“मेडिको लीगल रिपोर्ट के लेखक डॉक्टर की अनुपस्थिति ने डगमगाया अभियोजन पक्ष का मामला: पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने गंभीर चोट के आरोपों से अभियुक्तों को किया बरी”
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में “साक्ष्य” (Evidence) का महत्व सर्वोपरि माना जाता है। विशेष रूप से जब मामला गंभीर चोट (Grievous Hurt) से संबंधित हो, तो मेडिको लीगल रिपोर्ट (MLR) एक अत्यंत आवश्यक दस्तावेज बन जाता है, क्योंकि यह किसी भी अपराध में चोटों की प्रकृति, प्रकार और गंभीरता को प्रमाणित करने का प्रमुख आधार होता है। हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय में यह कहा कि यदि MLR तैयार करने वाले डॉक्टर को अदालत में पेश नहीं किया जाता, तो रिपोर्ट को स्वतंत्र साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता और अभियुक्तों को संदेह का लाभ (Benefit of Doubt) दिया जाना चाहिए। इस फैसले में न्यायालय ने अभियुक्तों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 326 अथवा नई भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023) की धारा 118(2)(B) के तहत लगाए गए गंभीर चोट के आरोपों से बरी (Acquitted) कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला दो पक्षों के बीच हुए झगड़े से संबंधित था, जिसमें अभियोजन पक्ष ने यह आरोप लगाया कि अभियुक्तों ने पीड़ित को जानबूझकर घातक हथियार से मारपीट कर गंभीर चोटें पहुंचाईं। घटना के तुरंत बाद पुलिस ने मामला दर्ज किया और पीड़ित को सरकारी अस्पताल में चिकित्सा परीक्षण के लिए भेजा गया। वहां उपस्थित चिकित्सक ने पीड़ित की चोटों का निरीक्षण कर एक मेडिको लीगल रिपोर्ट (MLR) तैयार की, जिसमें कुछ चोटों को गंभीर (Grievous) घोषित किया गया।
इसी रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने अभियुक्तों के खिलाफ धारा 326 IPC (गंभीर चोट पहुंचाना) के तहत चालान पेश किया। ट्रायल कोर्ट ने इस रिपोर्ट को मुख्य साक्ष्य मानते हुए अभियुक्तों को दोषी ठहराया और सजा सुनाई।
अभियुक्तों ने इस निर्णय को उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उन्होंने यह तर्क दिया कि—
- MLR का लेखक डॉक्टर अदालत में गवाही देने नहीं आया।
- रिपोर्ट पर हस्ताक्षर सिद्ध नहीं किए गए।
- किसी अन्य डॉक्टर या अधिकारी ने केवल रिपोर्ट की प्रतिलिपि पेश की, लेकिन यह प्रमाणित नहीं किया कि वह रिपोर्ट वास्तव में उसी डॉक्टर द्वारा तैयार की गई थी।
उच्च न्यायालय के समक्ष उठे मुख्य प्रश्न
उच्च न्यायालय के समक्ष यह महत्वपूर्ण प्रश्न उठा कि—
- क्या मेडिको लीगल रिपोर्ट (MLR) को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जब उसका लेखक डॉक्टर अदालत में उपस्थित न हो?
- क्या केवल दस्तावेजी रिपोर्ट के आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराया जा सकता है?
- यदि मेडिकल रिपोर्ट अप्रमाणित है, तो क्या अभियोजन पक्ष का मामला टिकेगा?
अदालत का विश्लेषण
न्यायालय ने अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों का गहराई से परीक्षण किया। यह पाया गया कि:
- रिपोर्ट का लेखक डॉक्टर न्यायालय में पेश नहीं हुआ।
- अभियोजन ने न तो डॉक्टर को गवाह के रूप में बुलाया और न ही उसके अनुपस्थित रहने का कोई वैध कारण बताया।
- रिपोर्ट की प्रतिलिपि रिकॉर्ड में थी, परंतु उसे विधिवत प्रमाणित नहीं किया गया था।
न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 60 के अनुसार, मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होना चाहिए, और दस्तावेजी साक्ष्य (Documentary Evidence) तभी स्वीकार्य है जब उसका लेखक न्यायालय में उपस्थित होकर उसकी पुष्टि करे।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी रिपोर्ट का मूल्य तभी है जब उसका लेखक उसके निष्कर्षों के पीछे का चिकित्सीय आधार समझा सके। यदि डॉक्टर अदालत में उपस्थित नहीं होता, तो बचाव पक्ष को उस रिपोर्ट पर प्रश्न करने और क्रॉस-एग्जामिन करने का अवसर नहीं मिलता। यह प्राकृतिक न्याय (Principles of Natural Justice) का उल्लंघन माना जाता है।
न्यायालय का तर्क
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष का पूरा मामला MLR पर आधारित था। चूंकि रिपोर्ट का लेखक डॉक्टर पेश नहीं हुआ, इसलिए MLR को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।
न्यायालय ने कहा:
“किसी अपराध की गंभीरता को सिद्ध करने के लिए चिकित्सीय साक्ष्य अत्यावश्यक है। परंतु जब उस साक्ष्य का मूल लेखक अनुपस्थित रहता है, तो रिपोर्ट मात्र एक कागज़ी दस्तावेज बनकर रह जाती है। न्यायालय ऐसी रिपोर्ट के आधार पर दोषसिद्धि नहीं कर सकता।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि अभियोजन ने कोई अन्य प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct Evidence) प्रस्तुत नहीं किया जिससे यह सिद्ध हो सके कि चोटें “गंभीर” थीं। केवल गवाहों के कथनों के आधार पर अभियुक्त को दोषी नहीं ठहराया जा सकता जब तक मेडिकल रिपोर्ट का प्रमाणिक आधार न हो।
निर्णय
अंततः उच्च न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष “संदेह से परे अपराध सिद्ध” करने में असफल रहा है। मेडिकल रिपोर्ट का लेखक डॉक्टर अदालत में गवाही देने के लिए नहीं आया, इसलिए रिपोर्ट का कोई कानूनी मूल्य नहीं बचा।
अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा:
“जब अभियोजन अपने सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य को प्रमाणित करने में विफल रहता है, तो अभियुक्त को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। भारतीय न्याय प्रणाली ‘संदेह से परे दोष सिद्ध’ (Proof Beyond Reasonable Doubt) के सिद्धांत पर आधारित है। संदेह की स्थिति में अभियुक्त को लाभ दिया जाना चाहिए।”
इस आधार पर, उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट का निर्णय रद्द कर दिया और अभियुक्तों को धारा 326 IPC / धारा 118(2)(B) BNS के तहत लगाए गए सभी आरोपों से बरी कर दिया।
विधिक महत्व और प्रभाव
यह निर्णय भारतीय साक्ष्य कानून के एक मूलभूत सिद्धांत को पुनः पुष्ट करता है — कि हर दस्तावेज को उसके लेखक द्वारा प्रमाणित किया जाना आवश्यक है। न्यायालयों ने पहले भी कई बार कहा है कि—
- “Medical evidence without the examination of the doctor is inadmissible.”
- “The authenticity of an MLR cannot be presumed in absence of the author.”
यह फैसला यह भी दर्शाता है कि अभियोजन पक्ष की लापरवाही, विशेष रूप से महत्वपूर्ण गवाहों को न बुलाने की, अभियुक्त को लाभ पहुंचा सकती है। यह न्यायपालिका के उस दृष्टिकोण को मजबूत करता है कि कानून साक्ष्य की पूर्णता और प्रमाणिकता पर आधारित होना चाहिए, न कि केवल आरोपों पर।
पूर्ववर्ती निर्णयों से सामंजस्य
उच्च न्यायालय ने इस निर्णय में उन पूर्ववर्ती मामलों का भी उल्लेख किया जिनमें समान परिस्थिति में अभियुक्तों को बरी किया गया था। जैसे कि—
- State of Punjab v. Gurmail Singh (2009) – जहां मेडिकल अधिकारी का परीक्षण न होने पर रिपोर्ट को अस्वीकार किया गया।
- Balraj v. State of Haryana (2012) – अदालत ने कहा कि डॉक्टर की गवाही के बिना चोटों की प्रकृति प्रमाणित नहीं की जा सकती।
- Ramanand v. State of Himachal Pradesh (2018) – रिपोर्ट के लेखक डॉक्टर के अभाव में अदालत ने अभियोजन का मामला अस्वीकार किया।
इन सभी मामलों में अदालतों ने एक ही बात दोहराई — कि मेडिकल रिपोर्ट तभी प्रभावी साक्ष्य है जब उसका लेखक न्यायालय में उपस्थित होकर उसकी सत्यता की पुष्टि करे।
न्यायिक सिद्धांत और उसका औचित्य
इस निर्णय से “Natural Justice” के सिद्धांत की भी पुष्टि होती है, क्योंकि यदि डॉक्टर अदालत में उपस्थित नहीं होता, तो अभियुक्त को रिपोर्ट की सटीकता पर सवाल उठाने या क्रॉस-एग्ज़ामिन करने का अवसर नहीं मिलता। इससे निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) के अधिकार का उल्लंघन होता है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है।
न्यायालय ने यह भी कहा कि न्याय प्रणाली का उद्देश्य किसी भी निर्दोष व्यक्ति को दंडित करना नहीं, बल्कि सच्चाई तक पहुंचना है। यदि साक्ष्य कमजोर है या अधूरा है, तो न्यायालय दोषसिद्धि नहीं कर सकता।
निष्कर्ष
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण उदाहरण है, जो अभियोजन पक्ष को सावधान करता है कि किसी भी आपराधिक मामले में मेडिकल रिपोर्ट मात्र औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह तभी प्रभावी होती है जब उसे विधिवत रूप से प्रमाणित किया जाए।
मुख्य निष्कर्ष:
- मेडिकल रिपोर्ट तभी साक्ष्य मानी जाएगी जब उसका लेखक डॉक्टर गवाही दे।
- केवल दस्तावेजी रिपोर्ट पर दोषसिद्धि नहीं की जा सकती।
- अभियुक्त को संदेह का लाभ देना न्यायिक कर्तव्य है।
- अभियोजन की लापरवाही न्यायिक दृष्टि में अभियुक्त के पक्ष में जाती है।
इस निर्णय ने एक बार फिर यह स्थापित किया कि न्यायालय किसी भी मामले में “साक्ष्य की सत्यता” को सर्वोपरि रखता है। अदालतें केवल आरोपों के आधार पर नहीं, बल्कि ठोस प्रमाणों के आधार पर निर्णय देती हैं। इसलिए, जब मेडिकल साक्ष्य का मूल लेखक अदालत में नहीं आता, तो उसकी रिपोर्ट का मूल्य समाप्त हो जाता है और अभियुक्त को दोषमुक्त घोषित करना ही न्यायसंगत होता है।
अंततः, यह निर्णय न केवल अभियुक्तों के लिए राहतकारी है, बल्कि न्यायिक सिद्धांतों की मजबूती का भी प्रतीक है—कि “न्याय संदेह के आधार पर नहीं, बल्कि प्रमाणों के आधार पर दिया जाना चाहिए।”