत्र एजेंसियाँ, पारदर्शी प्रशासन और जन भागीदारी आवश्यक हैं। लोकपाल, CVC, RTI, ई-गवर्नेंस जैसे उपाय प्रभावी सिद्ध हो रहे हैं। साथ ही, नैतिक शिक्षा और सामाजिक चेतना भी भ्रष्टाचार रोकने में सहायक होती है।


85. भारत में नीति आयोग की भूमिका
नीति आयोग एक थिंक टैंक है जिसकी स्थापना 2015 में योजना आयोग के स्थान पर की गई थी। यह केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय स्थापित करता है, नीति निर्माण में सहायता करता है और विकासशील परियोजनाओं की निगरानी करता है। यह सहकारी संघवाद को बढ़ावा देता है और सतत विकास लक्ष्यों पर कार्य करता है।


86. भारत में मानवाधिकारों की सुरक्षा के उपाय
भारत में मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान ने मौलिक अधिकार प्रदान किए हैं, जो न्यायिक रूप से लागू होते हैं। अनुच्छेद 32 के तहत नागरिक सीधे सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकते हैं। 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) की स्थापना की गई, जो मानवाधिकार उल्लंघनों की जांच करता है। इसके अलावा सूचना का अधिकार, महिला आयोग, बाल आयोग, व अन्य संस्थाएं भी मानवाधिकारों की रक्षा में कार्यरत हैं।


87. भारत में आपातकालीन प्रावधानों का वर्णन
भारतीय संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल का प्रावधान है: राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352), राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356), और वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)। राष्ट्रीय आपातकाल युद्ध, बाहरी आक्रमण या आंतरिक विद्रोह की स्थिति में लगाया जाता है। ये प्रावधान केंद्र सरकार को असाधारण शक्तियाँ देते हैं लेकिन इनके दुरुपयोग से लोकतंत्र को खतरा हो सकता है।


88. न्यायपालिका की सक्रियता का महत्व
न्यायपालिका की सक्रियता (Judicial Activism) से तात्पर्य है जब न्यायालय सामाजिक न्याय और जनहित से संबंधित मामलों में पहल करता है। भारत में जनहित याचिका (PIL) के माध्यम से गरीब व वंचित वर्गों को न्याय मिलने का मार्ग प्रशस्त हुआ है। यह शासन को उत्तरदायी बनाता है, लेकिन अत्यधिक हस्तक्षेप से ‘न्यायिक अतिक्रमण’ की आलोचना भी होती है।


89. भारत में पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका
पंचायती राज स्थानीय स्वशासन की प्रणाली है जो ग्रामीण स्तर पर शासन और विकास के लिए कार्य करती है। 73वां संविधान संशोधन 1992 में लागू हुआ, जिसने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया। ग्राम सभा, ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद इसके अंग हैं। ये योजनाओं को क्रियान्वित करती हैं और लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करती हैं।


90. भारत में नीति निर्देशक सिद्धांतों की आलोचना
नीति निर्देशक सिद्धांत सरकार को समाज के कल्याण के लिए दिशा देते हैं, परंतु ये न्यायिक रूप से लागू नहीं होते। आलोचकों का कहना है कि इनका प्रभाव केवल नैतिक होता है। कुछ मामलों में सरकारें इनका पालन नहीं करतीं। फिर भी, ये भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक न्याय और कल्याण की भावना को बढ़ावा देते हैं।


91. संसद की विशेष शक्तियाँ
भारतीय संसद को कानून बनाने, बजट पारित करने, राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति का चुनाव करने, संविधान संशोधन करने तथा कार्यपालिका पर नियंत्रण रखने की शक्तियाँ प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त, संसद राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटाने की प्रक्रिया चला सकती है और युद्ध व आपातकाल की घोषणा की अनुमति दे सकती है।


92. जनप्रतिनिधियों का आचरण और उत्तरदायित्व
जनप्रतिनिधियों का आचरण पारदर्शी, ईमानदार और जनहितकारी होना चाहिए। उन्हें जनता के प्रति उत्तरदायी रहना चाहिए और अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास के लिए कार्य करना चाहिए। भ्रष्टाचार, अनुपस्थिति और गैर-जिम्मेदार व्यवहार लोकतंत्र को कमजोर करते हैं। आचार संहिता और जन-जवाबदेही इनकी मर्यादा सुनिश्चित करते हैं।


93. भारतीय संविधान में धर्म और राज्य का संबंध
भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार करता है, जिसके अनुसार राज्य किसी धर्म को न तो बढ़ावा देता है, न ही उसके विरुद्ध होता है। अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई है। राज्य धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि वह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के विरुद्ध न हो।


94. नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों की आवश्यकता
मौलिक कर्तव्य नागरिकों को संविधान, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय एकता, पर्यावरण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति जिम्मेदार बनाते हैं। ये नागरिकों को अपने कर्तव्यों का बोध कराते हैं ताकि वे अपने अधिकारों का संतुलित उपयोग कर सकें। इन्हें 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया ताकि नागरिक भी राष्ट्रनिर्माण में सक्रिय हों।


95. चुनाव आयोग की स्वायत्तता
भारत का चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है, जो चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करता है। आयोग का गठन अनुच्छेद 324 के अंतर्गत होता है। इसकी स्वायत्तता इसके निर्णयों की निष्पक्षता, कार्यकाल की सुरक्षा, और सरकार से स्वतंत्र कार्यप्रणाली में परिलक्षित होती है।


96. वैश्विक राजनीति में भारत की भूमिका
भारत आज वैश्विक राजनीति में उभरती शक्ति है। वह संयुक्त राष्ट्र, G20, ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन आदि में सक्रिय भूमिका निभा रहा है। भारत ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की नीति पर विश्वास करता है और शांति, विकास, आतंकवाद विरोध तथा जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर अग्रणी योगदान देता है।


97. भारतीय न्यायपालिका की संरचना
भारत की न्यायपालिका त्रिस्तरीय है: सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, और अधीनस्थ न्यायालय। सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है और अंतिम अपील की संस्था है। उच्च न्यायालय राज्य स्तर पर कार्य करता है, जबकि जिला न्यायालय, मजिस्ट्रेट कोर्ट आदि निचले स्तर पर न्याय प्रदान करते हैं।


98. मानवाधिकार आयोग की भूमिका
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) की स्थापना 1993 में हुई। यह आयोग पुलिस अत्याचार, बाल मजदूरी, महिला उत्पीड़न, हिरासत में मृत्यु आदि मामलों की जांच करता है। यह सरकार को सिफारिश देता है और मानवाधिकारों के प्रचार-प्रसार में भी कार्य करता है। हालांकि इसकी सिफारिशें बाध्यकारी नहीं होतीं।


99. भारत में चुनावी राजनीति की समस्याएं
भारत में चुनावी राजनीति में धनबल, बाहुबल, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और वोट बैंक की राजनीति बड़ी समस्याएं हैं। इसके अतिरिक्त झूठे वादे, असत्य प्रचार और दलबदल लोकतंत्र को प्रभावित करते हैं। चुनाव सुधार, राजनीतिक शिक्षा और सख्त आचार संहिता इन समस्याओं का समाधान हो सकते हैं।


100. भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियाँ
भारत में लोकतंत्र की प्रमुख चुनौतियाँ हैं—भ्रष्टाचार, जातिवाद, क्षेत्रवाद, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, मीडिया की निष्पक्षता, और संस्थाओं की स्वायत्तता। साथ ही, राजनीतिक अशिक्षा और वोट की खरीद-फरोख्त जैसी समस्याएं लोकतंत्र को कमजोर करती हैं। इनका समाधान राजनीतिक सुधार, शिक्षा, और जन-जागरूकता से संभव है।