मो. अहमद खुरैशी बनाम राज्य मध्य प्रदेश (1993) : शिक्षा और जीवन के अधिकार का संवैधानिक दृष्टिकोण
भूमिका
भारतीय संविधान नागरिकों को अनेक मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिनमें अनुच्छेद 21 विशेष महत्त्व रखता है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत ‘जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार’ शामिल है। समय-समय पर उच्चतम न्यायालय ने अपनी सक्रिय और प्रगतिशील व्याख्याओं के माध्यम से इस अनुच्छेद के दायरे को अत्यधिक विस्तृत किया है। इन्हीं ऐतिहासिक निर्णयों में से एक है मो. अहमद खुरैशी बनाम राज्य मध्य प्रदेश (1993), जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि शिक्षा जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है। इस निर्णय ने न केवल शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार करने की दिशा प्रशस्त की, बल्कि आगे चलकर 86वें संविधान संशोधन (2002) और शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 तक के रास्ते को भी प्रशस्त किया।
मामले की पृष्ठभूमि
मो. अहमद खुरैशी ने मध्य प्रदेश राज्य के विरुद्ध याचिका दायर की थी। उनका मुख्य तर्क यह था कि राज्य शिक्षा को सभी के लिए उपलब्ध कराने में विफल हो रहा है, जबकि संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित ‘जीवन का अधिकार’ केवल शारीरिक अस्तित्व तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें सम्मानजनक और गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार भी शामिल है। बिना शिक्षा के कोई भी व्यक्ति न तो समाज में बराबरी का दावा कर सकता है और न ही अपनी क्षमताओं का विकास कर सकता है।
इसलिए याचिकाकर्ता ने मांग की कि शिक्षा को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना जाए और राज्य पर यह दायित्व डाला जाए कि वह नागरिकों को शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए ठोस कदम उठाए।
प्रमुख प्रश्न
इस मामले में न्यायालय के सामने मुख्य प्रश्न यह था कि –
- क्या संविधान के अनुच्छेद 21 में शिक्षा का अधिकार भी शामिल है?
- क्या राज्य पर यह संवैधानिक दायित्व है कि वह सभी नागरिकों को शिक्षा उपलब्ध कराए?
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि –
- शिक्षा जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है। अनुच्छेद 21 केवल ‘जीवित रहने’ की गारंटी नहीं देता, बल्कि गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार सुनिश्चित करता है।
- गरिमापूर्ण जीवन के लिए शिक्षा अनिवार्य है। बिना शिक्षा के नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं हो सकते।
- राज्य का यह कर्तव्य है कि वह सभी नागरिकों, विशेषकर बच्चों को, शिक्षा उपलब्ध कराए।
- संविधान के अनुच्छेद 41 और 45 भी राज्य पर यह जिम्मेदारी डालते हैं कि वह शिक्षा को बढ़ावा दे। यद्यपि ये अनुच्छेद नीति-निर्देशक तत्वों में आते हैं, परंतु अनुच्छेद 21 के संदर्भ में इन्हें पढ़ने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में देखा जाना चाहिए।
शिक्षा और अनुच्छेद 21 का संबंध
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जीवन का अधिकार केवल शारीरिक अस्तित्व तक सीमित नहीं है। इसमें सम्मान, गरिमा, स्वतंत्रता और अवसरों की समानता भी शामिल है। यदि शिक्षा न हो तो व्यक्ति न तो अपने अधिकारों का सही प्रयोग कर सकता है और न ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में सक्रिय भागीदारी कर सकता है।
इस प्रकार, शिक्षा को अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग माना गया।
इस निर्णय का महत्त्व
- मौलिक अधिकारों का विस्तार – इस निर्णय ने शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने की दिशा में पहला ठोस कदम उठाया।
- नीति-निर्देशक तत्वों की प्रभावशीलता – न्यायालय ने अनुच्छेद 41 और 45 जैसे नीति-निर्देशक तत्वों को अनुच्छेद 21 के साथ जोड़कर उन्हें व्यावहारिक रूप दिया।
- समानता और सामाजिक न्याय – इस निर्णय ने कहा कि शिक्षा समानता और सामाजिक न्याय की नींव है। यदि शिक्षा नहीं मिलेगी तो समान अवसर का अधिकार व्यर्थ हो जाएगा।
- आगामी संवैधानिक संशोधन की नींव – यह निर्णय 86वें संविधान संशोधन (2002) का आधार बना, जिसके अंतर्गत अनुच्छेद 21A जोड़ा गया और 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया।
अन्य प्रासंगिक निर्णयों से तुलना
- मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) – इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 21 में ‘प्रक्रिया का पालन’ (procedure established by law) केवल तकनीकी औपचारिकता नहीं है, बल्कि वह न्यायसंगत और उचित होनी चाहिए। इसने अनुच्छेद 21 का दायरा व्यापक किया।
- उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993) – इसी वर्ष दिया गया यह निर्णय शिक्षा को 6 से 14 वर्ष के बच्चों का मौलिक अधिकार घोषित करने की दिशा में और स्पष्ट कदम था। इसमें कहा गया कि इस आयु वर्ग के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य का कर्तव्य है।
- पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) – यद्यपि यह निर्णय निजता के अधिकार से जुड़ा है, लेकिन इसमें भी यही सिद्धांत अपनाया गया कि अनुच्छेद 21 का दायरा केवल शारीरिक अस्तित्व तक सीमित नहीं, बल्कि गरिमामय जीवन तक फैला हुआ है।
शिक्षा का संवैधानिक परिप्रेक्ष्य
- अनुच्छेद 21A – 86वें संशोधन (2002) के बाद जोड़ा गया, जिसने 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया।
- अनुच्छेद 41 – शिक्षा और काम का अधिकार नीति-निर्देशक तत्व के रूप में राज्य पर जिम्मेदारी डालता है।
- अनुच्छेद 45 – प्रारंभ में 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का लक्ष्य रखा गया।
- अनुच्छेद 46 – अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य कमजोर वर्गों के लिए शिक्षा को बढ़ावा देने का निर्देश देता है।
सामाजिक और व्यावहारिक प्रभाव
इस निर्णय का समाज पर व्यापक असर पड़ा।
- गरीब और वंचित वर्गों को सहारा – शिक्षा को जीवन के अधिकार का हिस्सा मानकर न्यायालय ने गरीब और वंचित वर्गों को नई उम्मीद दी।
- लोकतांत्रिक सशक्तिकरण – बिना शिक्षा के लोकतंत्र केवल नाम मात्र रह जाता है। इस निर्णय ने लोकतांत्रिक भागीदारी को मज़बूती दी।
- कानून निर्माण की दिशा – आगे चलकर शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 आया, जिसने प्राथमिक शिक्षा को लागू करने के लिए ठोस प्रावधान किए।
आलोचना और सीमाएँ
- राज्य की क्षमता – शिक्षा को मौलिक अधिकार मानने के बावजूद, भारत जैसे विशाल देश में संसाधनों की कमी के कारण इसे पूरी तरह लागू करना कठिन है।
- गुणवत्ता की समस्या – केवल शिक्षा की उपलब्धता ही नहीं, बल्कि उसकी गुणवत्ता भी उतनी ही आवश्यक है।
- शहरी और ग्रामीण असमानता – आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की स्थिति कमजोर है, जिससे न्यायालय के इस निर्णय का लक्ष्य अधूरा रह जाता है।
निष्कर्ष
मो. अहमद खुरैशी बनाम राज्य मध्य प्रदेश (1993) का निर्णय भारतीय न्यायिक इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसने स्पष्ट कर दिया कि जीवन का अधिकार केवल जीवित रहने का अधिकार नहीं है, बल्कि सम्मान और गरिमा से जीने का अधिकार है, और इस गरिमा की बुनियाद शिक्षा है। इस निर्णय ने शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित करने की राह प्रशस्त की और भारतीय लोकतंत्र को अधिक सशक्त बनाने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान दिया।
शिक्षा से संबंधित अनुच्छेद, केस लॉ और मुख्य सिद्धांत – सारांश तालिका
अनुच्छेद / केस लॉ | विषय-वस्तु / निर्णय | मुख्य सिद्धांत |
---|---|---|
अनुच्छेद 21 | जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार | जीवन का अधिकार केवल अस्तित्व नहीं, बल्कि गरिमामय जीवन है, जिसमें शिक्षा भी शामिल है |
अनुच्छेद 21A (86वां संशोधन, 2002) | 6–14 वर्ष के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा | शिक्षा मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त |
अनुच्छेद 41 | काम और शिक्षा का अधिकार (नीति-निर्देशक तत्व) | राज्य संसाधनों के अनुसार नागरिकों को शिक्षा उपलब्ध कराने का प्रयास करेगा |
अनुच्छेद 45 | 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा | प्रारंभिक स्तर पर निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना |
अनुच्छेद 46 | अनुसूचित जाति/जनजाति व कमजोर वर्गों की शिक्षा | सामाजिक न्याय और समान अवसर हेतु विशेष प्रावधान |
मो. अहमद खुरैशी बनाम राज्य म.प्र. (1993) | सुप्रीम कोर्ट ने कहा – शिक्षा जीवन के अधिकार का हिस्सा है | शिक्षा को अनुच्छेद 21 के अभिन्न अंग के रूप में मान्यता |
उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993) | 6–14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा मौलिक अधिकार | अनुच्छेद 21 की व्याख्या कर शिक्षा को अनिवार्य बनाया |
मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) | अनुच्छेद 21 की व्यापक व्याख्या | जीवन के अधिकार को ‘न्यायसंगत, उचित और उचित प्रक्रिया’ से जोड़ा गया |
पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) | निजता का अधिकार जीवन के अधिकार का हिस्सा | जीवन और गरिमा की परिभाषा विस्तृत, शिक्षा भी गरिमा से जुड़ी |