मीडिया और मनोरंजन कानून (Media & Entertainment Law) :
सेंसरशिप और प्रकाशन अधिकार
भूमिका
लोकतंत्र में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मूलभूत अधिकार है, जिसे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत संरक्षण प्राप्त है। वहीं, सेंसरशिप (Censorship) और प्रकाशन अधिकार (Copyright) जैसे विषय साहित्य, फिल्म, समाचार पत्र, और अन्य प्रकाशनों से सीधे जुड़े हैं। ये दोनों विषय एक-दूसरे से अलग भी हैं और कई बार एक-दूसरे से टकराते भी हैं।
सेंसरशिप क्या है?
सेंसरशिप का अर्थ होता है:
👉 किसी सामग्री के प्रकाशन, प्रसारण या प्रदर्शनी से पहले सरकार या किसी प्राधिकरण द्वारा उसकी जांच और नियंत्रण।
👉 सेंसरशिप का उद्देश्य समाज में नैतिकता, शांति और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखना होता है।
सेंसरशिप के कानूनी आधार:
✅ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत:
- राज्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर “यथोचित प्रतिबंध” लगा सकता है।
- उदाहरण: भारत की एकता और अखंडता, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, राज्य की सुरक्षा, अदालत की अवमानना, मानहानि, इत्यादि।
✅ सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952: - फिल्मों के प्रदर्शन से पूर्व सेंसरशिप बोर्ड (CBFC) प्रमाणपत्र जारी करता है।
- उद्देश्य: अश्लील, हिंसात्मक या समाजविरोधी सामग्री को रोकना।
✅ प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ बुक्स एक्ट, 1867: - प्रकाशनों के पंजीकरण के लिए प्रावधान।
✅ आईटी अधिनियम, 2000 (संशोधित): - ऑनलाइन कंटेंट और इंटरमीडियरीज़ पर सेंसरशिप के प्रावधान।
सेंसरशिप के सकारात्मक पक्ष:
- समाज में अशांति और घृणा फैलाने वाली सामग्री पर रोक लगाना।
- बच्चों और कमजोर वर्गों की सुरक्षा।
- नैतिक मूल्यों की रक्षा।
सेंसरशिप के नकारात्मक पक्ष:
- रचनात्मक अभिव्यक्ति का दमन।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुचित हस्तक्षेप।
- सत्ता का दुरुपयोग।
प्रकाशन अधिकार (Copyright) क्या है?
प्रकाशन अधिकार बौद्धिक संपदा का एक भाग है, जो लेखक, कलाकार, फिल्म निर्माता, और सॉफ़्टवेयर डेवलपर जैसे रचनात्मक लोगों को उनकी रचनाओं पर कानूनी अधिकार प्रदान करता है।
प्रकाशन अधिकार का उद्देश्य:
✅ रचनात्मक कृतियों की चोरी को रोकना।
✅ लेखकों/कलाकारों को उनकी रचनाओं पर नियंत्रण और आर्थिक लाभ देना।
✅ समाज को नए और मूल विचारों से लाभ पहुंचाना।
भारत में प्रकाशन अधिकार का कानूनी आधार:
✅ भारतीय कॉपीराइट अधिनियम, 1957 (संशोधित 2012)।
✅ इसमें साहित्यिक, नाट्य, संगीत, कलात्मक, फिल्म और साउंड रिकॉर्डिंग कृतियों का अधिकार संरक्षित किया जाता है।
✅ लेखकों को नैतिक अधिकार (moral rights) भी दिए जाते हैं जैसे:
- रचना का श्रेय लेना।
- रचना से छेड़छाड़ रोकना।
सेंसरशिप और प्रकाशन अधिकार का अंतर:
बिंदु | सेंसरशिप | प्रकाशन अधिकार |
---|---|---|
परिभाषा | किसी सामग्री के प्रकाशन या प्रदर्शन से पहले सरकारी नियंत्रण। | लेखक/रचनाकार का उसकी रचना पर कानूनी अधिकार। |
उद्देश्य | समाज में नैतिकता, शांति और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखना। | रचनात्मक कृतियों की चोरी से सुरक्षा और आर्थिक अधिकार देना। |
कानून | अनुच्छेद 19(2), सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, आईटी अधिनियम। | कॉपीराइट अधिनियम, 1957। |
दायरा | फिल्मों, पुस्तकों, समाचार पत्रों, ऑनलाइन सामग्री आदि पर लागू। | साहित्य, संगीत, कला, फिल्मों, सॉफ्टवेयर आदि पर लागू। |
चुनौतियाँ | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश। | डिजिटल चोरी, पाइरेसी। |
टकराव और सामंजस्य
कई बार प्रकाशन अधिकार और सेंसरशिप एक-दूसरे के विपरीत खड़े हो जाते हैं:
- कोई रचनात्मक सामग्री कॉपीराइट के तहत संरक्षित होती है, लेकिन उसमें आपत्तिजनक बातें होने पर सेंसरशिप के तहत प्रतिबंधित हो सकती है।
- उदाहरण: कोई फिल्म सेंसर बोर्ड से प्रमाणपत्र लेने के बावजूद अदालत में चुनौती दी जा सकती है।
- ऐसे मामलों में न्यायालय को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सार्वजनिक हित के बीच संतुलन बनाना पड़ता है।
महत्वपूर्ण केस लॉ:
✅ KA Abbas v. Union of India (1970):
- फिल्मों में सेंसरशिप लागू है क्योंकि फिल्में दृश्य माध्यम होती हैं और सीधे तौर पर जनता पर प्रभाव डालती हैं।
- सेंसरशिप उचित प्रतिबंध के दायरे में आती है।
✅ Ramesh v. Union of India (1988): - दूरदर्शन के कार्यक्रम पर सेंसरशिप को चुनौती दी गई थी।
- अदालत ने कहा कि यदि कार्यक्रम से सांप्रदायिक तनाव या हिंसा की संभावना हो तो सेंसरशिप उचित है।
✅ Indian Express Newspapers v. Union of India (1985): - प्रेस की स्वतंत्रता पर करों और अप्रत्यक्ष प्रतिबंधों के खिलाफ फैसला।
✅ Amarnath Sehgal v. Union of India (2005): - कॉपीराइट के तहत नैतिक अधिकारों की रक्षा।
निष्कर्ष
सेंसरशिप और प्रकाशन अधिकार, दोनों अभिव्यक्ति की दुनिया के महत्वपूर्ण पक्ष हैं। एक ओर सेंसरशिप सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी है, तो दूसरी ओर प्रकाशन अधिकार रचनात्मकता को प्रोत्साहित करते हैं। इन दोनों के बीच संतुलन बनाना ही लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती है। न्यायालयों की भूमिका इस संतुलन को साधने में निर्णायक रहती है ताकि न तो रचनात्मक अभिव्यक्ति का दमन हो और न ही समाज की शांति और नैतिकता खतरे में पड़े।
डिजिटल मीडिया और प्रसारण कानून
भूमिका
सूचना प्रौद्योगिकी के युग में डिजिटल मीडिया और प्रसारण ने समाज के हर क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। समाचार, मनोरंजन, शिक्षा, और सोशल नेटवर्किंग जैसे क्षेत्र अब डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर आधारित हैं। इसने लोकतंत्र को सशक्त बनाया है, लेकिन साथ ही कई तरह की कानूनी, नैतिक और सामाजिक चुनौतियाँ भी उत्पन्न की हैं। भारत में डिजिटल मीडिया और प्रसारण क्षेत्र को नियंत्रित करने के लिए कई अधिनियम, नियम और न्यायिक फैसले हैं, जिनका उद्देश्य जिम्मेदार और नैतिक प्रसारण सुनिश्चित करना है।
डिजिटल मीडिया क्या है?
डिजिटल मीडिया में इंटरनेट पर उपलब्ध समाचार वेबसाइटें, ब्लॉग, वेब पोर्टल्स, ओटीटी प्लेटफॉर्म्स (जैसे नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम), यूट्यूब चैनल्स और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स (जैसे फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम) शामिल हैं। यह परंपरागत प्रिंट और ब्रॉडकास्ट मीडिया की तुलना में कहीं अधिक त्वरित और व्यापक पहुँच प्रदान करता है।
प्रसारण कानून क्या है?
प्रसारण कानून में रेडियो, टेलीविजन और केबल टीवी जैसे पारंपरिक माध्यमों के लिए बनाए गए कानूनी प्रावधान शामिल हैं। भारत में प्रसारण क्षेत्र का विधायी ढाँचा विभिन्न अधिनियमों और दिशानिर्देशों से नियंत्रित होता है:
✅ भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885: प्रारंभिक प्रसारण नियंत्रण।
✅ इंडियन वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट, 1933: रेडियो और वायरलेस संचार का विनियमन।
✅ केबल टेलीविजन नेटवर्क्स (विनियमन) अधिनियम, 1995: केबल टीवी नेटवर्क का पंजीकरण और विनियमन।
✅ प्रसार भारती (स्थापना) अधिनियम, 1990: राष्ट्रीय प्रसारक के रूप में प्रसार भारती की स्थापना।
डिजिटल मीडिया और प्रसारण के क्षेत्र में प्रमुख कानूनी ढाँचा
(1) सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT Act)
- डिजिटल सामग्री और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स को नियंत्रित करता है।
- धारा 69A: सरकार को सार्वजनिक हित में वेबसाइट्स या कंटेंट ब्लॉक करने की शक्ति।
- आईटी (मध्यस्थ दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 के माध्यम से OTT प्लेटफॉर्म्स, डिजिटल न्यूज़ और सोशल मीडिया को रेग्युलेट किया गया।
(2) आईटी (मध्यस्थ और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021
- डिजिटल न्यूज़ पब्लिशर्स, सोशल मीडिया इंटरमीडियरीज़ और OTT प्लेटफॉर्म्स को अपने कंटेंट के लिए जिम्मेदार ठहराया गया।
- तीन स्तरीय शिकायत निवारण तंत्र:
➡️ पहला स्तर: स्वयं-नियमन।
➡️ दूसरा स्तर: स्व-नियामक निकाय।
➡️ तीसरा स्तर: सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का निरीक्षण। - फर्जी खबरें, आपत्तिजनक कंटेंट और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों पर अंकुश लगाने का प्रयास।
(3) केबल टेलीविजन नेटवर्क्स (विनियमन) अधिनियम, 1995
- टेलीविजन सामग्री पर ‘प्रोग्राम कोड’ और ‘विज्ञापन कोड’ लागू करता है।
- सरकार के पास कार्यक्रमों के प्रसारण पर रोक लगाने की शक्ति।
(4) प्रसार भारती अधिनियम, 1990
- भारत के सार्वजनिक प्रसारक के रूप में दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो को स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ संचालित करना।
डिजिटल मीडिया और प्रसारण कानून की चुनौतियाँ
(i) सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संतुलन
- अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) के तहत इस पर यथोचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।
- OTT प्लेटफॉर्म्स पर सामग्री को लेकर सेंसरशिप और नैतिकता का सवाल उठता है।
(ii) फेक न्यूज़ और दुष्प्रचार
- डिजिटल मीडिया के ज़रिए गलत सूचनाएँ और अफवाहें तेजी से फैलती हैं।
- दुष्प्रचार रोकने के लिए सरकार द्वारा कड़े नियम बनाए जा रहे हैं।
(iii) डेटा सुरक्षा और गोपनीयता
- OTT और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर यूज़र्स का डेटा बड़ी मात्रा में एकत्र होता है।
- व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम (Personal Data Protection Bill) अभी भी पारित नहीं हुआ।
(iv) लाइसेंसिंग और रेगुलेशन
- पारंपरिक मीडिया की तुलना में डिजिटल मीडिया के लिए अलग से स्पष्ट लाइसेंसिंग व्यवस्था का अभाव।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय
✅ Shreya Singhal v. Union of India (2015):
- सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66A को असंवैधानिक घोषित किया और ऑनलाइन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षित किया।
✅ Avinash Mehrotra v. Union of India (2021):
- OTT प्लेटफॉर्म्स पर नियंत्रण और विनियमन के लिए आईटी (मध्यस्थ दिशानिर्देश) नियमों की वैधता को चुनौती दी गई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कंटेंट रेगुलेशन के लिए उचित दिशा-निर्देश बनाने का अधिकार बताया।
✅ Ministry of Information and Broadcasting v. Cricket Association of Bengal (1995):
- एयरवेव्स जनता की संपत्ति हैं, इसलिए इनका उपयोग जनहित में होना चाहिए।
निष्कर्ष
डिजिटल मीडिया और प्रसारण कानून भारत में तेजी से बदलते संचार परिदृश्य को नियंत्रित करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। तकनीकी प्रगति के साथ ही, इन क्षेत्रों में डेटा सुरक्षा, सेंसरशिप, फेक न्यूज़ और नैतिक प्रसारण जैसी चुनौतियों का समाधान करने के लिए सरकार और न्यायपालिका को एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगा ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक उत्तरदायित्व दोनों सुरक्षित रह सकें।