शीर्षक:
“मूल साक्ष्य के अभाव में दोषसिद्धि रद्द: सुप्रीम कोर्ट का अहम निर्णय – फॉरजरी और धोखाधड़ी मामलों में मात्र हैंडराइटिंग एक्सपर्ट की गवाही पर्याप्त नहीं”
भूमिका:
भारतीय दंड संहिता की धाराएं 471 (जालसाजी से संबंधित दस्तावेज का प्रयोग), 120B (आपराधिक षड्यंत्र), और 109 (उकसावे से अपराध) गंभीर अपराधों की श्रेणी में आती हैं। इन अपराधों की जांच और अभियोजन में उच्च स्तर के प्रमाण की अपेक्षा की जाती है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया कि केवल हस्तलेखन विशेषज्ञ (Handwriting Expert) की गवाही पर आधारित दोषसिद्धि तब तक टिकाऊ नहीं मानी जा सकती, जब तक कि उसके साथ मूल साक्ष्य (Primary Evidence) न हो।
मामले की पृष्ठभूमि:
इस मामले में अभियुक्तों पर फर्जी दस्तावेजों के जरिए धोखाधड़ी करने का आरोप था। विशेष रूप से, यह आरोप था कि उन्होंने एक डाक लिफाफे (postal cover) पर गलत हस्ताक्षर कर धोखाधड़ी की। अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि डाक लिफाफे पर मौजूद हस्तलिपि अभियुक्त की थी, और इसे साबित करने के लिए हस्तलेखन विशेषज्ञ की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई।
हालांकि, मूल डाक लिफाफा (original postal cover) कोर्ट में प्रस्तुत नहीं किया गया। केवल उसकी फोटो कॉपी और विशेषज्ञ की रिपोर्ट पर भरोसा किया गया, जिसे निचली अदालत ने दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त माना।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने इस दोषसिद्धि को रद्द करते हुए कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:
- मूल साक्ष्य की अनुपस्थिति:
कोर्ट ने कहा कि जब तक विवादित दस्तावेज या वस्तु मूल रूप में कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत नहीं की जाती, तब तक विशेषज्ञ की रिपोर्ट मात्र एक राय ही मानी जाती है, निर्णायक साक्ष्य नहीं। - हस्तलेखन विशेषज्ञ की सीमा:
विशेषज्ञ गवाह ने जिस डाक लिफाफे की जांच की, उसे न तो कोर्ट में चिन्हित किया गया और न ही कोई स्वतंत्र साक्षी उसके अस्तित्व को साबित कर पाया।“A handwriting expert’s opinion cannot substitute for primary evidence unless duly corroborated.”
- प्रक्रियात्मक खामी:
अभियोजन पक्ष ने यह भी साबित नहीं किया कि ऐसा कोई डाक लिफाफा वास्तव में भेजा गया था या अस्तित्व में था। - दोषसिद्धि रद्द:
उच्चतम न्यायालय ने यह पाया कि इस मामले में ठोस और प्रत्यक्ष प्रमाण का घोर अभाव था। अतः अभियुक्तों की दोषसिद्धि न्याय के सिद्धांतों के विपरीत थी।
परिणामस्वरूप, हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को रद्द करते हुए अपील स्वीकार कर ली।
न्यायिक निष्कर्ष और महत्व:
यह निर्णय भारतीय दंड प्रक्रिया में एक मील का पत्थर है, क्योंकि यह दो महत्वपूर्ण सिद्धांतों को पुनः स्थापित करता है:
- “No conviction without primary evidence” (मूल साक्ष्य के बिना दोषसिद्धि नहीं)।
- “Expert opinion is only advisory, not conclusive unless corroborated.” (विशेषज्ञ की राय केवल परामर्शात्मक होती है, निर्णायक नहीं)।
प्रभाव और भविष्य की दृष्टि:
- यह फैसला भविष्य के फॉरजरी और धोखाधड़ी मामलों में अभियोजन की जिम्मेदारी को और भी कठोर बना देता है, जहाँ केवल राय नहीं, बल्कि ठोस साक्ष्य अपेक्षित होंगे।
- अदालतों के लिए यह मार्गदर्शक रहेगा कि वे विशेषज्ञ गवाहों की राय को अंधाधुंध स्वीकार न करें, जब तक कि वह साक्ष्य की पुष्टि अन्य सशक्त प्रमाणों से न हो।
निष्कर्ष:
यह सुप्रीम कोर्ट का निर्णय बताता है कि आपराधिक न्याय प्रणाली में केवल धारणा या तकनीकी राय नहीं, बल्कि मूल और प्रत्यक्ष साक्ष्य की आवश्यकता होती है, ताकि निर्दोष व्यक्ति को सजा न हो और दोषी को कानून के अनुसार दंड मिले।
इस निर्णय ने भारतीय न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता और प्रमाण-आधारित दृष्टिकोण को और सशक्त किया है।