“मास्टरमाइंड तो कभी पकड़ा नहीं जाता” : ड्रग्स की तस्करी पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी — एनडीपीएस कानून की जांच प्रणाली पर उठे गंभीर सवाल
प्रस्तावना
भारत में नशीले पदार्थों की तस्करी और अवैध व्यापार एक गहराती सामाजिक व कानूनी समस्या बन चुकी है। आए दिन बड़ी मात्रा में ड्रग्स की जब्ती और गिरफ्तारियों की खबरें आती हैं, परंतु असली सवाल यह है — क्या इन कार्रवाइयों से मादक पदार्थों के “मास्टरमाइंड” या “सप्लाई नेटवर्क” तक वास्तव में पहुंच बनाई जा रही है?
इसी गहन चिंता को सर्वोच्च न्यायालय ने भी उजागर किया है। हाल ही में न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की पीठ ने एनडीपीएस (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances) अधिनियम के अंतर्गत चल रहे एक मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की कि “एनडीपीएस मामलों में कभी भी मास्टरमाइंड की गिरफ्तारी नहीं होती” — जो भारत में मादक पदार्थों की जांच और अभियोजन प्रणाली पर एक गहरी चोट के समान है।
मामले की पृष्ठभूमि: गुरजीत सिंह की जमानत याचिका
यह टिप्पणी उस समय आई जब सर्वोच्च न्यायालय गुरजीत सिंह नामक अभियुक्त की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रहा था।
गुरजीत सिंह को नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) द्वारा लुधियाना (पंजाब) में मेथामफेटामाइन (Methamphetamine) के अवैध निर्माण और अंतरराष्ट्रीय तस्करी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने फरवरी 2024 में उसकी जमानत याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि वह एक संगठित अंतरराष्ट्रीय ड्रग नेटवर्क का सक्रिय सदस्य है।
हाई कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि जांच के दौरान एकत्रित गवाहों के बयान, बरामदगी, वित्तीय लेनदेन के रिकॉर्ड और डिजिटल सबूतों से यह सिद्ध होता है कि अभियुक्त सक्रिय रूप से इस नेटवर्क का हिस्सा था। इस प्रकार, उसकी गतिविधियाँ एनडीपीएस अधिनियम की धारा 29 (अपराधी साजिश) के तहत आती हैं।
सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणियाँ
सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति सुंदरेश ने स्पष्ट शब्दों में कहा:
“एनडीपीएस मामलों में, कभी भी मास्टरमाइंड की गिरफ्तारी नहीं होती। वे पीछे रहते हैं। स्पष्ट है कि ए, बी, सी और डी पकड़े जाएंगे, पर असली अपराधी नहीं। कितने मामलों में मास्टरमाइंड पर आरोप लगाए गए हैं? कितने स्त्रोतों को खोजा गया है? यह अवैध पदार्थ कहां से आया?”
यह टिप्पणी केवल एक मामले तक सीमित नहीं है, बल्कि देशभर में फैली मादक पदार्थों की आपूर्ति श्रृंखला और उस पर की जा रही सतही कार्रवाई की गवाही देती है। अदालत ने यह भी इंगित किया कि जांच एजेंसियां अक्सर छोटे स्तर के डिलीवरी एजेंटों, कूरियरों और प्रयोगशाला कर्मियों तक ही सीमित रहती हैं, जबकि बड़े सप्लायर और नेटवर्क ऑपरेटर छिपे रहते हैं।
भारत में मादक पदार्थों की स्थिति
भारत, जो भौगोलिक रूप से “गोल्डन क्रीसेंट” (अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान) और “गोल्डन ट्रायंगल” (म्यांमार, लाओस, थाईलैंड) जैसे विश्व के दो प्रमुख ड्रग उत्पादन क्षेत्रों के बीच स्थित है, स्वाभाविक रूप से मादक पदार्थों की तस्करी के लिए संवेदनशील क्षेत्र है।
एनसीबी की रिपोर्टों के अनुसार, हर वर्ष हजारों किलो हेरोइन, अफीम, गांजा, कोकीन, और सिंथेटिक ड्रग्स जब्त किए जाते हैं।
फिर भी, अधिकांश गिरफ्तारियां छोटे पैमाने के वाहकों या ‘पेड एजेंट्स’ की होती हैं। असली मास्टरमाइंड जो इन नेटवर्कों को वित्तीय सहायता, तकनीकी साधन, या अंतरराष्ट्रीय कनेक्शन देते हैं, अक्सर कानून की पकड़ से बाहर रहते हैं।
एनडीपीएस अधिनियम और उसकी कठोरता
एनडीपीएस अधिनियम, 1985 को नशीले पदार्थों की तस्करी को रोकने और कठोर दंड देने के उद्देश्य से बनाया गया था।
इसमें न्यूनतम सज़ा 10 वर्ष और अधिकतम आजीवन कारावास तक की प्रावधान हैं। इसके बावजूद, जांच की गहराई और साक्ष्यों की मजबूती अक्सर अदालत में कमजोर पड़ जाती है।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी इसी वास्तविकता को इंगित करती है कि कानून भले ही कठोर है, परंतु उसका प्रवर्तन चयनात्मक और सतही रह गया है।
जांच एजेंसियों की भूमिका पर सवाल
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी जांच एजेंसियों, विशेष रूप से एनसीबी, डीआरआई, और राज्य पुलिस विभागों पर सवाल उठाती है।
जांच में अकसर पाया गया है कि जब्त किए गए ड्रग्स के स्रोत या फंडिंग चेन तक पहुंचने के बजाय, केवल “फील्ड-लेवल” अपराधियों पर ही मुकदमे चलाए जाते हैं।
कई मामलों में न तो बैंकिंग रिकॉर्ड का विश्लेषण होता है, न ही डिजिटल ट्रेल्स को ठीक से ट्रेस किया जाता है।
न्यायालय ने यह भी इंगित किया कि “बड़ी मछलियां” (Big Fish) हमेशा जाल से बच निकलती हैं, और इस विफलता से कानून की भय-धारणा कमजोर होती है।
अदालत की चिंता: समाज पर प्रभाव
न्यायालय ने यह भी स्वीकार किया कि नशीली दवाओं की बढ़ती लत न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य बल्कि सामाजिक सुरक्षा के लिए भी गंभीर खतरा है।
मादक पदार्थों का सेवन युवाओं को अपराध, हिंसा, और मानसिक असंतुलन की ओर धकेल रहा है।
यह राष्ट्रीय उत्पादकता, पारिवारिक स्थिरता, और सामाजिक मूल्यों पर सीधा प्रहार है।
सुप्रीम कोर्ट ने अप्रत्यक्ष रूप से यह संदेश दिया कि केवल छोटे अपराधियों की गिरफ्तारी से समस्या समाप्त नहीं होगी, बल्कि पूरे नेटवर्क के वित्तीय और लॉजिस्टिक तंत्र को ध्वस्त करना ही वास्तविक समाधान है।
प्रणालीगत सुधार की आवश्यकता
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी देश की आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए एक चेतावनी है।
यदि जांच एजेंसियां केवल “सतही सफलता” दिखाने के लिए गिरफ्तारियां करती रहेंगी, तो मादक पदार्थों का व्यापार और गहराता जाएगा।
इसके लिए आवश्यक है कि:
- वित्तीय जांच (Financial Investigation) को प्राथमिकता दी जाए — जैसे मनी ट्रेल, हवाला चैनल, और बैंकिंग रिकॉर्ड।
- अंतरराष्ट्रीय सहयोग (International Coordination) को सशक्त किया जाए, विशेषकर दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिम एशिया से आने वाले नेटवर्कों के खिलाफ।
- डिजिटल फोरेंसिक साक्ष्य का बेहतर उपयोग हो — जैसे डार्क वेब लेनदेन और क्रिप्टो करेंसी भुगतान की निगरानी।
- सूचना नेटवर्क और व्हिसलब्लोअर सिस्टम को प्रोत्साहित किया जाए ताकि वास्तविक सरगनाओं तक पहुंच संभव हो सके।
- न्यायिक निगरानी और स्वतंत्र पर्यवेक्षण तंत्र सुनिश्चित किया जाए ताकि जांच एजेंसियां जवाबदेह रहें।
न्यायालय की भूमिका और अपेक्षा
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका केवल कानून की व्याख्या तक सीमित नहीं है, बल्कि यह न्याय प्रणाली के नैतिक मानकों की संरक्षक भी है।
इस टिप्पणी से अदालत ने स्पष्ट किया कि न्याय केवल “कानूनी औपचारिकता” नहीं बल्कि “सत्य की खोज” है।
अदालत ने यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता जताई कि एनडीपीएस अधिनियम का प्रयोग केवल कमजोर वर्गों पर कठोरता दिखाने का औजार न बने, बल्कि उन शक्तिशाली नेटवर्कों के विरुद्ध हो जो इस व्यापार को बढ़ावा देते हैं।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट की यह सख्त टिप्पणी एक महत्वपूर्ण न्यायिक हस्तक्षेप है, जिसने भारत में ड्रग्स नियंत्रण तंत्र की वास्तविकता को बेनकाब किया है।
“मास्टरमाइंड तो कभी पकड़ा नहीं जाता” — यह कथन केवल एक न्यायिक टिप्पणी नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय आत्मनिरीक्षण का आह्वान है।
यह समय है कि कानून प्रवर्तन एजेंसियां केवल निचले स्तर के आरोपियों को निशाना बनाने के बजाय, ड्रग्स तस्करी के असली संचालकों — वित्तपोषकों, नेटवर्क प्रमुखों और अंतरराष्ट्रीय कनेक्शनों — तक अपनी जांच को विस्तारित करें।
केवल तभी भारत “ड्रग-फ्री” समाज की दिशा में ठोस कदम बढ़ा सकेगा।
अन्यथा, यह कठोर कानून भी केवल “कमज़ोरों पर कठोरता और ताकतवरों पर चुप्पी” का प्रतीक बनकर रह जाएगा।