“यौन उत्पीड़न की शिकायत छह महीने में करनी होगी”: सुप्रीम कोर्ट ने POSH अधिनियम की सीमा अवधि पर दिया महत्वपूर्ण निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अहम निर्णय में स्पष्ट किया है कि यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment) की शिकायत POSH Act (Prevention of Sexual Harassment of Women at Workplace Act, 2013) के तहत अंतिम घटना की तारीख से छह महीने के भीतर दाखिल की जानी चाहिए। अदालत ने कहा कि यह समय-सीमा कानून में निर्धारित है, और इसके उल्लंघन पर शिकायत स्वतः अस्वीकार्य मानी जाएगी, जब तक कि कोई विशेष कारण न बताया जाए। यह निर्णय कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा और न्याय प्रक्रिया की निष्पक्षता दोनों के बीच संतुलन का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।
मामला क्या था?
यह मामला एक महिला कर्मचारी द्वारा अपने वरिष्ठ अधिकारी के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत से संबंधित था। शिकायतकर्ता ने यह आरोप लगाया कि उसके साथ कई बार अनुचित व्यवहार किया गया, लेकिन उसने शिकायत घटना के लगभग एक साल बाद की। आंतरिक शिकायत समिति (Internal Complaints Committee – ICC) ने यह कहते हुए शिकायत को अस्वीकार कर दिया कि यह समय-सीमा से बाहर (barred by limitation) है।
महिला ने इस निर्णय को अदालत में चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि यौन उत्पीड़न की घटनाएं उसकी मानसिक स्थिति को प्रभावित करती हैं, इसलिए देरी को “पर्याप्त कारण” (sufficient cause) मानते हुए शिकायत स्वीकार की जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा। पीठ में न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति अगस्त्य सिन्हा शामिल थे। अदालत ने विस्तार से POSH अधिनियम की धारा 9(1) का विश्लेषण किया, जो शिकायत दाखिल करने की सीमा अवधि निर्धारित करती है।
इस प्रावधान के अनुसार —
“किसी महिला द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकायत अंतिम घटना से तीन महीने के भीतर की जानी चाहिए, और यदि समिति उचित कारणों से देरी को स्वीकार करे, तो यह अवधि अधिकतम छह महीने तक बढ़ाई जा सकती है।”
सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन
अदालत ने अपने निर्णय में कहा कि POSH अधिनियम का उद्देश्य कार्यस्थलों पर महिलाओं को सुरक्षित वातावरण प्रदान करना है, परंतु इस उद्देश्य का अर्थ यह नहीं कि शिकायतें किसी भी समय, अनिश्चित काल तक स्वीकार की जा सकती हैं।
“कानून में निर्धारित सीमा अवधि का पालन करना न्यायिक अनुशासन का हिस्सा है। यदि कोई शिकायत कई महीनों या वर्षों बाद की जाती है, तो न केवल सबूत कमजोर पड़ जाते हैं बल्कि आरोपी व्यक्ति को भी अनुचित हानि हो सकती है।”
अदालत ने यह भी कहा कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में संवेदनशीलता आवश्यक है, परंतु संवेदनशीलता के नाम पर प्रक्रिया की निष्पक्षता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
अदालत की प्रमुख टिप्पणियाँ
- समयसीमा का पालन अनिवार्य है: शिकायत अंतिम घटना से तीन महीने के भीतर होनी चाहिए, जिसे विशेष कारण होने पर छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है।
- ‘अंतिम घटना’ का महत्व: यदि उत्पीड़न की घटनाएं बार-बार हुई हैं, तो अंतिम घटना की तारीख से गणना की जाएगी।
- आंतरिक समिति का दायित्व: यदि शिकायत देरी से की गई है, तो समिति को यह दर्ज करना होगा कि क्या पर्याप्त कारण मौजूद हैं जिससे देरी को स्वीकार किया जा सके।
- न्यायिक प्रक्रिया में संतुलन: अदालत ने कहा कि POSH अधिनियम महिलाओं को सशक्त बनाता है, परंतु यह पुरुषों के खिलाफ प्रतिशोधात्मक हथियार नहीं बन सकता।
अदालत का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने महिला कर्मचारी की अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि शिकायत सीमा अवधि से बाहर थी और आंतरिक समिति का निर्णय सही था। अदालत ने कहा कि कानून द्वारा निर्धारित समयसीमा को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, अन्यथा इससे अधिनियम का उद्देश्य ही कमजोर पड़ जाएगा।
“यह अधिनियम न्याय की तलाश का मार्ग है, न कि अनिश्चितकालीन आरोप लगाने का मंच। यदि शिकायतकर्ता को किसी कारणवश देरी हुई है, तो उसे उसका स्पष्टीकरण देना आवश्यक है।”
POSH अधिनियम का उद्देश्य
2013 में बना यह अधिनियम कार्यस्थल पर महिलाओं की गरिमा की रक्षा के लिए लाया गया था। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि महिलाएं भय और भेदभाव से मुक्त वातावरण में कार्य कर सकें। अधिनियम के तहत हर संस्था में आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का गठन अनिवार्य है, जो किसी भी यौन उत्पीड़न की शिकायत की जांच करती है।
परंतु सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस अधिनियम का दुरुपयोग रोकने के लिए प्रक्रियात्मक अनुशासन आवश्यक है।
कानूनी दृष्टि से ‘सीमा अवधि’ क्यों आवश्यक है?
किसी भी कानूनी प्रक्रिया में limitation period इसलिए निर्धारित की जाती है ताकि —
- घटनाओं की सटीक जांच हो सके,
- सबूत और गवाह विश्वसनीय बने रहें,
- आरोपी के साथ निष्पक्ष व्यवहार सुनिश्चित हो,
- न्याय प्रणाली पर विश्वास कायम रहे।
यदि शिकायतें वर्षों बाद दर्ज की जाएँ, तो जांच निष्पक्ष नहीं रह सकती, क्योंकि सबूत नष्ट हो सकते हैं या परिस्थितियाँ बदल सकती हैं।
अदालत की चेतावनी: ‘POSH अधिनियम का दुरुपयोग न करें’
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हाल के वर्षों में POSH अधिनियम के तहत कुछ शिकायतें “प्रतिशोध” या “व्यक्तिगत विवाद” के कारण की जा रही हैं। अदालत ने कहा कि ऐसा करना न केवल निर्दोष व्यक्तियों को नुकसान पहुँचाता है बल्कि अधिनियम की साख को भी कम करता है।
“POSH अधिनियम को हथियार की तरह नहीं, बल्कि ढाल की तरह प्रयोग किया जाना चाहिए।”
अदालत ने संस्थानों को क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने सभी सरकारी और निजी संस्थानों को निर्देश दिया कि वे —
- ICC समितियों को POSH अधिनियम की कानूनी सीमाओं और प्रक्रियाओं का प्रशिक्षण दें।
- हर शिकायत पर समयसीमा, कारण, और सबूतों की सटीक समीक्षा करें।
- शिकायतकर्ता और आरोपी दोनों को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार दें।
- संवेदनशील मामलों में गोपनीयता का पालन करें।
महिलाओं के अधिकारों पर सकारात्मक प्रभाव
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने शिकायत को खारिज किया, लेकिन इस निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया कि POSH अधिनियम का पालन केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि कानूनी दृष्टिकोण से भी होना चाहिए।
यह फैसला उन महिलाओं को भी प्रेरित करता है जो कार्यस्थल पर उत्पीड़न का सामना कर रही हैं कि वे समय रहते अपनी शिकायत दर्ज करें ताकि न्याय की प्रक्रिया प्रभावी रह सके।
विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया
कानूनी विशेषज्ञों ने इस फैसले को “संतुलित और न्यायसंगत” बताया। वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने कहा कि “अदालत ने सही ढंग से स्पष्ट किया कि संवेदनशील मामलों में भी प्रक्रिया का पालन उतना ही आवश्यक है।”
वहीं, कुछ महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि समयसीमा को थोड़ा लचीला किया जाना चाहिए ताकि मानसिक उत्पीड़न से गुजर रहीं महिलाएं न्याय से वंचित न हों।
निष्कर्ष: समयसीमा और न्याय — दोनों का संतुलन
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय POSH अधिनियम के कार्यान्वयन में कानूनी अनुशासन और संवेदनशीलता के संतुलन की आवश्यकता को दर्शाता है। अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि न्याय केवल शिकायत दर्ज करने का अधिकार नहीं, बल्कि उचित समय पर उचित प्रक्रिया से की गई कार्रवाई का परिणाम है।
इस निर्णय से यह संदेश गया है कि —
“कानून का पालन और न्याय की मांग एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि शिकायतें समय पर की जाएँगी, तो न्याय भी समय पर मिलेगा।”
अंततः, यह फैसला महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने के साथ-साथ संस्थानों को भी उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराता है कि कार्यस्थल सुरक्षित हो, न्याय त्वरित हो, और POSH अधिनियम का सम्मान बना रहे।