“मौखिक सहमति का विधिक मान्यता: लिखित सहमति की अनुपस्थिति में आदेश की पुनरावृत्ति संभव नहीं”

“मौखिक सहमति का विधिक मान्यता: लिखित सहमति की अनुपस्थिति में आदेश की पुनरावृत्ति संभव नहीं”
(2025(1) Apex Court Judgments 001, Supreme Court of India)


📌 विषय प्रवेश (Introduction):

न्यायिक कार्यवाही में सहमति (Consent) का महत्वपूर्ण स्थान होता है, विशेषकर जब पक्षकार न्यायालय के समक्ष किसी आदेश या समाधान के लिए सहमत होते हैं। यह निर्णय इस प्रश्न को स्पष्ट करता है कि क्या मौखिक सहमति के आधार पर पारित आदेश को केवल इसलिए चुनौती दी जा सकती है कि वह लिखित रूप में नहीं थी?


📜 निर्णय की संक्षिप्त पृष्ठभूमि:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने 2025(1) Apex Court Judgments 001 में यह स्पष्ट किया कि:

    यदि किसी आदेश को मौखिक सहमति के आधार पर पारित किया गया है, तो उसकी केवल इस आधार पर समीक्षा नहीं की जा सकती कि सहमति लिखित नहीं थी।

  • याचिकाकर्ता ने पुनरावृत्ति (Review) की मांग करते हुए तर्क दिया कि उसकी सहमति केवल मौखिक थी, लिखित नहीं, अतः आदेश दोषपूर्ण है।

⚖️ न्यायालय का निर्णय (Court’s Ruling):

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया:

  1. यदि पक्षकार ने न्यायालय में मौखिक रूप से स्पष्ट रूप से सहमति दी थी और उसका आदेश में उल्लेख किया गया है, तो उसे बाद में यह नहीं कहा जा सकता कि सहमति केवल लिखित होनी चाहिए थी।
  2. मौखिक सहमति भी विधिक रूप से प्रभावी है, यदि वह रिकॉर्ड पर है और स्पष्ट रूप से न्यायालय द्वारा दर्ज की गई हो।
  3. Review jurisdiction बहुत सीमित होता है। ऐसा कोई स्पष्ट त्रुटि या धोखा न हो तो निर्णय को केवल औपचारिक कारणों से नहीं बदला जा सकता।

🧠 विधिक विश्लेषण (Legal Analysis):

  • CPC, Order 47 Rule 1 के तहत समीक्षा केवल तभी की जा सकती है जब:
    • कोई नवीन साक्ष्य मिले जो पूर्व में उपलब्ध नहीं था,
    • कोई स्पष्ट त्रुटि (error apparent on the face of record) हो, या
    • कोई अन्य न्यायहित में विशेष कारण हो।
  • मात्र लिखित सहमति का अभाव, यदि मौखिक सहमति रिकॉर्ड पर है, तो न तो कोई त्रुटि है और न ही न्यायिक भूल।
  • इस निर्णय ने यह सिद्ध कर दिया कि सहमति के स्वरूप से अधिक महत्व उसके अभिप्राय और स्पष्टता को दिया जाना चाहिए।

📚 संबंधित न्यायिक दृष्टांत (Related Case Law):

  1. Himalayan Coop. Group Housing Society v. Balwan Singh, (2015) 7 SCC 373:
    • वकील द्वारा न्यायालय में दी गई सहमति, पक्षकार को बाध्य करती है।
  2. State of Maharashtra v. Ramdas Shrinivas Nayak, (1982) 2 SCC 463:
    • न्यायालय के रिकॉर्ड का सत्यापन नहीं किया जा सकता; जो दर्ज है, वही अंतिम है।

📌 निष्कर्ष (Conclusion):

यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में सहमति की प्रकृति और प्रभाव को लेकर एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
✅ यदि मौखिक सहमति स्पष्ट रूप से न्यायालय के रिकॉर्ड में है,
❌ तो केवल लिखित सहमति के अभाव में उस आदेश की समीक्षा याचिका स्वीकार नहीं की जा सकती


💡 व्यावहारिक सीख (Practical Takeaways):

  • मौखिक सहमति भी न्यायालय में वैध मानी जाती है, यदि वह दर्ज हो जाए
  • सहमति देने से पूर्व, पक्षकारों को उसकी कानूनी परिणति को समझना चाहिए।
  • समीक्षा याचिका केवल गंभीर त्रुटियों पर आधारित होनी चाहिए, औपचारिकताएं पर्याप्त नहीं होतीं।