“मुस्लिम उत्तराधिकार कानून (शरिया आधारित): एक विस्तृत अध्ययन”

🔖 लेख शीर्षक: “मुस्लिम उत्तराधिकार कानून (शरिया आधारित): एक विस्तृत अध्ययन”
(Muslim Personal Law on Inheritance as per Sharia: A Comprehensive Study)


भूमिका

मुस्लिम समुदाय में उत्तराधिकार का कानून शरिया (Shariah) पर आधारित है, जो इस्लामिक धार्मिक ग्रंथों – क़ुरआन, हदीस, इज्मा (सर्वसम्मति) और कियास (न्यायसंगत निर्णय) से व्युत्पन्न है। मुस्लिम उत्तराधिकार कानून एक ईश्वरीय विधान (Divine Law) माना जाता है, जिसे कोई भी व्यक्ति न तो बदल सकता है और न ही टाल सकता है। इस कानून की विशिष्टता यह है कि यह पूर्व निर्धारित और गणनात्मक रूप से सटीक उत्तराधिकार वितरण की प्रणाली है।

भारत में मुस्लिमों के लिए उत्तराधिकार कानून मुख्यतः मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीअत) एप्लिकेशन एक्ट, 1937 के तहत लागू होता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्तिगत कानूनों में मुस्लिम समुदाय पर शरीअत आधारित नियम ही प्रभावी हों।


मूल सिद्धांत (Basic Principles)

मुस्लिम उत्तराधिकार प्रणाली निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित है:

  1. स्वचालित उत्तराधिकार: मृत्यु के साथ ही संपत्ति स्वतः वारिसों में बंट जाती है।
  2. वसीयत की सीमाएं: व्यक्ति केवल ⅓ संपत्ति की वसीयत कर सकता है, वह भी गैर-वारिस के पक्ष में।
  3. स्त्री और पुरुष को उत्तराधिकार: दोनों को अधिकार प्राप्त है, लेकिन पुरुष को सामान्यतः दोगुना हिस्सा मिलता है।
  4. उत्तराधिकार गणितीय आधार पर होता है – जिसे ‘फरायज़’ (Faraid) कहा जाता है।

मुस्लिम उत्तराधिकार के प्रकार

मुस्लिम कानून के अनुसार उत्तराधिकार दो भागों में विभाजित है:

1. क़ुरआनी उत्तराधिकारी (Sharers)

ये वे व्यक्ति होते हैं जिन्हें क़ुरआन में निश्चित रूप से उत्तराधिकार का हिस्सा निर्धारित किया गया है।
उदाहरण:

  • पिता, माता, पति, पत्नी
  • पुत्री, पौत्री (यदि पुत्र न हो), बहन (कुछ स्थितियों में)

2. असबा (Residuaries)

वे उत्तराधिकारी जिनका हिस्सा निर्धारित नहीं है, लेकिन जो शेष संपत्ति के उत्तराधिकारी होते हैं।
उदाहरण:

  • पुत्र, पोता
  • भाई, चाचा
  • भतीजा, भतीजी (कुछ दशाओं में)

3. उत्सबुत या दूरस्थ रिश्तेदार (Distant Kindred)

जब न sharers और न ही asaba मौजूद होते हैं, तब यह वर्ग उत्तराधिकारी बनता है।


पुरुष और महिला में हिस्से का अनुपात

शरीअत के अनुसार, आमतौर पर पुरुष को महिला की तुलना में दोगुना हिस्सा मिलता है। उदाहरण के लिए:

  • पुत्र और पुत्री: पुत्र को 2 और पुत्री को 1 हिस्सा।
  • पति: यदि संतान हो, तो पति को ¼; संतान न हो तो ½।
  • पत्नी: यदि संतान हो, तो पत्नी को ⅛; संतान न हो तो ¼।
  • माता: यदि संतान और अन्य उत्तराधिकारी हों, तो 1/6; अन्यथा 1/3।
  • पिता: यदि संतान हो तो 1/6 + शेष Asaba में हिस्सा।

यह अनुपात उत्तरदायित्व के आधार पर तय किया गया है, क्योंकि इस्लामी व्यवस्था में पुरुष पर परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी अधिक होती है।


उत्तराधिकार की प्रक्रिया और शर्तें

मुस्लिम कानून में उत्तराधिकार हेतु निम्नलिखित शर्तें होती हैं:

  1. मृत्यु हो चुकी हो – उत्तराधिकार तभी संभव है।
  2. उत्तराधिकारी जीवित हो – जो मृत्यु के समय जीवित न हो, उसे हिस्सा नहीं मिलता।
  3. हत्यारा उत्तराधिकारी नहीं बन सकता – यदि कोई व्यक्ति मृतक की हत्या करता है, तो उसे संपत्ति से वंचित कर दिया जाता है।
  4. वसीयत का प्रभाव सीमित – वसीयत केवल ⅓ संपत्ति पर ही मान्य है।

वसीयत (Wasiyat) और उसकी सीमाएं

  • मुस्लिम कानून में व्यक्ति केवल ⅓ संपत्ति की वसीयत कर सकता है।
  • यदि वसीयत किसी वारिस के नाम की गई हो, तो वह अन्य उत्तराधिकारियों की अनुमति पर निर्भर होगी।
  • वसीयत मौखिक या लिखित दोनों रूपों में मान्य होती है।

संप्रेषणीयता (Transferability) और संयुक्त उत्तराधिकार

  • मुस्लिम उत्तराधिकार में संयुक्त परिवार की अवधारणा नहीं है जैसा कि हिंदू कानून में होता है।
  • प्रत्येक उत्तराधिकारी का अलग और निश्चित हिस्सा होता है।
  • कोई भी उत्तराधिकारी अपने हिस्से को बेच सकता है, दान कर सकता है या वसीयत कर सकता है (अपनी मृत्यु से पहले)।

विवाह का प्रभाव

  • मुस्लिम विधवा को उसके पति की संपत्ति में 1/8 या 1/4 हिस्सा मिलता है।
  • पति को भी पत्नी की संपत्ति में 1/2 या 1/4 हिस्सा मिलता है।
  • तलाकशुदा महिला यदि इद्दत अवधि में है और पति की मृत्यु हो जाती है, तो उसे उत्तराधिकार प्राप्त होता है।

मौलिक भेद हिंदू और मुस्लिम उत्तराधिकार में

विषय हिंदू कानून मुस्लिम कानून
उत्तराधिकार व्यवस्था कोडिफाइड, संशोधित धार्मिक, अपरिवर्तनीय
वसीयत का अधिकार पूरी संपत्ति पर ⅓ संपत्ति तक
पुत्र-पुत्री का अधिकार समान पुत्र को दुगुना हिस्सा
संयुक्त परिवार अस्तित्व में नहीं होता
महिलाएं कोपार्सनर संशोधन से मिली शुरू से वारिस हैं

महत्वपूर्ण न्यायिक दृष्टांत

1. Mohd. Amin v. Vakil Ahmed (1952)

इस मामले में स्पष्ट किया गया कि उत्तराधिकार शरीअत के अनुसार चलेगा, न कि रीति-रिवाज के अनुसार।

2. Mst. Bibi Sayeeda v. State of Bihar (1996)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम उत्तराधिकार कानून में सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती जब तक वह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन न करे।


सामाजिक महत्व और समकालीन प्रासंगिकता

मुस्लिम उत्तराधिकार कानून में महिलाओं को अधिकार दिए गए हैं जो कई दृष्टियों से अन्य पर्सनल लॉ से पहले विकसित हुए, परंतु वास्तविक व्यवहार में महिलाओं को उनका पूरा हक़ नहीं मिल पाता

  • जागरूकता की कमी
  • पारिवारिक दबाव
  • सामाजिक मान्यताएं
    इन कारणों से कई बार महिलाएं अपना उत्तराधिकार छोड़ देती हैं।

चुनौतियाँ और सुधार की संभावनाएँ

  1. सामाजिक जागरूकता अभियान चलाना आवश्यक है ताकि महिलाएं अपने अधिकारों को पहचान सकें।
  2. मौलवियों और धार्मिक संस्थाओं को शिक्षा व प्रशिक्षण देना चाहिए कि वे न्यायोचित व्याख्या करें।
  3. सरकारी सहायता और कानूनी सलाह केंद्र ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बना सकते हैं।
  4. यूनिफॉर्म सिविल कोड पर चल रही बहस भी इस क्षेत्र में भविष्य के सुधारों की दिशा तय करेगी।

निष्कर्ष

मुस्लिम उत्तराधिकार कानून (शरिया आधारित) एक विशिष्ट और न्यायोचित व्यवस्था है जो धर्म के आदेशों पर आधारित है और जिसमें सभी वारिसों को उनके हिस्से के अनुसार संपत्ति प्रदान की जाती है।
इस कानून की गणनात्मक स्पष्टता, महिला अधिकारों की स्वीकृति और धार्मिक न्याय पर आधारित होना इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।

हालाँकि, आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में इस कानून की व्यवहारिक चुनौतियाँ भी हैं जिन्हें जागरूकता, शिक्षा और कानूनी सहायता के माध्यम से दूर किया जा सकता है। शरीअत के उत्तराधिकार सिद्धांतों को यदि समाज में सही रूप से लागू किया जाए, तो यह एक अत्यंत संतुलित और नैतिक उत्तराधिकार व्यवस्था प्रदान कर सकता है।