“मौत की सजा और न्याय की मर्यादा: सुप्रीम कोर्ट ने ‘Shatrughan Chauhan’ फैसले को बदले जाने की केंद्र की याचिका ठुकराई”
प्रस्तावना
मौत की सजा (capital punishment) भारत के न्यायिक और संवैधानिक तंत्र में सबसे विवादित तथा संवेदनशील विषयों में से एक रही है। यह विषय न केवल अपराध और दंड की सिद्धांतगत चुनौतियों से जुड़ा है, बल्कि मानवाधिकार, न्याय की प्रक्रिया की निष्पक्षता, सामाजिक चेतना, और दर्द-सहिष्णुता जैसे आयामों को भी सामने लाता है।
2014 में सुप्रीम कोर्ट ने Shatrughan Chauhan v. Union of India नामक मामले में एक अहम निर्णय दिया, जो यह सुनिश्चित करता है कि मृत्युदंड की प्रक्रिया में न्याय की गरिमा बनी रहे—विशेष रूप से उन मामलों में जहाँ mercy petitions (राह-याचिकाएँ) लंबित हैं, और निष्पादन (execution) में अत्यधिक विलम्ब हो जाता है। उस निर्णय ने यह कहा कि यदि किसी दोषी की मर्यादित अवधि से अधिक देर हो जाए और दोषी की गलती न हो, तो यह एक संवेदनात्मक कारण (mitigating ground) बन सकता है और सजा को जीवन-पर्यंत (life imprisonment) में बदला जाना चाहिए।
हाल ही में, केंद्र सरकार ने इस Shatrughan Chauhan फैसले में संशोधन की मांग उठाई—यह कहना कि निर्णय बहुत अधिक दोषी-केंद्रित (convict-centric) है, और इसे और अधिक “victim-centric” या पीड़ितों के दृष्टिकोण से भी संवेदनशील बनाया जाना चाहिए। केंद्र की याचिका यह चाहती थी कि कई प्रक्रियात्मक समय-सीमाएँ (timelines) निर्धारित की जाएँ — जैसे कि mercy petition दाखिल करने की समयसीमा, और निष्पादन के लिए कम समय देना — ताकि दोषी कानूनी प्रक्रियाओं का दुरुपयोग न कर सकें और मृत्युदंड को शीघ्रता से क्रियान्वित किया जा सके।
लेकिन 8 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया, यह कहकर कि Shatrughan Chauhan निर्णय स्वयं पूर्ण और न्यायसंगत है, और उसमें अब संशोधन की जरूरत नहीं।
इस लेख में हम इस निर्णय का गहराई से विश्लेषण करेंगे — उसके तर्क, विरोध, संवैधान्य और नैतिक आयाम, और इसके संभावित प्रभाव और चुनौतियाँ।
न्यायालय का निर्णय — तथ्य और तर्क
(A) याचिका की मांगें और आधार
केंद्र सरकार की याचिका (modification application) वर्ष 2020 में दायर की गई थी। याचिका में मुख्यतः निम्नलिखित बदलाव प्रस्तावित थे:
- Curative petition दायर करने की समयसीमा निर्धारित की जाए — कि यह केवल review petition के खारिज होने के उपरांत, एक निर्दिष्ट अवधि (time limit) में ही हो सके।
- Mercy petition को मृत्यु वारंट (death warrant) जारी होने की 7 दिन के भीतर दाखिल करने का निर्देश हो।
- Execution को mercy petition खारिज हो जाने के 7 दिन के भीतर क्रियान्वित करने का निर्देश हो, भले ही सह-दोषियों (co-convicts) की अन्य कानूनी प्रक्रियाएँ लंबित हों।
- 14 दिन की सूचना अवधि (notice period) को घटाकर 7 दिन की जाए, ताकि दोषी को अधिक समय न मिले।
केंद्र की दलील थी कि वर्तमान Shatrughan Chauhan दिशानिर्देश कथित रूप से दोषियों के पक्षधर हैं, क्योंकि वे बहुत अधिक समय देते हैं, जिससे कानूनी प्रक्रियाओं का “दौड़” (judicial marathon) संभव हो जाता है। केंद्र ने यह तर्क रखा कि यह समय की अनिश्चितता, मृत्युदंड को प्रतीक्षा में रखना, दोषियों के मानसिक विक्षोभ (mental trauma) और उनके सह-अभियुक्तियों की प्रक्रियाओं के कारण मृत्युदंड की कार्यवाही को प्रभावित करता है।
(B) सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया और खारिजी तर्क
एक तीन-न्यायाधीश बेंच — न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति संदीप मेहता, और न्यायमूर्ति एन. वी. अंजरिया — ने याचिका पर सुनवाई की और कहा कि याचिका में “merit नहीं है” (no merit). उन्होंने निम्न तर्क दिए:
- Shatrughan Chauhan निर्णय की पूर्णता और अंतिमता
कोर्ट ने कहा कि Shatrughan Chauhan निर्णय, जिसे वर्ष 2014 में पारित किया गया था, अभी तक वह “पूर्ण” (complete in all aspects) है और उचित संतुलन (balance) बनाए हुए है।
पिछले वर्षों में केंद्र की समीक्षा (review) व curative याचिकाएँ भी इसी निर्णय के खिलाफ खारिज की जा चुकी हैं। - न्यायिक प्रक्रिया में निष्पक्षता (Due process) बनाए रखना
अदालत ने यह माना कि किसी भी दोषी की मेहराय (mercy) याचिका या अन्य न्यायिक उपायों को यांत्रिक शीघ्रता से निष्पादित करना, न्याय की मर्यादा को खतरे में डाल सकता है। सभी प्रक्रियाओं को उचित समय देना आवश्यक है। - पीड़ित पक्ष एवं दोषियों के बीच संतुलन
यद्यपि केंद्र ने यह कहा कि वर्तमान नियम केवल दोषी केंद्रित हैं और पीड़ित पक्ष को पर्याप्त महत्व नहीं देते, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तर्क दिया कि अंतरिम उपायों या अन्य कार्यक्रमों में इस पक्ष को समाविष्ट किया जा सकता है, पर मूल Shatrughan Chauhan दिशानिर्देशों को छेड़ा नहीं जाना चाहिए। - समय-सीमाएँ (timelines) कठोर करना समस्या पैदा कर सकता है
यदि न्यायालय कठोर सीमाएँ निर्धारित करे, तो यह प्रक्रिया की जटिलता, दोषी या उसके वकील की स्वास्थ्य-समस्याएँ, न्यायालय की व्यस्तता आदि कारणों से अनिश्चितता और अन्य दुष्प्रभाव उत्पन्न कर सकती है। इसलिए निर्णायकहर (judges) ने यह कहा कि ऐसी सीमाएँ लाने से अधिक नुकसान हो सकता है।
अतएव, सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को अस्वीकार (dismiss) कर दिया और कहा कि केंद्र यदि चाहे तो अपनी प्रस्तावित सुधारात्मक उपाय (modification) को किसी विशिष्ट या नियोजित मामले में अलग अलग प्रस्तुत कर सकता है।
Shatrughan Chauhan निर्णय — संक्षिप्त समीक्षा
इस निर्णय को बेहतर समझने के लिए जरूरी है कि हम Shatrughan Chauhan फैसले की मूल धारणाएँ जानते हों:
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अत्यधिक समय विलम्ब (undue delay), जो दोषी की गलती नहीं हो — जैसे कि mercy petition लंबित होने, प्रशासनिक देरी आदि — यह एक महत्वपूर्ण राह-कारक (mitigating factor) मानी जा सकती है।
- कोर्ट ने 14 दिन की सूचना अवधि (notice period) का नियम दिया कि जब mercy petition खारिज हो जाए, कम-से-कम 14 दिन का समय दिया जाए, ताकि दोषी अन्य उपायों को आजमा सके और मानसिक तैयारी कर सके।
- यह निर्णय यह मानता था कि मृत्युदंड मिलना जीवन का अधिकार (Article 21) को समाप्त नहीं करता; दोषी को भी मानवीय गरिमा और उचित प्रक्रिया मिलनी चाहिए।
- लेकिन Shatrughan Chauhan ने यह भी स्पष्ट किया कि विलम्ब केवल तभी दोषी-सजा परिवर्तन का कारण बनेगा, जब वह विलम्ब दोषी की गलती न हो और वह न्यायोचित (reasonable) हो।
इस प्रकार, Shatrughan Chauhan ने न्याय की प्रक्रिया और संवेदनशील मानवीय दृष्टिकोण को संतुलित करते हुए मृत्युदंड कानून की सीमाओं को परिभाषित किया।
विश्लेषण एवं संभावित आलोचनाएँ
1. न्यायिक निरंतरता बनाम समय-सापेक्ष बदलाव
- सुप्रीम कोर्ट का तर्क है कि Shatrughan Chauhan निर्णय का संतुलन अभी भी उपयुक्त है और इसे बदला जाना न्यायपालिका की स्थिरता (judicial consistency) को प्रभावित कर सकता है।
- लेकिन इसके आलोचक कह सकते हैं कि अपराध, मामलों की संख्या, न्यायालयों की व्यस्तता, और पीड़ित पक्ष की अपेक्षाएँ समय के साथ बदल गई हैं — इसलिए दिशानिर्देशों में कुछ परिवर्तन ज़रूरी हो सकते थे।
2. पीड़ितों की स्थिति और संवेदनशीलता
- केंद्र ने सही कहा है कि पीड़ितों व उनके परिवारों को भी न्यायप्राप्ति में विलम्ब का दुख झेलना पड़ता है और उनकी मनोवैज्ञानिक पीड़ा अनदेखी नहीं हो सकती।
- किंतु यह सोच न्यायालय ने माना कि इस दृष्टिकोण को अन्य माध्यमों से संवेदनशील बनाया जा सकता है — जैसे पीड़ित सहायता योजनाएँ, समयबद्ध सुनवाई निश्चित करना, अलग ट्रिब्यूनल्स आदि — मगर इसे Shatrughan Chauhan के मूल ढांचे को छेड़ना मान्य कारण नहीं माना।
3. समय-सीमाएँ लागू करने में जोखिम
- यदि समय-सीमाएँ कठोर हों, तो उदाहरणस्वरूप दोषी रोगी हो, न्यायालय बंद हो, वकील अनुपलब्ध हो, प्रशासनिक देरी हो — तो न्याय में बाधा आ सकती है।
- इस तरह का रूकावट दोषी की दुरुक्षा नहीं हो, लेकिन न्यायालयों को ऐसी परिस्थिति में निर्दोष दोषी को मजबूर करना पड़ सकता है।
4. विधि और नीति के बीच सीमारेखा
- यह मामला दर्शाता है कि निर्णयों में न्यायशास्त्र से policy considerations (नीति विचार) को जोड़ना जटिल है।
- केंद्र की नीति-रूचि और न्यायालय की संवैधानिक मर्यादा के बीच संतुलन बनाए रखना कठिन है।
संभावित प्रभाव और भविष्य की राह
(A) दोषी-केंद्रित व्यवस्था का पुनर्स्थापन नहीं
इस निर्णय ने स्पष्ट किया कि भारत की मृत्युदंड-न्यायशास्त्र प्रणाली में न्यायपूर्ण प्रक्रिया और मानवीय निगरानी को बनाए रखना प्राथमिकता है। दोषियों के अधिकारों की रक्षा करना न्याय का अपमान नहीं है, बल्कि संविधान की मर्यादा का आधार है।
(B) केंद्र को अन्य तरीके अपनाने की आज़ादी
कोर्ट ने यह कहा कि केंद्र को यह मोर्चे पर पुनर्कथन (reform) करने की आज़ादी है — लेकिन उन्हें इसे मौजूदा नियमों को “छेड़ने” के बजाय, न्यायिक या विधिक उपायों के माध्यम से करना होगा।
(C) न्यायपालिका की व्यस्तता और संसाधन सुधार की आवश्यकता
इस तरह के मामलों में समय रहते सुनवाई की सुविधा, विशेष ट्रिब्यूनल्स, dedicated cells (जैसे राज्य महाराष्ट्र केस में निर्देश दिए गए) आदि की व्यवस्था और सुधार की मांग बढ़ेगी।
(D) पीड़ित पक्ष और संवेदनशील सुनवाई
समय-सीमाएँ तो नहीं बदली, लेकिन न्यायालयों और सरकारों पर दबाव बढ़ेगा कि वे पीड़ित परिवारों के अधिकारों, उनकी सूचना और सहयोग की व्यवस्था में सुधार करें — जैसे कि मामले की तेजी, कोर्ट रिपोर्ट की पारदर्शिता आदि।
(E) भविष्य की चुनौतियाँ
- यदि सरकार अगली बार ऐसी याचिका लाए, अदालत यह जांचेगी कि क्या उस समय Shatrughan Chauhan के मूल तर्कों को छोड़ना वाज़िब है।
- अन्य उच्च न्यायालयों और राज्यों द्वारा Shatrughan Chauhan दिशानिर्देशों की व्याख्या में असमानताएँ हो सकती हैं — इस निर्णय से एक समान दृष्टिकोण स्थापित करना अपेक्षित है।
- अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार नियमों की अपेक्षाएँ (वैश्विक दृष्टिकोण में मृत्युदंड व उसके अंतराल पर नियंत्रण) अब और अधिक दबाव बनाएंगी।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र की याचिका को खारिज करना, Shatrughan Chauhan निर्णय की स्थिरता एवं मानवीय न्यायशास्त्र में उसकी केंद्रीय भूमिका की पुष्टि है। इस फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया कि मृत्युदंड की प्रक्रिया में संवेदनशीलता, निष्पक्षता और न्याय की मर्यादा को प्राथमिकता दी जाएगी और समय-सीमाएँ निर्धारित करते समय न्याय की आवश्यकताओं को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
यह निर्णय यह संकेत देता है कि भारत की न्याय व्यवस्था, चाहे कितनी भी चुनौतियाँ हो, न्याय और मानवीय गरिमा की कसौटी पर टिके रहने का प्रयास करती है। भविष्य के संघर्ष और सुझावों का दायरा बढ़ेगा — पर यह स्पष्ट हो गया है कि Shatrughan Chauhan का ढांचा अभी भी भारतीय मृत्युदंड-विधि के मूल स्तंभों में से एक है।