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मालेगांव ब्लास्ट केस 2008 : 17 साल बाद बरी हुए सभी आरोपी – सबूतों की कमी और संदेह से परे प्रमाण का अभाव

मालेगांव ब्लास्ट केस 2008 : 17 साल बाद बरी हुए सभी आरोपी – सबूतों की कमी और संदेह से परे प्रमाण का अभाव

प्रस्तावना

भारत के आपराधिक न्यायशास्त्र का मूल सिद्धांत है कि “सौ दोषी छूट जाएं, लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए।” इसी सिद्धांत को आधार बनाकर मुंबई की विशेष एनआईए अदालत (NIA Special Court) ने अगस्त 2025 में मालेगांव ब्लास्ट केस के सातों आरोपियों को बरी कर दिया। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष संदेह से परे आरोप सिद्ध करने में असफल रहा और केवल संदेह, अफवाह या अधूरे साक्ष्य किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने का आधार नहीं बन सकते।

यह फैसला न केवल इस लंबे चले मुकदमे का अंत है, बल्कि भारतीय जांच एजेंसियों, अभियोजन प्रणाली और न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर गहरे प्रश्न भी खड़ा करता है।


मालेगांव विस्फोट 2008 : घटना का संक्षिप्त विवरण

29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव कस्बे में बम विस्फोट हुआ, जिसमें 6 लोगों की मौत और 100 से अधिक लोग घायल हुए। यह घटना ऐसे समय पर हुई जब देशभर में सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आ रही थीं।

मालेगांव विस्फोट की जांच पहले महाराष्ट्र एटीएस (Anti-Terrorism Squad) ने की और बाद में मामला एनआईए (National Investigation Agency) को सौंपा गया।


आरोप और आरोपी

इस मामले में शुरुआत में नौ लोगों को आरोपी बनाया गया, जिनमें से सात आरोपियों के खिलाफ मुकदमा लंबे समय तक चला। प्रमुख आरोपियों में प्रज्ञा सिंह ठाकुर (अब सांसद), लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित और अन्य शामिल थे। हालांकि, समय के साथ कुछ आरोपियों को राहत मिल गई और अंततः सात आरोपियों के खिलाफ ही मुकदमा जारी रहा।

अभियोजन का आरोप था कि यह हमला हिंदुत्ववादी संगठनों से जुड़े लोगों की साजिश के तहत हुआ था।


अदालत की कार्यवाही और लंबी सुनवाई

  • इस केस में लगभग 500 गवाहों के बयान दर्ज किए गए।
  • दर्जनों दस्तावेज, फोरेंसिक रिपोर्ट, और कबूलनामे अदालत के समक्ष रखे गए।
  • लेकिन वर्षों की सुनवाई के बाद अदालत ने पाया कि गवाहों के बयान विरोधाभासी हैं और कई गवाह अपने बयान से पलट गए (Hostile हो गए)।
  • अभियोजन पक्ष का पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित था, जिसमें स्पष्ट और ठोस सबूतों का अभाव था।

अदालत का फैसला (अगस्त 2025)

विशेष एनआईए अदालत ने अपने विस्तृत आदेश में कहा –

  1. सिर्फ संदेह पर्याप्त नहीं – अदालत ने कहा कि आपराधिक न्याय प्रणाली में केवल संदेह के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। संदेह कितना भी प्रबल क्यों न हो, जब तक ठोस साक्ष्य नहीं होते, दोषसिद्धि संभव नहीं।
  2. अभियोजन पक्ष असफल रहा – अभियोजन पक्ष आरोपों को संदेह से परे सिद्ध करने में असफल रहा। उनके द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य अधूरे और असंगत थे।
  3. कबूलनामों पर सवाल – कुछ आरोपियों द्वारा पुलिस और एटीएस हिरासत में दिए गए कथित कबूलनामे अदालत में मान्य नहीं ठहराए गए। अदालत ने कहा कि ऐसे कबूलनामे अक्सर दबाव और भय में दिए जाते हैं और बिना स्वतंत्र पुष्टि के उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
  4. गवाहों का पलटना – बड़ी संख्या में गवाहों ने अदालत में जाकर अपने पहले दिए बयान से पलट गए, जिससे अभियोजन की नींव कमजोर पड़ गई।
  5. निर्दोष की रक्षा – अदालत ने कहा कि आपराधिक न्याय प्रणाली का मूल उद्देश्य निर्दोष को सजा से बचाना है। इसलिए आरोपियों को बरी करना ही न्यायोचित है।

फैसले का कानूनी महत्व

यह फैसला भारतीय आपराधिक कानून के उस सिद्धांत को पुष्ट करता है जिसे अंग्रेज़ी में “Proof Beyond Reasonable Doubt” कहा जाता है। अर्थात् किसी भी आरोपी को दोषी ठहराने के लिए अभियोजन को यह साबित करना होगा कि अपराध करने में आरोपी की भूमिका को लेकर कोई यथोचित संदेह (Reasonable Doubt) न बचे।

मालेगांव केस में अदालत ने माना कि –

  • गवाहों के बयान भरोसेमंद नहीं हैं।
  • कबूलनामे दबाव में दिए गए थे।
  • फोरेंसिक रिपोर्ट और साक्ष्य अधूरे थे।
  • अभियोजन का मामला कानूनी कसौटी पर खरा नहीं उतरा।

जांच एजेंसियों पर सवाल

इस मामले ने जांच एजेंसियों की भूमिका पर गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं –

  1. जांच में जल्दबाजी – शुरुआती दौर में राजनीतिक और सामाजिक दबाव में जल्दबाजी में गिरफ्तारियां की गईं।
  2. फोरेंसिक खामियां – विस्फोट से जुड़ी तकनीकी जांच रिपोर्ट स्पष्ट नहीं थी।
  3. साक्ष्यों की कमजोर कड़ी – आरोपियों के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष (Direct Evidence) नहीं मिला।
  4. राजनीतिक हस्तक्षेप – यह आरोप भी लगा कि केस की दिशा बदलने में राजनीतिक दबाव रहा।

पीड़ित परिवारों की स्थिति

इस फैसले के बाद सबसे ज्यादा निराशा पीड़ित परिवारों को हुई है। जिनके अपने इस विस्फोट में मारे गए, वे वर्षों से न्याय की उम्मीद में अदालतों के चक्कर काट रहे थे। अदालत ने आरोपियों को बरी कर दिया, लेकिन इससे यह सवाल अनुत्तरित रह गया कि – आखिर 2008 के मालेगांव विस्फोट का असली जिम्मेदार कौन है?


सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव

  • सामाजिक दृष्टि से – इस फैसले ने समाज में एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि क्या आतंकवाद और हिंसा से जुड़े मामलों में निष्पक्ष जांच हो पाती है?
  • राजनीतिक दृष्टि से – मालेगांव केस को अक्सर ‘सांप्रदायिक आतंकवाद’ (Saffron Terror) से जोड़ा गया। अब जब आरोपी बरी हो गए हैं, तो राजनीतिक दल इसे अपने-अपने हित में मुद्दा बनाएंगे।
  • न्यायिक दृष्टि से – यह फैसला अदालतों की सतर्कता और सबूतों की कमी में दोषसिद्धि से बचने की नीति को पुष्ट करता है।

निष्कर्ष

मालेगांव ब्लास्ट केस का 17 साल लंबा सफर आखिरकार इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अभियोजन पक्ष आरोपियों को दोषी साबित करने में असफल रहा। अदालत ने कहा कि “सिर्फ संदेह के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।”

इस फैसले ने भारतीय न्याय प्रणाली का मूल सिद्धांत दोहराया – निर्दोष की रक्षा सर्वोपरि है। लेकिन इसके साथ ही इसने यह बड़ा सवाल भी छोड़ा है कि 2008 में हुए विस्फोट में निर्दोष मारे गए, उनके परिवारों को न्याय कब और कैसे मिलेगा? असली अपराधी कौन था?

जब तक इस सवाल का उत्तर नहीं मिलता, मालेगांव ब्लास्ट केस भारतीय न्यायिक इतिहास की सबसे बड़ी अनसुलझी पहेलियों में से एक बना रहेगा।