मुंबई ट्रेन ब्लास्ट केस: 19 साल बाद सभी आरोपी बरी – क्या न्याय में देरी न्याय से इनकार है?

मुंबई ट्रेन ब्लास्ट केस: 19 साल बाद सभी आरोपी बरी – क्या न्याय में देरी न्याय से इनकार है?
(एक ऐतिहासिक फैसले का विश्लेषण)


भूमिका

11 जुलाई 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेनों में हुए सिलसिलेवार बम धमाके भारत के इतिहास में सबसे भयावह आतंकी हमलों में गिने जाते हैं। 189 निर्दोष लोग मारे गए, 824 घायल हुए, और पूरा देश दहल उठा। करीब 19 वर्षों तक चले मुकदमे के बाद बॉम्बे हाई कोर्ट ने 12 में से 11 आरोपियों को बरी कर दिया। इस निर्णय ने भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली, जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली और आतंकवाद निरोधक कानूनों पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।


फैसले की मुख्य बातें

  • 5 को निचली अदालत ने दी थी फांसी, 7 को आजीवन कारावास, लेकिन हाई कोर्ट ने सभी को बरी किया।
  • एक आरोपी की मौत कोविड-19 के दौरान हो चुकी है।
  • गवाहों के बयान अविश्वसनीय, सबूत अपर्याप्त, और कबूलनामे संदेहास्पद माने गए।
  • महाराष्ट्र सरकार ने कहा है कि वह इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी, इसलिए आरोपी फिलहाल रिहा नहीं होंगे

5 प्रमुख कारण जिनसे आरोपी दोषी सिद्ध नहीं हो सके

1. बम की प्रकृति नहीं बता पाए

जांच एजेंसियों ने बम में उपयोग किए गए सामग्री जैसे आरडीएक्स, सर्किट बोर्ड आदि की जब्ती तो दिखाई, लेकिन यह साक्ष्य घटना से सीधे नहीं जोड़े जा सके

  • सीलिंग प्रक्रिया में गड़बड़ियां थीं।
  • हमले में किस प्रकार का विस्फोटक इस्तेमाल हुआ – यह भी स्पष्ट नहीं किया जा सका।

2. शिनाख्त परेड में प्रक्रिया का उल्लंघन

  • शिनाख्त परेड एक ऐसे अधिकारी ने करवाई, जिसे यह करने का अधिकार नहीं था
  • मुख्य गवाह जिसने आरोपियों के स्केच बनाए थे, उसे न शिनाख्त पर बुलाया गया, न कोर्ट में पहचान के लिए कहा गया।

3. गवाहों के बयान बहुत देर से लिए गए

  • जैसे, एक टैक्सी चालक का बयान 100 दिन बाद रिकॉर्ड हुआ।
  • कोर्ट ने सवाल उठाया कि इतने दिन बाद कोई व्यक्ति चेहरे कैसे याद रख सकता है, जबकि उसे आरोपी से बात करने का मौका तक नहीं मिला।

4. बयानों में विरोधाभास

  • एक गवाह ने कहा, वह घर के अंदर गया और बम बनते देखा, फिर खुद ही कहा कि वह घर में दाखिल नहीं हुआ
  • कई गवाहों ने तीन माह बाद बयान दिए, और फिर भी ठोस पहचान कैसे कर ली, यह न्यायालय ने संदेहास्पद माना।

5. कबूलनामे कोर्ट ने खारिज किए

  • पुलिस द्वारा लिए गए बयान अत्यधिक मिलते-जुलते थे, जिससे बना संदेह कि शायद दबाव में लिखवाए गए हों।
  • अधिकृत अनुमति के बिना कबूलनामे लिए गए, जो प्रक्रिया में खामी दिखाते हैं।

विश्लेषण: क्या जांच एजेंसियों की विफलता रही प्रमुख कारण?

प्रसिद्ध सरकारी वकील उज्ज्वल निकम ने इस फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “मैं इस चौंकाने वाले फैसले से दुखी हूं। आरोपियों की पहचान और इकबालिया बयान में विसंगतियां रही होंगी, लेकिन हमला पूरी तरह 1993 के स्टाइल में हुआ था।”

हकीकत यह है कि जिस प्रकार की तकनीकी और कानूनी चूकें इस मामले में दिखीं – वह किसी साधारण अपराध में नहीं, बल्कि एक संगठित आतंकी हमला होने के बावजूद बेहद शिथिल जांच प्रणाली को उजागर करती हैं।


रक्षा पक्ष की भूमिका: पूर्व चीफ जस्टिस की पैरवी

दिलचस्प तथ्य यह रहा कि उड़ीसा हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस. मुरलीधर ने इन आरोपियों की पैरवी की।

  • उन्होंने दलील दी कि बयानों की समानता, प्रक्रियागत खामियां, और प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन के आधार पर आरोपी बरी होने योग्य हैं।
  • न्यायिक करियर में उन्होंने सिख विरोधी दंगे, हाशिमपुरा नरसंहार जैसे मामलों में ऐतिहासिक फैसले दिए हैं, जिससे उनकी सख्त न्याय दृष्टि का प्रमाण मिलता है।

न्याय में देरी या न्याय से इनकार?

  • यह निर्णय 19 वर्षों बाद आया, जब तक 189 परिवारों ने शायद आशा छोड़ दी होगी।
  • सवाल उठते हैं –
    • क्या इतने बड़े हमले में कोई दोषी नहीं था?
    • क्या निष्पक्ष जांच और मजबूत साक्ष्य देना सरकार और एजेंसियों की जिम्मेदारी नहीं थी?

समान मामले: जयपुर ब्लास्ट केस

  • 13 मई 2008 को जयपुर बम धमाकों में भी सभी आरोपी बरी हो चुके हैं
  • वहाँ भी निचली अदालत ने फांसी दी थी, लेकिन राजस्थान हाई कोर्ट ने सभी को बरी कर दिया।
  • दोनों मामलों की मूल समस्या – साक्ष्य की विश्वसनीयता

निष्कर्ष

मुंबई ट्रेन ब्लास्ट जैसे भीषण आतंकी हमलों में न्याय प्रणाली की यह स्थिति केवल पीड़ितों के लिए ही नहीं, पूरे लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के लिए एक चेतावनी है। अगर आरोपी बरी होते हैं, तो या तो वे निर्दोष थे, या हम उन्हें दोषी साबित करने में विफल रहे – दोनों ही स्थिति भयावह है।