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“रजिस्टर्ड वसीयत को चुनौती देने के मानदंड: सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णयों की व्यापक समीक्षा”

“रजिस्टर्ड वसीयत को चुनौती देने के मानदंड: सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णयों की व्यापक समीक्षा”


प्रस्तावना

भारत में वसीयत (Will) एक ऐसा कानूनी दस्तावेज़ है जो व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति के वितरण को नियंत्रित करता है। यह उत्तराधिकार विवादों से बचने का सबसे प्रभावी माध्यम माना जाता है। किंतु अनेक मामलों में वसीयत की वैधता और प्रामाणिकता को लेकर संदेह और विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। इस स्थिति में भारतीय न्यायपालिका, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया, ने कई ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं, जिनसे यह स्पष्ट हुआ है कि रजिस्टर्ड वसीयत को केवल संदेह या असहमति के आधार पर निरस्त नहीं किया जा सकता।

हाल के वर्षों में, सर्वोच्च न्यायालय ने Indian Succession Act, 1925 की धारा 63 तथा Indian Evidence Act, 1872 की धारा 68 की व्याख्या करते हुए वसीयतों की जांच, सत्यापन और साक्ष्य की प्रक्रिया को और अधिक स्पष्ट किया है।


वसीयत की वैधता के लिए कानूनी आवश्यकताएं

भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 63 के अनुसार:

  1. वसीयत लेखबद्ध (in writing) होनी चाहिए।
  2. वसीयत पर वसीयतकर्ता (testator) के हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान होना आवश्यक है।
  3. वसीयत पर कम से कम दो गवाहों के हस्ताक्षर अनिवार्य हैं, और प्रत्येक गवाह को यह देखना चाहिए कि वसीयतकर्ता ने अपने हस्ताक्षर स्वेच्छा से किए हैं।

वहीं साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 यह बताती है कि जब किसी दस्तावेज़ की कानूनी वैधता गवाह के हस्ताक्षर पर निर्भर करती है, तो उस गवाह को अदालत में बुलाकर उसके हस्ताक्षर की पुष्टि करवाना आवश्यक होता है।


सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णय और उनके सिद्धांत

(1) केस: Jaswant Kaur v. Amrit Kaur (1977) 1 SCC 369

इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वसीयत की वैधता पर संदेह तभी उत्पन्न होता है जब उसमें संदेहास्पद परिस्थितियाँ (suspicious circumstances) मौजूद हों। यदि वसीयत सही तरीके से साक्ष्य सहित सिद्ध हो जाए, तो केवल इस आधार पर कि कुछ वारिसों को संपत्ति नहीं दी गई, वसीयत को अमान्य नहीं ठहराया जा सकता।

(2) केस: H. Venkatachala Iyengar v. B.N. Thimmajamma (1959 AIR 443)

यह फैसला वसीयत से संबंधित भारतीय न्यायशास्त्र का आधार स्तंभ माना जाता है। कोर्ट ने कहा कि वसीयत को सिद्ध करने का दायित्व उस व्यक्ति पर होता है जो इसके आधार पर लाभ प्राप्त करना चाहता है। उसे यह साबित करना होगा कि वसीयतकर्ता पूर्ण समझ-बूझ और स्वतंत्र इच्छा से वसीयत लिखवाने में सक्षम था।

(3) केस: Rani Purnima Devi v. Kumar Khagendra Narayan Dev (AIR 1962 SC 567)

कोर्ट ने कहा कि रजिस्टर्ड वसीयत को संदेहास्पद नहीं माना जा सकता जब तक कि कोई ठोस साक्ष्य विपरीत दिशा में न हो। रजिस्टर्ड वसीयत अपने आप में एक prima facie evidence है कि यह विधिवत निष्पादित की गई थी।

(4) केस: Pentakota Satyanarayana v. Pentakota Seetharatnam (2005) 8 SCC 67

इस मामले में अदालत ने कहा कि भले ही वसीयत के पंजीकरण से उसकी वैधता स्वतः सिद्ध नहीं होती, लेकिन रजिस्टर्ड वसीयत को अमान्य सिद्ध करने के लिए ठोस साक्ष्य की आवश्यकता होती है। केवल संदेह या पारिवारिक असहमति पर्याप्त नहीं है।

(5) केस: Ramabai Padmakar Patil v. Rukminibai Vishnu Vekhande (2003) 8 SCC 537

यहां अदालत ने दोहराया कि वसीयत को रद्द करने का कोई आधार तभी बनेगा जब यह साबित हो जाए कि वसीयतकर्ता पर किसी प्रकार का अनुचित दबाव या धोखा डाला गया हो।


नई मिसाल: अपील में नए मुद्दे उठाने पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती

हाल के एक महत्वपूर्ण निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि यदि किसी पक्ष ने निचली अदालत में वसीयत की वैधता को चुनौती नहीं दी थी, तो वह अपील में नए मुद्दे नहीं उठा सकता। यह सिद्धांत न्यायिक अनुशासन और प्रक्रिया की पवित्रता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।

अदालत ने कहा कि अपील में नए तथ्य या नई दलीलें तभी स्वीकार्य हैं जब वे रिकॉर्ड में पहले से मौजूद साक्ष्यों से सीधे संबंधित हों। अन्यथा, वसीयत को अपील स्तर पर चुनौती देना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।


रजिस्टर्ड वसीयत की विशेष स्थिति

सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार दोहराया है कि रजिस्टर्ड वसीयत को संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। इसके प्रमुख कारण हैं—

  1. पंजीकरण की प्रक्रिया में सरकारी अधिकारी की उपस्थिति और गवाहों का सत्यापन शामिल होता है।
  2. वसीयत का पंजीकरण स्वयं इस बात का प्रमाण है कि वसीयतकर्ता अपनी इच्छा से दस्तावेज़ प्रस्तुत करने गया था।
  3. यदि कोई व्यक्ति वसीयत को चुनौती देना चाहता है, तो उसे यह साबित करना होगा कि वसीयतकर्ता मानसिक रूप से अक्षम था, या दबाव/प्रभाव में था

न्यायालय की दृष्टि में ‘संदेहास्पद परिस्थितियाँ’

वसीयत को अमान्य घोषित करने के लिए केवल यह कहना पर्याप्त नहीं कि “यह संदिग्ध लगती है”। अदालत ने कुछ उदाहरणों के रूप में निम्न स्थितियों को “संदेहास्पद परिस्थितियाँ” बताया है—

  • वसीयत में अचानक सभी वारिसों को संपत्ति से वंचित कर देना।
  • वसीयतकर्ता की मृत्यु के बाद अचानक दस्तावेज़ का सामने आना।
  • गवाहों के बयान में असंगति।
  • वसीयत लिखे जाने की तारीख और पंजीकरण की तारीख में असामान्य अंतर।

किन्तु यदि इन परिस्थितियों का उचित स्पष्टीकरण मौजूद है, तो वसीयत वैध मानी जाएगी।


वसीयत को प्रमाणित करने की प्रक्रिया

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया है कि वसीयत को सिद्ध करने के लिए गवाहों की उपस्थिति आवश्यक है। यदि गवाहों में से कोई जीवित नहीं है, तो दस्तावेज़ की समानता (similarity), हस्ताक्षर के नमूने, और अन्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य का उपयोग किया जा सकता है।

साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 के तहत, यदि गवाह अनुपलब्ध हैं, तो वसीयत को प्रमाणित करने के लिए अन्य साक्ष्यों पर भरोसा किया जा सकता है।


विवादों को रोकने में न्यायालय की भूमिका

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि वसीयत संबंधी विवादों को रोकने के लिए जनता को कानूनी जागरूकता होनी चाहिए। व्यक्ति को जीवनकाल में ही अपनी वसीयत स्पष्ट रूप से लिखवाकर पंजीकृत (registered) करानी चाहिए, और दो स्वतंत्र गवाहों की उपस्थिति सुनिश्चित करनी चाहिए।

यह प्रक्रिया भविष्य के विवादों को काफी हद तक समाप्त कर सकती है।


निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय के ये फैसले यह दर्शाते हैं कि रजिस्टर्ड वसीयतें केवल एक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि वसीयतकर्ता की अंतिम इच्छा और कानूनी अधिकारों का प्रमाण होती हैं। जब तक वसीयत को संदेहास्पद परिस्थितियों के ठोस साक्ष्य से चुनौती नहीं दी जाती, तब तक उसकी वैधता पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।

वसीयत को चुनौती देने वाले व्यक्ति पर भारी दायित्व है कि वह अपने आरोपों को विश्वसनीय साक्ष्यों से सिद्ध करे। साथ ही, न्यायालयों ने यह सुनिश्चित किया है कि अपील में नए मुद्दे उठाने की परंपरा को रोका जाए, ताकि न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो।


अंतिम टिप्पणी

इन निर्णयों के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया है कि कानूनी रूप से निष्पादित और पंजीकृत वसीयत भारतीय उत्तराधिकार कानून की रीढ़ है। यह व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा का सम्मान करती है और न्यायालयों को यह दिशा देती है कि वे संदेह या असहमति के बजाय साक्ष्य के आधार पर ही निर्णय दें।