“मौन अपराध सिद्ध नहीं करता: धारा 313 दं.प्र.सं. के तहत अभियुक्त की चुप्पी से हत्या की मंशा सिद्ध नहीं होती — दिल्ली उच्च न्यायालय का महत्त्वपूर्ण निर्णय”
परिचय
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा सर्वोपरि मानी जाती है। इसी क्रम में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973) की धारा 313 (Section 313 CrPC) एक महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो अभियुक्त को यह अवसर प्रदान करता है कि वह अपने विरुद्ध लगाए गए आरोपों के संबंध में स्पष्टीकरण दे सके।
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि किसी अभियुक्त का मौन या उसकी चुप्पी हत्या जैसे गंभीर अपराधों में उसके दोषी होने या उसकी हत्या की मंशा (murderous intent) को सिद्ध नहीं कर सकती। न्यायालय ने यह कहा कि अभियोजन (prosecution) का दायित्व है कि वह ठोस, प्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर अभियुक्त का दोष सिद्ध करे, न कि अभियुक्त की चुप्पी को आधार बनाकर दोष सिद्ध किया जाए।
मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले में अभियोजन पक्ष ने अभियुक्त पर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप लगाया था। कहा गया कि पति-पत्नी के बीच घरेलू विवाद चलता था और एक दिन पत्नी का शव घर में पाया गया। अभियुक्त को घटना स्थल के निकट होने और उसके द्वारा कोई उचित स्पष्टीकरण न देने के आधार पर दोषी ठहराया गया।
हालांकि, अपील में अभियुक्त ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष यह तर्क रखा कि केवल उसकी चुप्पी या मौन को उसके विरुद्ध उपयोग नहीं किया जा सकता। उसने कहा कि अभियोजन उसके खिलाफ कोई ठोस या प्रत्यक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहा है, और केवल उसके मौन या धारा 313 के तहत उचित उत्तर न देने के कारण उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
मुख्य कानूनी प्रश्न
इस मामले में न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित कानूनी प्रश्न थे —
- क्या Section 313 CrPC के तहत अभियुक्त द्वारा मौन रहना या कोई स्पष्टीकरण न देना, अभियोजन के लिए उसके विरुद्ध प्रतिकूल साक्ष्य माना जा सकता है?
- क्या केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्यों और अभियुक्त की चुप्पी के आधार पर हत्या का अपराध सिद्ध किया जा सकता है?
- क्या अभियोजन ने “बियॉन्ड रीज़नेबल डाउट” (beyond reasonable doubt) के मानक पर अपना दायित्व पूरा किया?
धारा 313 दं.प्र.सं. का उद्देश्य
Section 313 of the Code of Criminal Procedure अभियुक्त को यह अवसर देता है कि वह अदालत के समक्ष अपने खिलाफ प्रस्तुत साक्ष्यों और परिस्थितियों का स्पष्टीकरण दे सके। इसका उद्देश्य यह नहीं है कि अभियुक्त पर यह भार डाला जाए कि वह अपनी बेगुनाही सिद्ध करे, बल्कि यह एक संवैधानिक सुरक्षा है ताकि अभियुक्त को प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांत के तहत अपनी बात कहने का मौका मिले।
इस प्रावधान के तहत अभियुक्त से पूछे गए प्रश्नों के उत्तर स्वेच्छिक होते हैं। यदि अभियुक्त किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहता या मौन रहता है, तो इसे दोष स्वीकार करने के समान नहीं माना जा सकता।
दिल्ली उच्च न्यायालय का अवलोकन
न्यायमूर्ति (Justice) द्वारा गठित खंडपीठ ने विस्तृत विवेचना करते हुए कहा कि:
“The silence of the accused under Section 313 CrPC cannot, by itself, be treated as a circumstance proving guilt or murderous intent. The burden of proof squarely lies upon the prosecution to establish the ingredients of the offence.”
न्यायालय ने यह भी कहा कि अभियोजन को प्रत्येक परिस्थिति का तार्किक और ठोस संबंध स्थापित करना आवश्यक है जिससे यह निष्कर्ष निकले कि हत्या अभियुक्त द्वारा की गई थी। यदि किसी भी परिस्थिति में संदेह की संभावना हो, तो अभियुक्त को लाभ दिया जाना चाहिए।
परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence) का सिद्धांत
न्यायालय ने यह दोहराया कि जब कोई मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित होता है, तो निम्नलिखित पाँच सिद्धांतों का पालन आवश्यक होता है, जिन्हें “Panchsheel of Circumstantial Evidence” कहा गया है —
- प्रत्येक परिस्थिति को ठोस रूप से सिद्ध किया जाना चाहिए।
- सभी परिस्थितियाँ केवल अभियुक्त की दोष सिद्धि की दिशा में इंगित करें।
- प्रस्तुत साक्ष्य इतने पूर्ण और निर्णायक हों कि कोई अन्य संभावना न बचे।
- साक्ष्य में कोई विरोधाभास या असंगति न हो।
- संदेह का लाभ हमेशा अभियुक्त को दिया जाना चाहिए।
न्यायालय ने कहा कि इन सिद्धांतों की अनुपालना के बिना किसी व्यक्ति को केवल अनुमान या चुप्पी के आधार पर दोषी ठहराना न्यायसंगत नहीं है।
न्यायालय का निर्णय
दिल्ली उच्च न्यायालय ने पाया कि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य केवल परिस्थितिजन्य थे और उनमें से कोई भी साक्ष्य अभियुक्त के हत्या करने के इरादे या हत्या की क्रिया को सीधे तौर पर प्रमाणित नहीं करता।
न्यायालय ने कहा कि —
“In the absence of any eye-witness, forensic corroboration, or direct link connecting the accused with the act of killing, mere failure of the accused to explain under Section 313 CrPC cannot be used to presume guilt.”
अतः न्यायालय ने अभियुक्त को संदेह का लाभ देते हुए उसकी दोषसिद्धि को निरस्त कर दिया और उसे आजीवन कारावास (life imprisonment) की सजा से मुक्त कर दिया।
संविधानिक और विधिक दृष्टिकोण
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता (Right against self-incrimination)। धारा 313 CrPC इसी संवैधानिक सिद्धांत का विस्तार है।
यदि अभियुक्त किसी प्रश्न का उत्तर देने से इनकार करता है या मौन रहता है, तो न्यायालय इसे उसके दोष की स्वीकृति के रूप में नहीं देख सकता। ऐसा करना संविधान और प्राकृतिक न्याय दोनों के विपरीत होगा।
न्यायालय द्वारा उद्धृत प्रमुख पूर्व निर्णय
दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के कुछ प्रमुख निर्णयों का उल्लेख किया, जैसे —
- Sharad Birdhichand Sarda v. State of Maharashtra (1984) — परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित दोषसिद्धि के लिए पाँच आवश्यक सिद्धांत निर्धारित किए गए।
- Hate Singh Bhagat Singh v. State of Madhya Bharat (1953) — धारा 313 CrPC का उद्देश्य अभियुक्त को स्पष्टीकरण का अवसर देना है, न कि उसे दोष सिद्ध करने का माध्यम बनाना।
- Navaneethakrishnan v. State (2018) — अभियुक्त की चुप्पी को अभियोजन की असफलता की भरपाई के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता।
मामले का महत्व
यह निर्णय भारतीय न्यायशास्त्र में न्यायिक संतुलन (Judicial Balance) का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। अदालत ने यह सुनिश्चित किया कि अभियुक्त के मौन को उसके खिलाफ एक हथियार न बनाया जाए, बल्कि उसे उसके संवैधानिक अधिकार के रूप में देखा जाए।
इस निर्णय से निम्नलिखित सिद्धांत पुष्ट होते हैं —
- अभियोजन का दायित्व beyond reasonable doubt तक साक्ष्य प्रस्तुत करने का है।
- अभियुक्त की चुप्पी को दोष का प्रमाण नहीं माना जा सकता।
- न्यायालय को प्रत्येक मामले में परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का तार्किक विश्लेषण करना आवश्यक है।
- न्यायिक प्रक्रिया अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करते हुए निष्पक्षता पर आधारित होनी चाहिए।
निष्कर्ष
दिल्ली उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में न्यायिक विवेक और अभियुक्त के मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी भी व्यक्ति की चुप्पी को उसके अपराध का प्रमाण नहीं माना जा सकता, विशेषकर जब अभियोजन अपने दायित्व का निर्वहन ठोस साक्ष्य के साथ करने में असफल रहा हो।
इस निर्णय से यह संदेश जाता है कि न्याय केवल दंड देने का साधन नहीं है, बल्कि यह सत्य, निष्पक्षता और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का माध्यम है।
धारा 313 CrPC का उद्देश्य अभियुक्त की सुरक्षा है — न कि उसे चुप्पी के कारण दोषी ठहराना।