मुफ़्त और निष्पक्ष चुनावों के लिए ‘State Funding’ ही उपाय: जस्टिस ओका ने याद किए जस्टिस तर्कुंडे के ऐतिहासिक सुझाव
प्रस्तावना: चुनाव प्रणाली की विश्वसनीयता पर गहन चिंतन
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहाँ चुनाव केवल राजनीतिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि जनता की आवाज़ का अभिव्यक्ति माध्यम है। लोकतंत्र की मज़बूती इस बात पर निर्भर करती है कि चुनाव कितने फ्री, फेयर और ट्रांसपेरेंट हों। लेकिन चुनावों का बढ़ता खर्च, धनबल का दुरुपयोग, कॉरपोरेट चंदा और अपारदर्शी पार्टी फंडिंग समय–समय पर बहस का प्रमुख विषय रहा है।
इसी संदर्भ में हाल ही में एक महत्वपूर्ण विचार सामने आया जब सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस. ओका ने अपने वक्तव्य में यह कहा कि State Funding of Elections (राज्य द्वारा चुनाव खर्च का वहन) से भारत में चुनाव अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष हो सकते हैं। उन्होंने इस संदर्भ में प्रसिद्ध न्यायविद और लोकतांत्रिक सुधारों के अग्रणी विचारक जस्टिस वी. एम. तर्कुंडे (Justice V.M. Tarkunde) के ऐतिहासिक सुझावों को याद किया।
तर्कुंडे भारत में चुनावी सुधारों के जनक माने जाते हैं। उन्होंने 1970 और 1980 के दशक में कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण था—
राज्य द्वारा चुनावों का पूर्ण या आंशिक वित्तपोषण।
जस्टिस ओका ने कहा कि यदि भारत वास्तव में चुनावों को भ्रष्टाचार से मुक्त करना चाहता है तो तर्कुंडे की दृष्टि अपनाना समय की आवश्यकता है।
जस्टिस तर्कुंडे कौन थे और उनके विचार क्यों महत्वपूर्ण हैं?
जस्टिस वी. एम. तर्कुंडे (1909–2004) प्रख्यात न्यायविद, मानवाधिकार कार्यकर्ता और लोकतांत्रिक सुधारक थे। उन्हें “Father of Indian Civil Liberties Movement” भी कहा जाता है।
उन्होंने चुनाव सुधारों पर कई शोधपत्र लिखे और भारत की चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता को लेकर महत्वपूर्ण सुझाव दिए।
तर्कुंडे के प्रमुख विचार —
- चुनाव में धनबल को सीमित करना
- राजनीतिक दलों की आय–व्यय की पारदर्शिता
- पार्टी फंडिंग में कॉरपोरेट दान पर नियंत्रण
- उम्मीदवारों की योग्यता और ईमानदारी पर ज़ोर
- State Funding of Elections का मॉडल
तर्कुंडे का तर्क था:
“जब तक चुनाव राज्य द्वारा नियंत्रित और वित्तपोषित नहीं होंगे, तब तक भ्रष्टाचार और अनुचित प्रभाव को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता।”
जस्टिस ओका की टिप्पणी का महत्व: न्यायालय की दृष्टि से चुनावी सुधार
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ओका ने अपने वक्तव्य में कहा कि वर्तमान चुनावी व्यवस्था में धन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। कई चुनाव ऐसे होते हैं जिसमें उम्मीदवार को चुनाव लड़ने में करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। इससे—
- धनी उम्मीदवारों को फायदा मिलता है
- राजनीतिक दल बड़े कॉरपोरेट दान पर निर्भर हो जाते हैं
- elected representatives दबाव में आते हैं
- लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित होती है
जस्टिस ओका का मानना है कि यदि राज्य चुनाव के खर्च को वहन करे, तो—
- उम्मीदवारों की समानता बढ़ेगी
- भ्रष्टाचार घटेगा
- black money का उपयोग रुकेगा
- चुनाव और अधिक निष्पक्ष होंगे
उन्होंने उल्लेख किया कि तर्कुंडे के सुझाव आज भी 100% प्रासंगिक हैं।
State Funding of Elections क्या है?
यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें:
- पूरी तरह या
- आंशिक रूप से
चुनावी खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाता है, न कि उम्मीदवारों या राजनीतिक दलों द्वारा।
इसके दो रूप होते हैं —
1. पूर्ण राज्य फंडिंग (Full State Funding)
सरकार उम्मीदवारों को पूरा धन मुहैया कराती है।
उदाहरण:
- चुनाव प्रचार
- बैनर-पोस्टर
- ट्रैवल
- मीडिया विज्ञापन
- सभा–रैली का खर्च
2. आंशिक राज्य फंडिंग (Partial State Funding)
कुछ खर्च सरकार उठाती है, बाकी उम्मीदवार स्वयं वहन करते हैं।
भारत में अब तक यह मॉडल लागू नहीं हुआ है, हालांकि चुनाव आयोग और कई आयोगों ने सुझाव दिए हैं।
भारत में चुनावी खर्च की वास्तविकता
भारत में चुनावी खर्च लगातार बढ़ रहा है:
- लोकसभा चुनाव 2019 में कुल खर्च: ₹60,000 करोड़+
- 2024 लोकसभा चुनाव में अनुमानित खर्च: ₹1,20,000 करोड़+
यह दुनिया में सबसे महंगा चुनाव है।
उम्मीदवार और दल अक्सर—
- black money
- कॉरपोरेट चंदे
- अघोषित फंड
- चुनाव से पहले बड़ी-बड़ी रैलियों और डिजिटल कैंपेन पर अरबों रुपये खर्च करते हैं
यह चुनावी समानता को खत्म करता है। यही कारण है कि न्यायपालिका और चुनाव आयोग समय–समय पर इस पर चिंता जताते रहे हैं।
State Funding क्यों आवश्यक? — जस्टिस ओका की दृष्टि
1. Black Money पर नियंत्रण
जब सरकार चुनाव का खर्च उठाएगी, उम्मीदवारों को black money की आवश्यकता कम होगी। इससे भ्रष्टाचार और हवाला प्रणाली पर रोक लगेगी।
2. समान अवसर का सिद्धांत
धनी और गरीब उम्मीदवारों में असमानता बढ़ रही है। State funding इसे समाप्त कर सकती है।
3. कॉरपोरेट प्रभाव हटेगा
चुनाव के लिए राजनीतिक दल बड़े उद्योगपतियों से चंदा लेते हैं। बाद में ये उद्योगपति नीतियों पर प्रभाव डालते हैं। राज्य फंडिंग से यह चक्र टूटेगा।
4. पारदर्शिता बढ़ेगी
राज्य द्वारा फंडिंग होने पर प्रत्येक खर्च का रिकॉर्ड सार्वजनिक होगा।
5. लोकतंत्र मजबूत बनेगा
चुनाव धनबल की प्रतिस्पर्धा नहीं, विचारों की प्रतिस्पर्धा बनेंगे।
State Funding का कानूनी पहलू: क्या है वर्तमान स्थिति?
भारत में राज्य फंडिंग पर कई बार कमेटियों और आयोगों ने रिपोर्ट दी हैं:
1. तर्कुंडे कमेटी (1974)
सबसे पहले स्पष्ट रूप से State Funding की अनुशंसा की।
2. इंद्रजीत गुप्ता समिति (1998)
कहा कि भारत में आंशिक राज्य फंडिंग तुरंत लागू हो सकती है।
3. चुनाव आयोग की रिपोर्टें
चुनाव आयोग लगातार कहता रहा है कि State Funding धनबल को नियंत्रित कर सकती है।
4. विधि आयोग (2015)
इसने राज्य फंडिंग को संभव बताया, लेकिन सुधारों की एक विस्तृत श्रृंखला सुझाई।
लेकिन—
अब तक भारत सरकार ने इस पर कोई फैसला नहीं लिया है।
क्या State Funding से भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म हो जाएगा?
यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि:
- State Funding समाधान है,
- लेकिन पूर्ण समाधान नहीं।
इसके साथ कई अन्य सुधार भी आवश्यक हैं:
- राजनीतिक दलों की audit व्यवस्था
- पारदर्शी donation सिस्टम
- इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग और वोटर शिक्षा
- ECI को अधिक अधिकार
- उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि की जानकारी अनिवार्य
State Funding अकेले पर्याप्त नहीं, लेकिन सुधारों की दिशा में यह सबसे बड़ा कदम है।
अन्य देशों से क्या सीख मिलती है?
दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में State Funding लागू है—
- जर्मनी
- दक्षिण कोरिया
- फ्रांस
- इटली
- स्वीडन
- इज़राइल
- कनाडा
इन देशों में चुनावी भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत काफी कम है।
इन मॉडलों के अनुसार—
- न्यूनतम वोट पाने वाले दलों को फंड
- महिला उम्मीदवारों को विशेष सहायता
- पारदर्शी खर्च रिपोर्टिंग
- कड़ी सज़ाएँ
ये व्यवस्थाएँ भारत के लिए भी प्रेरक हो सकती हैं।
State Funding लागू करने की चुनौतियाँ
भारत जैसे बड़े देश में यह व्यवस्था लागू करना आसान नहीं:
- बड़ी जनसंख्या
- लाखों मतदान केंद्र
- सैकड़ों दल
- उच्च खर्च
- राजनीतिक विरोध
- दुरुपयोग का खतरा
लेकिन जस्टिस ओका का कहना है कि—
“चुनौतियाँ किसी सुधार को रोकने का कारण नहीं बननी चाहिए। लोकतंत्र की रक्षा सर्वोपरि है।”
राज्य फंडिंग से क्या बदलेगा?
यदि भारत State Funding अपनाता है तो बड़े परिवर्तन होंगे—
✔ चुनावी भ्रष्टाचार में कमी
✔ उम्मीदवारों के बीच बराबरी
✔ राजनीतिक दलों की पारदर्शिता
✔ कॉरपोरेट दान में कमी
✔ गरीब और ईमानदार व्यक्ति भी राजनीति में आ सकेंगे
✔ लोकतंत्र की गुणवत्ता में सुधार
तर्कुंडे और अब जस्टिस ओका दोनों मानते हैं कि यह कदम game-changer साबित हो सकता है।
निष्कर्ष: तर्कुंडे की दृष्टि आज भी समाधान क्यों है?
जस्टिस तर्कुंडे की सोच एक दूरदर्शी सोच थी। उन्होंने दशकों पहले जिस खतरे की चेतावनी दी थी, आज वही खतरा वास्तविकता बन चुका है—
चुनावी प्रणाली पर धनबल का बढ़ता दबाव।
जस्टिस ओका ने सही कहा कि—
- यदि भारत को फ्री और फेयर चुनाव चाहिए
- यदि लोकतंत्र को मजबूत बनाना है
- यदि भ्रष्टाचार को रोकना है
तो State Funding पर गंभीरता से विचार आवश्यक है।
आज भारत को एक ऐसे चुनावी मॉडल की जरूरत है—
✔ जिसमें पारदर्शिता हो
✔ जिसमें दुरुपयोग की गुंजाइश न हो
✔ जिसमें समानता हो
✔ जिसमें शक्ति विचारों की हो, न कि धन की
State Funding ऐसा मॉडल प्रदान कर सकती है।
यह केवल एक नीतिगत सुझाव नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए एक अनिवार्य कदम है।