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मुस्लिम पति को एक से अधिक विवाह का निहित अधिकार नहीं: मुस्लिम कानून में एकपत्नीवाद ‘नियम’ और बहुपत्नीवाद ‘अपवाद’ — केरल हाईकोर्ट

मुस्लिम पति को एक से अधिक विवाह का निहित अधिकार नहीं: मुस्लिम कानून में एकपत्नीवाद ‘नियम’ और बहुपत्नीवाद ‘अपवाद’ — केरल हाईकोर्ट का विस्तृत निर्णय

भूमिका

      मुस्लिम व्यक्तिगत कानून को लेकर अक्सर यह मान्यता प्रचलित रही है कि मुस्लिम पुरुषों को स्वाभाविक रूप से चार विवाह करने का “धार्मिक” या “निहित” अधिकार प्राप्त है। समाज और मीडिया में बार-बार इस धारणा को दोहराया गया है, मानो पुरुष की इच्छा मात्र से बहुपत्नीवाद एक प्रकार का अविच्छेद्य अधिकार हो। परंतु केरल हाईकोर्ट ने हाल ही के एक महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाले निर्णय में स्पष्ट किया कि यह धारणा विधिक रूप से न तो सही है और न ही न्यायसंगत।

       कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम पुरुष का एक से अधिक विवाह करना कोई “vested right” या स्वाभाविक अधिकार नहीं है। मुस्लिम कानून में “monogamy” (एकपत्नीवाद) ही सामान्य नियम है और polygamy (बहुपत्नीवाद) एक कड़े परीक्षण वाला अपवाद मात्र है। यह फैसला न केवल मुस्लिम पारिवारिक कानून की सही व्याख्या करता है, बल्कि महिलाओं के अधिकारों, विवाह में समानता, और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 तथा 21 के व्यापक संरक्षणों को न्यायालय की दृष्टि में मजबूत भी बनाता है।

       यह लेख इस निर्णय की पृष्ठभूमि, न्यायालय की दलीलें, मुस्लिम कानून की सिद्धांतात्मक व्याख्या, और भारतीय संवैधानिक ढांचे पर इसके व्यापक प्रभाव का विस्तारपूर्वक विश्लेषण प्रस्तुत करता है।


विवाद की पृष्ठभूमि

       यह मामला उस समय उठा जब एक मुस्लिम पति ने अपनी दूसरी शादी के पंजीकरण (registration) से जुड़े विवाद को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाया। पति का तर्क यह था कि:

  • मुस्लिम पुरुष को चार विवाह करने का धार्मिक अधिकार है,
  • इसलिए प्रशासनिक अधिकारी उसकी दूसरी शादी के पंजीकरण में बाधा नहीं डाल सकते,
  • यह उसका मौलिक और धार्मिक अधिकार है।

      दूसरी ओर पत्नी (पहली पत्नी), महिला संगठनों और राज्य ने यह तर्क दिया कि बहुपत्नीवाद “धार्मिक आज़ादी का निर्विवाद अधिकार” नहीं है, बल्कि इस पर कड़े धार्मिक-वैधानिक प्रतिबंध और शर्तें हैं—जिन्हें पूरा किए बिना बहुविवाह का दावा नहीं किया जा सकता।


मुस्लिम व्यक्तिगत कानून: नियम और अपवाद

1. एकपत्नीवाद ही मूल नियम

केरल हाईकोर्ट ने कुरान, हदीस और मुस्लिम फिक़ह की न्यायिक व्याख्याओं का विस्तृत परीक्षण करते हुए कहा कि:

“मुस्लिम कानून में monogamy (एक ही पत्नी के साथ विवाह) सामान्य नियम है।
Polygamy (एक से अधिक विवाह) केवल विशेष, न्यायसंगत और नैतिक कारणों से ही अनुमन्य है।”

अदालत ने कुरान की आयत 4:3 (Surah An-Nisa) का विश्लेषण किया और यह निष्कर्ष निकाला कि:

  • चार विवाह की अनुमति “compulsion-based protection system” की तरह है,
  • इसका उद्देश्य विधवाओं और अनाथों की रक्षा करना था,
  • इसका दुरुपयोग स्वयं कुरान में निषिद्ध है।

2. बहुपत्नीवाद: कड़े परीक्षण वाला अपवाद

कुरान की उक्त आयत में साफ़ शब्दों में कहा गया है:

“यदि तुम न्याय नहीं कर सकोगे, तो एक ही पत्नी पर्याप्त है।”

इससे यह सिद्ध होता है कि:

  • बहुविवाह की अनुमति कोई प्रोत्साहन नहीं,
  • बल्कि न्याय, समता और नैतिकता की कठोर शर्तों पर आधारित एक असाधारण स्थिति है।

अदालत के अनुसार:

  • यदि न्याय नहीं कर सकते—तो बहुविवाह स्वतः निषिद्ध
  • यदि पत्नी को क्षति, असमानता या मानसिक/शारीरिक आघात हो—तो बहुविवाह अनुचित
  • पत्नी की सुरक्षा और सम्मान सर्वोपरि

मुख्य प्रश्न: क्या मुस्लिम पति को चार विवाह करने का ‘निहित अधिकार’ है?

अदालत का उत्तर था—नहीं, बिल्कुल नहीं।

Vested right का अर्थ

“Vested right” वह अधिकार है जो:

  • व्यक्ति को कानून पूरी तरह और बिना शर्त देता है,
  • जिसे कोई प्रतिबंधित नहीं कर सकता,
  • और जो स्वाभाविक रूप से विकसित होता है।

कोर्ट का विश्लेषण

केरल हाईकोर्ट ने कहा:

  • बहुपत्नीवाद न तो मौलिक अधिकार है,
  • न प्राकृतिक अधिकार,
  • न ही धार्मिक स्वतंत्रता का संरक्षित अंग

वास्तव में बहुविवाह केवल इस्लामी विधि की ऐतिहासिक व्यवस्था का हिस्सा है और इसे भी बिना शर्त नहीं माना जा सकता।


निर्णय में संविधान का प्रभाव

केरल हाईकोर्ट ने संविधान की तीन मुख्य अवधारणाओं का संदर्भ दिया:

1. अनुच्छेद 14 — समानता का अधिकार

यदि बहुविवाह से पत्नी को:

  • असमानता,
  • अन्याय,
  • मानसिक क्रूरता,
  • आर्थिक क्षति

होती है, तो यह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा।

2. अनुच्छेद 15 — लिंग आधारित भेदभाव निषेध

एकतरफा बहुविवाह पुरुष को असमान शक्ति देता है, जो स्त्री समानता के विरुद्ध है।

3. अनुच्छेद 21 — जीवन और गरिमा का अधिकार

पत्नी की गरिमा, सुरक्षा, मानसिक शांति—सभी पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

कोर्ट ने कहा कि:

“किसी भी धार्मिक प्रथा की व्याख्या संविधान के मूलभूत मूल्यों को प्राथमिकता देकर ही की जाएगी।”

अतः यदि कोई धार्मिक व्याख्या महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाती है, तो वह स्वीकार्य नहीं।


महत्वपूर्ण टिप्पणी: धार्मिक स्वतंत्रता की सीमाएँ

अदालत ने स्पष्ट कहा:

  • अनुच्छेद 25 व्यक्ति को धार्मिक प्रथा करने की अनुमति देता है,
  • परंतु वही प्रथा तब तक वैध है,
  • जब तक वह समाजिक सुधार,
  • नैतिकता,
  • स्वास्थ्य,
  • और अन्य नागरिकों के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध न जाए।

इस सिद्धांत के तहत बहुपत्नीवाद का कोई भी दुरुपयोग अनुचित है।


कोर्ट के शब्दों में: महिला कोई संपत्ति नहीं

केरल हाईकोर्ट ने यह महत्वपूर्ण टिप्पणी की:

“मुस्लिम पत्नी अपने पति की संपत्ति नहीं है कि वह मनमर्जी से दूसरी शादी कर ले।
ऐसा करना उसकी गरिमा और वैवाहिक अधिकारों का गंभीर उल्लंघन है।”

कोर्ट ने कहा:

  • पति का व्यवहार वैवाहिक अनुबंध (Nikah) की मूल भावना के खिलाफ है,
  • निकाह सुरक्षा, सम्मान और बराबरी के सिद्धांतों पर आधारित है,
  • इसे पुरुष की निजी मर्ज़ी का साधन नहीं बनाया जा सकता।

दूसरी शादी के लिए ‘वैध कारण’ आवश्यक

कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम पुरुष को दूसरी शादी तब ही न्यायसंगत हो सकती है, जब:

  • पहली पत्नी बीमार हो,
  • मानसिक रूप से असमर्थ हो,
  • संतान न दे पा रही हो (यह भी अब संवेदनशील मुद्दा माना गया है),
  • पति-पत्नी लंबे समय से अलग रह रहे हों,
  • या कोई अन्य अपरिहार्य सामाजिक-नैतिक परिस्थिति हो।

सिर्फ इच्छा, स्वार्थ या पुरुषवादी विचारधारा के आधार पर बहुविवाह की अनुमति नहीं।


पूरे मामले का प्रभाव — सामाजिक, विधिक और संवैधानिक दृष्टि से

1. मुस्लिम महिलाओं के अधिकार सशक्त हुए

यह निर्णय स्पष्ट संदेश देता है कि:

  • मुस्लिम महिला भी वैवाहिक संबंध में समान अधिकार रखती है,
  • बहुविवाह पर उसकी सहमति या असहमति निर्णायक है,
  • वह मनमानी दूसरी शादी रोकने के लिए अदालत जा सकती है।

2. बहुपत्नीवाद पर न्यायिक नियंत्रण और कठोरता बढ़ी

अब बहुविवाह “मनमाना अधिकार” नहीं, बल्कि “न्यायसंगत कारण” का मामला है।

3. पारिवारिक न्यायालयों को स्पष्ट मार्गदर्शन

परिवार अदालतें:

  • क्रूरता,
  • मानसिक उत्पीड़न,
  • Bigamy-like situations

के मामलों में इस निर्णय का उपयोग कर सकती हैं।

4. Personal Law को अब संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप पढ़ना अनिवार्य

यह फैसला पुनः स्थापित करता है कि:

“व्यक्तिगत कानून संविधान से ऊपर नहीं है।”


न्यायालय की भाषा और तर्क की गहराई

केरल हाईकोर्ट ने कहा कि:

  • बहुपत्नीवाद इस्लामी अनिवार्यता नहीं,
  • यह क़ानूनी अधिकार नहीं,
  • यह केवल विशेष परिस्थिति में दी गई अनुमति है।

इसके दुरुपयोग को “धार्मिक स्वतंत्रता” का हवाला देकर बचाया नहीं जा सकता।

अदालत ने कुरानिक आयतों को:

  • सामाजिक उद्देश्यों,
  • नैतिकता,
  • न्याय,
  • और महिला-सुरक्षा

के सिद्धांतों के साथ जोड़कर व्याख्या की।

यह भारत में मुस्लिम व्यक्तिगत कानून की प्रगतिशील व्याख्या का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।


बहुविवाह: भारतीय न्यायपालिका का समग्र रुख

यह निर्णय अकेला नहीं है। सुप्रीम कोर्ट और अन्य हाईकोर्ट पहले भी कह चुके हैं:

  • Yusuf v. Sowramma (Kerala HC)
    बहुविवाह कोई अधिकार नहीं, बल्कि अनुमति है।
  • Javed v. State of Haryana (SC, 2003)
    बहुविवाह मुस्लिम पुरुषों का मौलिक अधिकार नहीं।
  • Shayara Bano (Triple Talaq Case, 2017)
    महिला-दमनकारी प्रथाएँ धार्मिक स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं।

इस पृष्ठभूमि में केरल हाईकोर्ट का यह निर्णय एक मजबूत कड़ी के रूप में उभरता है।


निष्कर्ष

       केरल हाईकोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों, विवाह की गरिमा और संविधान के समानता सिद्धांत की दिशा में एक बड़ा कदम है। अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि:

  • मुस्लिम पुरुष को बहुविवाह का कोई निहित अधिकार नहीं,
  • यह केवल सीमित, न्यायसंगत और नैतिक कारणों वाला अपवाद है,
  • एकपत्नीवाद मुस्लिम क़ानून की मूल आत्मा है,
  • और महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य है।

       अदालत का यह निर्णय भारत में व्यक्तिगत कानूनों की प्रगतिशील, संवेदनात्मक और संवैधानिक दृष्टि से पुनर्व्याख्या का महत्वपूर्ण उदाहरण है। यह न केवल मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि सामाजिक न्याय, समानता और मानव गरिमा को भी मजबूती देता है।